जंग है घोषित इमरजेंसी बनाम अघोषित इमरजेंसी ?
18 वीं लोकसभा के लिए चुनावों का पहला चरण हो चुका है; 62 प्रतिशत से अधिक मतदान के साथ मतदाताओं ने ईवीएम के द्वारा 102 सीटों के भाग्य का फैसला दे दिया है. शेष सीटों के लिए चुनाव प्रक्रिया 1 जून तक ज़ारी रहेगी. चुनावों के शोर के बीच मोदी -भक्त और भाजपा समर्थक अक़्सर इंदिरा गांधी के शासन काल की इमरजेंसी या आपातकाल का तल्ख़ी के साथ याद दिलाने से चूकते नहीं हैं. 25 जून, 24 आनेवाला है. 25 जून 1975 में लगी इमरजेंसी को उस रोज़ आपातकाल के 49 वर्ष पूरे हो जाएंगे. बेशक़, लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी दल की इमरजेंसी ‘ नामंज़ूर’ है. 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के इक्कीस मासी कालखंड को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की चुनौतीपूर्ण लोकतांत्रिक यात्रा का ‘अंधकारग्रस्त पड़ाव’ ही कहा जायेगा. किसी को इससे इंकार नहीं है.
इस एक वर्ष कम आधी सदी के कालखंड में भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था और शासन शैलियों में अनेक बदलाव आये हैं. लेकिन, विगत एक दशक के मोदी- शासन शैली ने कई प्रकार के संदेह, आशंकाएं, भय , अनिश्चितता, राज्य के चरित्र में परिवर्तन जैसी संभावनाएं पैदा करदी हैं. क्यों समाज के कतिपय क्षेत्रों में ऐसी आशंका है कि 2024 के आम चुनाव अंतिम है ?; यदि मोदी -नेतृत्व को प्रचंड बहुमत मिलता है तो संविधान में आमूलचूल परिवर्तन हो जायेगा ?; क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारत को हिन्दू राष्ट्र की घोषणा का तोहफ़ा उनकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को उसकी अगले वर्ष जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर देंगे ? क्या भाजपा के लिए वर्तमान चुनाव ‘ करो या मरो ‘ का अनुष्ठान बन गया है ? क्या मोदी -शाह शासन देश को’ विपक्ष व प्रतिरोध मुक्त भारत’ बना कर रहेंगे ?
भययुक्त आशंकाओं के अलावा बहस इस पर भी है कि क्या भारत में अघोषित इमरजेंसी का माहौल है? क्या देश में बहुसंख्यकवाद पर सवार तानाशाही है; क्या चुनावी अधिनायकवादी सत्ता का शासन है ? क्या मोदी हुकूमत को 21 वीं सदी का फासीवादी संस्करण कहा जाना चाहिए?; क्या अल्पसंख्यक समुदायों में विभिन्न हथकण्डों- नारों से ‘ दोयम दर्ज़ा या सेकंड क्लास सिटीजन’ के भाव भरे जा रहे हैं? क्या मुख्यधारा का मीडिया अघोषित सेंसरशिप का क़ैदी है?; क्या लोकतंत्र का अघोषित पटाक्षेप हो चुका है ? क्या भाजपा या मोदी विरोधियों को राष्ट्र या राज्य द्रोही और गद्दार की नज़र से देखा जा रहा है ? क्या वाक़ई भारत 1975 में लौट रहा है ? ऐसे सवालों और आशंकाओं के बादल देश के सामाजिक -राजनीतिक परिवेश पर छाए हुए हैं।
सबसे पहले इंदिरा- इमरजेंसी की पड़ताल करते हैं. जून, 1975 में इमरजेंसी की घोषणा से पहले देश का वातावरण बेहद आंदोलित था; इंदिरा शासन के ख़िलाफ़ समाजवादी -गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण उर्फ़ जे.पी. के नेतृत्व में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का बिगुल बज चुका था; मुशहरी आंदोलन, भारत नव निर्माण जैसे आन्दोलनों ने देश के सामाजिक – राजनीतिक तापमान को बहुत बढ़ा दिया था.इससे पहले, जनवरी 1971 के आमचुनावों में शानदार जीत और दिसंबर में पाकिस्तान -विभाजन व बांग्लादेश के जन्म में भारत के निर्णायक रोल ने इंदिरा गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर पहुंचाने के साथ साथ अंतराष्ट्रीय मंच का एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में भी स्थापित कर दिया था. यह वह समय था जब दुनिया ‘दो ध्रुवीय ‘ थी और सोवियत संघ व अमेरिकी शिविरों में बंटी हुई थी. लेकिन, इंदिरा गांधी ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के परचम तले भारत को चमकाये रखा था. ज़ाहिर है, अमेरिकी शिविर बेहद उखड़ा हुआ था. शीत युद्ध का दौर और सी.आई. ए.( अमेरिकी गुप्तचर संस्था) और के. ज़ी. बी. ( रूसी गुप्तचर संस्था) के माध्यम से भी प्रॉक्सी जंग लड़ी जा रही थी. भारत भी इसका अपवाद नहीं था. . देश में ज़बर्दस्त रेल कर्मचारियों की हड़ताल हुई ,विभाजित होने के बावज़ूद नक्सलबाड़ी आंदोलन ने शासक वर्ग के चूलें हिला कर रखी हुई थीं.देश की विभिन्न जेलों में बंद करीब 32 हज़ार राजनीतिककर्मियों का भी मुद्दा उभर रहा था. भ्रष्टाचार का मुद्दा भी केंद्र में आता जा रहा था. इंदिरा जी का ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा खोखला लगने लगा था. इस राष्ट्रव्यापी, विशेषतः हिंदी प्रदेश, असंतोष की पृष्ठभूमि में 1975 में समाजवादी नेता राजनारायण की एक चुनाव याचिका की सुनवाई में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री गांधी के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे दिया था. उत्तरप्रदेश की राय बरैली सीट से निर्वाचित इंदिरा जी का प्रधानमंत्री पद संकटों से घिर गया था.यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक यह प्रकरण पहुंच गया था. इसी बीच दिल्ली में आयोजित विपक्षी नेताओं की एक सार्वजनिक सभा में सम्पूर्ण क्रांति के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण ने अत्यंत गंभीर व संवेदनशील भाषण दिया था. इंदिरा गांधी से त्यागपत्र की मांग करने के साथ साथ उन्होंने सेना, पुलिस और सरकारी अधिकारियों -कर्मचारियों से भी अपील कर डाली कि वे इंदिरा सरकार के अवैध और अनैतिक आदेशों का पालन न करें. उन्होंने देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे से भी कहा कि वे इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध इंदिरा गांधी की याचिका को मत सुने. जयप्रकाश जी की इस अपील के बाद तो पारा तक़रीबन अपने शिखर पर था. इस बढ़ते खतरे से निपटने के लिए प्रधानमंत्री गाँधी ने 25 जून को संविधान सम्मत ‘आंतरिक इमरजेंसी’ को लागू कर दिया। उस समय राष्ट्रपति थे फखरुद्दीनअली अहमद। चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए. जे. पी. भी. मेरी दृष्टि में संपूर्ण क्रांति बिल्कुल भी क्रांति नहीं थी। एक प्रकार से 2012_ 13का भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हज़ारे आंदोलन का मूल रूप था। जे पी आंदोलन से ही राष्ट्रीय राजनीति में संघ और जनसंघ की अस्पृश्यता दूर होने लगी थी। जयप्रकाश जी सरल राजनीतिक प्रकृति के राजनेता थे।उन्होंने संघ परिवार के असली मंसूबों पर शंका नहीं की थी।फलस्वरूप वे जे पी आंदोलन में घुलमिल गए थे। संघ परिवार की विस्तारित भूमिका को अन्ना आंदोलन में देखा जा सकता है।इस भूमिका का क्लाइमैक्स है मोदी सत्ता का उदय ।
अब एक काल्पनिक दृश्य. यदि वर्तमान दौर में जय प्रकाश जी के स्वरों में विपक्ष के शिखर नेता( शरद पवार, खड़गे, ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, स्टालिन, सीताराम येचूरी, लालू यादव, फारुख अब्दुल्ला आदि ) प्रधानमंत्री मोदी से इस्तीफ़े की मांग के साथ साथ राष्ट्र के आधारभूत बलों (फोर्सेज) से कहें कि वे सरकार के अवैध व अनैतिक आदेशों का पालन न करें, तो मोदी-शाह सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिक्रिया कैसी रहेगी ? क्या वह सेना, पुलिस और अधिकारीयों से की गई अपील को सहन कर सकेगी? क्या वह उन्हें तुरंत ही जेल की सलाखों के पीछे नहीं डाल देगी ? यह सवाल इसलिए पैदा हो रहा है कि सरकार या मोदी जी की आलोचना को देश-राष्ट्र की आलोचना का पर्याय बनाया जा रहा है. राष्ट्र द्रोह का केस लगा कर गिरफ्तार किया जाता है. जे. पी. की तर्ज़ में सेना और पुलिस को नाफ़रमानी के लिए कहना स्वयं में संगीन मामला है. एक प्रकार से देश की निर्वाचित सरकार व व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत करने का आह्वान जैसा है. इसे कोई भी संविधान सम्मत सरकार सहन कैसे कर सकती है? अगर, मौज़ूदा दौर में ऐसी स्थिति पैदा होती है तो दिल्ली का सत्ता प्रतिष्ठान पल भर के लिए सहन नहीं कर सकेगा.वह विपक्ष को राष्ट्र विरोधी के साथ साथ हिन्दू विरोधी, मुस्लिम व पाकिस्तान परस्त, विदेशी ताक़तों का दलाल जैसे तमगों से जड़ देगा.
जयप्रकाश जी ने अपने भाषण में इंदिरा गांधी के फासीवाद के ख़िलाफ़ खड़े होने की बात कही थी. क्या आज़ का सत्ता तंत्र स्वस्थ लोकतान्त्रिक व उदारवादी है? क्या यह फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध खड़ा है ? क्या यह लोकतंत्र के नाम पर समाज का ध्रुवीकरण कर नहीं रहा है ? क्या यह हर विरोधी आवाज़ को धर्म और हिंदुत्व के चश्में से नहीं देख रहा है ? क्या चुनाव के दौर में ई.डी., सी.बी. आई. जैसी सरकारी एजेंसियों का दुरूपयोग नहीं हो
किया जा रहा है? क्या मुख्यमंत्री और मंत्रियों को जेलों में नहीं डाला गया है ? क्या बैंकों में विपक्ष के खातों पर पाबंदी नहीं लगाई है? क्या विभिन्न कारनामों से विपक्ष को अपंग नहीं बना दिया गया है ? क्या चुनाव में ‘लेवल प्लेइंग फील्ड ‘ रह गया है ? क्या विपक्ष के लिए ‘ऊबड़-खाबड़ मैदान ‘ बना नहीं दिया गया है ? यह किस इमरजेंसी से कम है? क्या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में धर्म-मज़हब का इस्तेमाल हुआ था ? क्या 1977 के आम चुनावों में विपक्षी दलों के बैंक खातों पर पाबन्दी लगी थी ? क्या जेल में बंद जॉर्ज फर्नाडीज़ सहित अन्य विपक्षी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोका गया था ? क्या उनके यहां इन्कम टैक्स जैसी संस्थाओं के छापे पड़े थे ? 1977 में चुनाव हारने के बाद इंदिरा जी ने शालीनता के साथ अपनी पराजय को स्वीकार किया था. सारांश में, उन्होंने जो कुछ किया, घोषित ढंग से किया था. क्या वर्तमान में ऐसा किया जा रहा है ? आज निवर्तमान मोदी -मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है. इतना ही नहीं, एक भी सांसद नहीं है. क्या यह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध परोक्ष सामाजिक+सांस्कृतिक + राजनैतिक इमरजेंसी नहीं है ? इंदिरा -इमरजेंसी में ऐसा नहीं था. यदि भाजपा को 303या370सीटें नहीं मिलेगी तो क्या मोदी जी शालीनता के साथ सत्ता छोड़ देंगे? यह सवाल भी उठ रहा है। मोदी जी विनम्रतापूर्वक कुर्सी त्याग नहीं करने वाले हैं।लोगों में ऐसी आशंकाएं हैं।
बेशक, इंदिरा इमरजेंसी ने प्रेस पर सेंसरशिप लगाई गई थी. कुलदीप नैयर जैसे कई वरिष्ठ पत्रकार गिरफ्तार भी हुए थे. इण्डियन एक्सप्रेस पर शिकंजा कैसा था. लेकिन, 26 व 27 जून, 75 को ऐसे भी दैनिक थे जिन्होनें सरकारी पाबंदियों के खिलाफ लिखा था. मुझे याद है, इंदौर से प्रकाशित प्रसिद्ध नई दुनिया के तत्कालीन संपादक राजेंद्र माथुर उर्फ़ रज्जू बाबू ने इमरजेंसी के विरुद्ध सात लेख लिख कर सत्ता तंत्र को हिला दिया था. उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया था . इमरजेंसी के दौरान मैंने स्वयं दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, लिंक, इकनोमिक पोलिटिकल वीकली में लेख लिखे थे. नई दुनिया में मेरा इंटरव्यू छपा था. मुझे याद नहीं, मेरे लेखों पर रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे चिंतक-लेखक सम्पादकों ने सेंसरशिप की कैंची चलाई हो! ऐसा भी समय आया था जब मेनस्ट्रीम के सम्पादक निखिल चक्रवर्ती सहित कई सम्पादकों व पत्रकारों ने इमरजेंसी व सेंसरशिप का खुल कर विरोध करना शुरू कर दिया था. संपादकीय स्पेस को खाली छोड़ना शुरू कर दिया था. क्या आज के मोदी -शाह दौर में गोदी मीडिया का कोई स्वामी, सम्पादक, एंकर सामने आ कर खुला विरोध करेगा ? क्या गोदी मीडिया ( टीवी+ प्रिंट ) मोदी जी के भाषण पर कैंची चला सकता है? क्या गोदी मीडिया में वित्त मंत्री के पति व विख्यात अर्थशास्त्री डॉ. प्रभाकर की चेतावनियों पर चर्चा की गई है ? क्या सीए जी (comptroller and auditor general of india) की रिपोर्टों में उजागर प्रकरणों को लेकर गोदी मीडिया में बहस हुई है ? क्या चीन की कारस्तानियों को लेकर चर्चा करवाई गई ? क्या गोदी मीडिया के पत्रकारों ने प्रधानमंत्री से कभी पूछा है कि वे प्रेस वार्ता क्यों नहीं बुलाते हैं ? क्या गोदी मीडिया ने मोदी जी और शाह जी पूछा है कि वे चुनाव आयोग की आचार संहिता का यथावत पालन करते हैं? क्या गोदी मीडिया ने चुनाव आयोग की कार्य शैली पर सवालिया निशान लगाया है ? गोदी मीडिया की यह कार्य शैली क्या दर्शाती है ? क्या यह आज़ाद मीडिया की प्रतीक है ? क्या इसे अघोषित सेंसरशिप नहीं कहा जाना चाहिए ? क्या कभी गोदी मीडिया ने पत्नोन्मुख लोकतंत्र और उभरती अधिनायकवादी प्रवृतियों पर चर्चा आयोजित की है ? प्रायः चैनलों पर भारत व पाकिस्तान और हिन्दू व मुसलमान की लज़ीजदार बहसों को परोस दिया जाता है. मीडिया में ‘उत्तर सत्य मीडिया और उत्तर सत्य राजनीति ‘ की अपसंस्कृति का प्रभुत्व छाया हुआ है। दूसरे शब्दों में, ‘सत्य का असत्य और असत्य का सत्य’ में सुविधानुसार मनभावन रूपांतरण की अपसंस्कृति की सत्ता फैली हुई है.सार तत्व यह है कि मौज़ूदा दौर में घोषित इमरजेंसी या आपातकाल नगण्य प्रतीत होते हैं. जंग में इंदिरा इमरजेंसी परास्त हो चुकी है. तब क्यों न मोदी -शाह दौर की इमरजेंसी के काल खण्ड को घोषित इमरजेंसी से अधिक भयावह और विजेता घोषित किया जाए?