जन मानस का मनोविज्ञान – क्या मोदी सत्ता को चाहिए गूंगी जनता, सवाल और विपक्ष मुक्त भारत?

April 02, 2024 | By Ramsharan Joshi
जन मानस का मनोविज्ञान – क्या मोदी सत्ता को चाहिए  गूंगी जनता, सवाल और विपक्ष मुक्त भारत?

“चुनावी बांड का करोड़ों रुपयों का घपला हो गया. कोईभी नेता  जेल नहीं गया है!.” यह तंज था एक ऑटोचालक का. किस्सा यह है कि मुझे किसी स्थान के लिए ऑटो लेना था. चालक मीटर से चलने से इंकार कर रहा था. मनमाना किराया मांग रहा था. जिस स्थान तक मुझे जाना था वहां का किराया 120 रु. तक देता रहा हूं।  फिरभी मैं 150 रु. तक देने के लिए तैयार था.लेकिन  चालक   200 रु.पर अड़ा हुआ था. और भी ऑटोचालक थे. टस -से-मस नहीं हो रहे थे. सभी के चेहरों पर घपलाकांड के भाव थे. बल्कि,उनके चेहरों पर  व्यंग्यभरी हंसी थी.एक चालक ने  व्यंग्यकसा, “ अंकल आप मेट्रो से चले जाएं। हमारे मीटर सो रहे हैं. उन डकैतों को तो कुछ कहते नहीं हैं?” यह सुन कर मैं मेट्रो स्टेशन की तरफ मुड़ गया।

ऐसी घटना आम है और इसके किरदार भी अज़नबी नहीं  हैं. लेकिन, जिस दौर में यह घटना घट रही है, वह महत्वपूर्ण है. कोई भी घटना शून्य में नहीं घटती है. उसके ठोस भौतिक आधार होते हैं।  ये आधार जन मानस या मनोविज्ञान को गढ़ते हैं. उदाहरण के लिए,चालक के वाक्य का  जन्म हवा में नहीं हुआ है. इसका सीधा संबंध खरबों रु. के चुनावीं  बांड  के महाशैतानी घोटालों से हैं।  यदि घोटाला की घटना नहीं होती तो चालक के ज़ेहन में चुनावी बांड और सज़ा की बात नहीं उठती।  और न ही तंज कसने का मौक़ा मिलता. चूंकि, इसका सीधा संबंध देश की  राजनीति के कर्णधारों से है , इसलिए इससे  जनमानस  प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता. शिखर से ही पानी नीचे की ओर बहता है।  शिखर नेता -मंडली का आचार-विचार-व्यवहार जनमानस की संरचना में काफी हद तक निर्णायक भूमिका निभाता है. इस भूमिका का प्रभाव प्रजा मानसिकता से ग्रस्त समाजों में अधिक दिखाई देता है; राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जैसे पदों पर आसीन व्यक्ति ‘रोल मॉडल’के रूप में देखे जाते हैं. इन व्यक्तियों के कथनों को गंभीरता से लिया जाता है. इस समय के रोल मॉडल प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी हैं.  मोदी जी के मुखारविंद से निकले किसी भी कथन को अकाट्य माना  जाता है. परम्परागत शब्दों में ‘ब्रह्मवाक्य ‘ के रूप में लिया जाता है.पिछली सदी में  हिटलर और मुसोलिनी के लिए भी ऐसी ही अगाध श्रद्धा थी. जब कोई नेता इस अवस्था को प्राप्त  कर लेता है  तब वह स्वेच्छानुसार ‘सत्य को असत्य, असत्य को सत्य’ में रूपांतरित कर देता है. मिसाल के तौर पर, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ और ‘मोदी की गारंटी’ जैसे अहंकारी भाव से लिप्त शब्द हिंदी भारत में ‘ब्रह्मवाक्य’ से कम हैसीयत नहीं रखते हैं. जनता इन वाक्यों  के प्रभाव-परिणाम के  प्रति विवेचनात्मक दृष्टि नहीं अपनाना चाहती है. जनता इसकी भी पड़ताल नहीं करना चाहती है कि विगत में किये गए मोदी-वायदों का क्या हुआ?; 1. क्या कालाधन वापस आया और प्रत्येक के अकाउंट में 15 लाख जमा हुए हैं?;2.  क्या प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का सृजन हुआ है ?;3.  क्या किसानों की आय दुगनी हुई है?;4.  क्या पेट्रोल व गैस सिलेण्डर के दाम घाटे?;5. क्या बैंकों के हज़ारों करोड़ रु. लेकर भागनेवालों को पकड़ कर वापस देश लाया जा सका; 6. कितने आर्धिक अपराधियों को ज़ैल भेजा गया है?; 7.  कितने पंडित परिवारों को वापस श्रीनगर घाटी में बसाया गया है ?; 8. वायदा करने के बावजूद किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य क़ानून क्यों नहीं बना?; 9. अमीर और अमीर,  ग़रीब और ग़रीब क्यों हो रहे हैं ?; 10. क्यों 81 करोड़ भारतियों को खैरात पर ज़िंदा रखने के लिए मोदी सरकारी को मज़बूर होना पड़ा है ?; 11. क्यों शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार नहीं हुआ है और  इन्हें निजीपूंजी खिलाड़ियों के हाथों में सौंपा जा रहा है ?; 12.  क्यों  निजीकरण और विनिवेशीकरण को जंगली रफ़्तार से बढ़ाया जा रहा है ?; 13.  किसलिए  विज्ञापनों से नगरों -महानगरों -मेट्रों को पाटा जा रहा है?; 14. अब भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं, क्यों?. ऐसे ही हज़ार सवाल हैं. लेकिन, मोदी-जुमलेबाज़ी व फेंकूबाज़ी -बड़बोलेपन ने हिंदी पट्टी में  जन मानस को गहनता-सघनता से अनुकूलित कर रखा है.शासक दल के इस अभियान में  शिखर सत्ता से संरक्षित मुख्यधारा के मीडिया ने निर्णायक भूमिका निभाई है. प्रसिद्ध मीडिया दार्शनिक मार्शल मैकलुहान  का मानना है कि कॉर्पोरेट द्वारा संचालित-नियंत्रित मीडिया का पहला काम जनता की चिंतन इन्द्रियों पर कब्ज़ा करना रहता है. मैकलुहान कहते हैं कि यदि आपने  एक दफ़ा   निजी लोगों के हथकंडों के हवाले स्वयं को कर दिया तब आपका नर्वस सिस्टम यानि आँख-कान पर उनका कब्ज़ा हो जायेगा. वे व्यापारिक फायदा उठाएंगे।  आपके नर्वस सिस्टम पर उनका एकाधिकार हो जायेगा. आप एक दास की  भांति काम करने लगेंगे ( पु. अंडरस्टैंडिंग मीडिया )

देश में आज यही हो रहा है. सत्ताधीशों, विशेषतः प्रधानमंत्री मोदी,  के इर्द-गिर्द दैव्य शक्ति का मिथ गढ़ दिया गया है.उन्हें ‘अवतार’के रूप में मंडित करने के प्रयास किये जाते हैं.  मोदी और उनकी मंडली कैसे भी  कर्म करें, वे सवालों के कठघरे से बाहर ही रहेंगे. जनता प्रधामंत्री, रक्षा मंत्री और गृहमंत्री से  यह कभी नहीं जानना  चाहेगी कि पुलवामा त्रासदी के असली सूत्रधार कौन हैं? आज तक  जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मालिक द्वारा उठाये गए सवाल और आशंकाओं का समाधान नहीं हुआ है। इस मुद्दे पर  प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय ने ख़ामोशी धारण कर रखी है. आख़िर क्यों ?  जनता यह भी नहीं पूछ रही है कि मोदी जी चीन का नाम लेने से क्यों संकोच करते हैं ? क्या चीन ने हमारी भूमि दबा रखी है? क्यों आज़ लद्दाख की जनता इस मुद्दे पर आंदोलित है ? क्यों लद्दाखियों के मनों में अनेक शंकाएं हैं? शंकाओं के  निराकरण के लिए क्या किया जा रहा है ?  बेशक़, प्रधानमंत्री की भाषण कला बेजोड़ है।  लेकिन, भाषण की अदायगी में दंभ की अंतर्धारा बहती रहती है. उनका लहजा जनता को  उपकृत करनेवाला प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि भारत का जन्म और अंत मोदी -अस्तित्व से जुड़ा हुआ है. ‘मोदी नहीं तो भारत नहीं’, जनता के मानस को इस सांचे में ढालने की कोशिशें चल रही हैं. इसकी परिणति ‘निर्वाचित अधिनायकवाद’ में ही होती है. अब गोदी मीडिया के पंखों पर सवार होकर अधिनायकवाद आया है.

वास्तव में, मीडिया द्वारा देश की जनता को  इतना अनुकूलित किया जा चुका  है कि वह यह भी नहीं सोचना चाहती है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि  धड़ल्ले से दल-बदल क्यों और किसके लिए कर रहे हैं ? क्या विपक्ष के दागी नेता भाजपा में शामिल होते ही  ‘राजा हरिश्चंद्र ‘ बन जाते हैं? ईडी +सीबीई +आयकर विभाग जैसी संस्थाएं सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर छापा क्यों नहीं मारती हैं ? क्या सत्ता पक्ष के सभी नेता निर्विवादरूप से ‘पवित्र’ हैं? क्यों विपक्ष की सरकारों का पतन होता है? क्या इस क्रीड़ा के पीछे पूंजी का तो हाथ नहीं है ? जनता यह भी सोचना नहीं चाहती है कि दल-बदल से जहां लोकतंत्र कमज़ोर होता है, वहीं  जनता की पॉकेट भी लुटती है. वज़ह साफ़ है, चुनाव और उपचुनाव में जनता का पैसा ही लगता है.क्यों सरकारी एजेंसियों पर  विपक्षी नेताओं -मंत्रियों को  भाजपा में शामिल होने के लिए दबाव डालने के लिए आरोप लगाए जा रहे हैं? क्यों गिरफ्तारी का आतंक पैदा किया जा रहा है?आज़ ही दिल्ली के सत्तारूढ़  आप पार्टी के नेताओं ने  आरोप जड़े हैं ?शिक्षा मंत्री  आतिशी सहित अन्य नेताओं ने अपनी गिरफ़्तारी की  आशंकाएं व्यक्त  की हैं. दिल्ली की जनता ने आप पार्टी को बहुमत दिलाया है. मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सहित चार मंत्री तिहाड़ में हैं. सांसद संजय सिंह भी जेल में हैं. एक प्रकार से पूरी सरकार को ही ‘अपंग’ बनाने की साजिशें  जारी हैं. क्या जनता को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा से सवाल नहीं करना चाहिए. क्या प्रधानमंत्री मोदी से नहीं पूछा जाना चाहिए ? पिछले दस सालों में  प्रधानमन्त्री  पद पर आसीन होते हुए भी मोदी जी एक भी प्रेस कांफ्रेंस को सम्बोधित करने का  आत्मविश्वास नहीं जुटा पाये! क्या जनता को पूछना नहीं चाहिए? जब सड़क पर होते हुए भी  राहुल गांधी प्रेस को सम्बोधित कर सकते हैं, तब लाड़ले मोदी जी क्यों नहीं कर सकते ?    क्या जनता दलबदलुओं  और पलटूरामों का  सामाजिक  बहिष्कार नहीं कर सकती है ? लेकिन करेगी नहीं. उसकी चेतना का हरण हो गया है. उसकी मानसिक संरचना को मोदी-मूल्य सांचे में ढाल दिया गया है; सवाल मत करो,सिर्फ़ पालन करो; अच्छे -बुरे -सही या ग़लत का मुद्दा न उठाओ, सिर्फ येन-केन -प्रकारेण काम निकालो; पूंजी के रंग -रूप पर मत जाओ, उसके परिणाम पर जाओ और कॉर्पोरेट घरानों के प्रति आंखें मूंदे रहो; ग्राहक और उपभोक्ता की भूमिका से संतुष्ट  रहो. संक्षेप में, देश में सवाल और विपक्ष मुक्त सामाजिक  + राजनैतिक संस्कृति प्रसारित की जा रही है. उदारवादी लोकतंत्र और संविधान का अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है।