पिछड़ों के आइने में भविष्य तलाशती राजनीतिक पार्टियां

August 31, 2024 | By Maati Maajra
पिछड़ों के आइने में भविष्य तलाशती राजनीतिक पार्टियां

बिहार में जाति-आधारित सर्वेक्षण (2022) ने राज्य की राजनीतिक और सत्ता तेबर बदल दिए हैं। विधानसभा चुनाव जैसे जैसे क़रीब आ रहा है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तमाम जातियां राज्य के दो प्रमुख गठबंधनों के ईर्द गिर्द तेजी से गोलबंद हो रही हैं। नीतीश कुमार की जदयू के साथ नरेंद्र मोदी नीत राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को एक दूसरे के साथ गठजोड़ इस बात का संदेश है कि राज्य की 63 फीसदी पिछड़ों की आबादी पर एनडीए की नजर है। जाति सर्वेक्षण का डेटा जारी करने वाला बिहार पहला राज्य बन गया है।

राहुल गांधी ने जाति-आधारित सर्वेक्षण को इसे देश भर में कराये जाने का भरोसा देकर पिछड़ों का हितैसी होने का भरोसा दिया है। हालांकि सरकार ने अभी तक सर्वेक्षण में शामिल लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी जारी नहीं की है।

बिहार की राजनीति मे पिछड़ा और अति पिछड़ी जाति के मतदाता आगामी चुनाव में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। राज्य में चुनावों के दौरान अति पिछड़ा वर्ग की भूमिका इस लिहाज से भी ख़ास हो जाती है क्योंकि उनकी आबादी सबसे ज्यादा है। वे राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में हैं। लोक सभा चुनाव की तरह विधान सभा के होने वाले चुनाव में भी इसका असर देखने को मिल सकता है। भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश सरकार के इस फैसले का सुप्रीम कोर्ट में यह कह कर जोरदार विरोध किया कि जातिगत जनगणना कराने का अधिकार राज्य का नहीं है। इसका असर देख भगवा पार्टी के सुर बदल गए हैं।

अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) मिलकर बिहार की 13 करोड़ की आबादी का लगभग 63% हिस्सा बनाते हैं, जिससे वे राज्य में सबसे बड़ा जाति समूह बन जाते हैं। यह वह जाति समूह हैं जो बीते तीन दशक से भी अधिक समय से पीछड़ों के आईने में अपना भविष्य देखता रहा है। लेकिन जिस बड़े पैमाने पर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी को जन समर्थन मिलता दिख रहा है उससे यह आभाष मिलता है कि विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी दोनों गठबंधनों के लिए चुनौती पैदा कर सकती है।

जाति आधारित जनगणना ने कांग्रेस पार्टी भी आकर्षित है । जनगणना के आंकड़े जारी होने के बाद लोक सभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने सोशल प्लेटफार्म एक्स पर लिखा है, “बिहार की जातिगत जनगणना से पता चला है कि वहां ओबीसी + एससी + एसटी 84% हैं। केंद्र सरकार के 90 सचिवों में सिर्फ़ 3 ओबीसी हैं, जो भारत का मात्र 5% बजट संभालते हैं। इसलिए, भारत के जातिगत आंकड़े जानना ज़रूरी है। जितनी आबादी, उतना हक़ ये हमारा प्रण है।“

जातीय उभार का असर हाल में संपन्न हुए लोक सभा चुनाव में देखा गया। भाजपा नीत एनडीए के साथ गठजोड़ कर चुनाव लड़ने का लाभ एनडीए के साथ नीतीश कुमार की जनता दल (युनाईटेड) को भी मिला। इस गठजोड़ ने राज्य की 40 में से 30 सीटें जीत कर राज्य की राजनीति में पिछड़ों का असर दखा दिया है। जातीय उभार ने राजनीति के समीकरण बदल दिए हैं।

सर्वेक्षण ने आरक्षण नीतियों और कल्याण कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण बदलावों के लिए मंच तैयार तो कर दिया है लेकिन इससे राज्य के विकास और लोगों की बेहतरी में सुधार की जरुरतों से ज्यादा पीछड़ों की राजनीति की बदौलत बीते 33 सालों से 13 करोड़ की आबादी पर राज कर रहे राजद व जदयू खासे उत्साहित हैं। इंडिया गठबंधन के खुल कर समर्थन करने से भाजपा बचाव की स्थिति में आ गई है। भाजपा, जिसने हाल-हाल तक यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट तक में इस सर्वेक्षण मुखर विरोध किया था उसने सर्वेक्षण के बाद अपना तेबर नरम कर लिया है।

इस साल के चौंकाने वाले चुनाव नतीजों के बाद भाजपा भी पिछड़े वर्गों को लुभाने की दौड़ में शामिल हो गई है। हरियाणा में इस साल के अंत में होने वाले चुनावों के मद्देनजर भाजपा ने ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर की सीमा 6 लाख रुपये से बढ़ाकर 8 लाख रुपये कर दी है, जिसमें वेतन और कृषि से होने वाली आय को भी शामिल नहीं किया गया है। जाहिर है भाजपा को उत्तर प्रदेश में जाति के आधार पर हिंदू वोट बैंक के बंटवारे के परिणाम भुगतने पड़े, जिससे 2024 के लोकसभा चुनावों में उसकी सीटें 62 से घटकर 33 रह गईं। भाजपा अब जाति जनगणना के पक्ष में दलीलें दे रही है।

केंद्र में तैनात बिहार काडर के एक सीनियर आईएएस अधिकार ने कहा देश के मानचित्र पर बिहार एक ऐसा राज्य है जहां के राजनेता और अफसर सपने में भी पात्र के रुप में अपनी जाति का सपना देखते हैं। वह कहते हैं-जाति व्यवस्था का पारंपरिक रूप से लोगों की सत्ता तक पहुँच पर महत्वपूर्ण प्रभाव रहा है।
लेकिन नीतीश कुमार को तब झेप का सामना करना पड़ा जब बिहार के लिए विशेष दर्जे की मांग को केंद्र ने महत्व नहीं दिया। यह जनता दल (यूनाइटेड) का एक पुराना मुद्दा है। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पेश बजट में इसे पूरी तरह से दरकिनार कर दिया। एनडीए के गठबंधन सहयोगी नीतीश कुमार की राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना को भी बजट में जगह नहीं मिली। बिहार को एक्सप्रेसवे, आर्थिक गलियारे और बिजली संयंत्रों के लिए 2,600 करोड़ रुपये का पैकेज देकर नरेंद्र मोदी की सरकार ने नीतीश का मुंह बंद कर दिय है। नीतीश इससे खुश दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन क्या सच में वह खुश हैं..?
राज्य की राजनीति में गिरते अपने ग्राफ से आशंकित नीतीश की सरकार ने जून, 2022 में राज्य में खुद ही जाति सर्वेक्षण कराने के लिए अधिसूचना जारी कर अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने की रणनीतिक कोशिश की है। आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद ने कहा “जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उतनी हिस्सेदारी।” राजनीतिक विश्लेषक नवल किशोर चौधरी ने पटना में कहा, जातिगत सर्वेक्षण रिपोर्ट देश और राज्य में आगामी चुनावों में “हिंदुत्ववादी ताकतों” को कमजोर करेगी। कोई भी पार्टी अब इसे नजरअंदाज नहीं कर सकती है।” सोशल साइंटिस्ट सुनील सिन्हा का आंकलन है कि इससे राज्य में मंडल बनाम कमंडल (पिछड़ा बनाम अगड़ा) की राजनीति फिर से शुरू हो सकती है।

उच्च जाति और हिंदुत्व समूह भी जाति आधारित जनगणना के अपने राजनीतिक गठबंधनों और एजेंडों पर संभावित प्रभाव को लेकर चिंतित हैं। जाति आधारित जनगणना विभिन्न जाति समूहों के बीच अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और असमानताओं को उजागर करके इस आख्यान को बाधित कर सकती है, जिससे एक समरूप हिंदू वोट बैंक की धारणा खत्म हो सकती है।

इसके अलावा, उच्च जाति और हिंदुत्व समूहों को डर है कि जाति आधारित जनगणना ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को आवाज़ देकर राजनीतिक गतिशीलता को फिर से स्थापित कर सकती है। इस समूह का विरोध सामाजिक-आर्थिक विशेषाधिकार खोने, अपने ऐतिहासिक लाभों को खत्म करने और अपने राजनीतिक गठबंधनों और एजेंडों के संभावित विघटन के डर से उपजा है।

हिंदुत्व और उच्च जाति समूहों को डर है कि यह जनगणना उनकी ‘हिंदू एकता’ की परियोजना को कमजोर कर सकती है । सटीक डेटा संभावित रूप से एक सर्वव्यापी हिंदू पहचान की कथा को चुनौती दे सकता है। सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक संजय कुमार कहते हैं -देश की ज़्यादातर क्षेत्रीय पार्टियाँ जातिगत जनगणना के समर्थन में है, ऐसा इसलिए क्योंकि उनका जनाधार ही ओबीसी पर आधारित है।

बिहार में राजनीति पर जातिगत समीकरणों का दबदबा कुछ इस कदर रहा है कि पिछले सात दशक से विकास के पैमाने पर यह प्रदेश लगातार पिछड़ते चला गया है. उसके बावजूद राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। पिछले 33 साल से बिहार में लालू परिवार या नीतीश राज ही रहा है।

बिहार में बेरोजगारी दर 18.8% तक पहुंच गया है. जम्मू-कश्मीर और राजस्थान के बाद उच्चतम बेरोजगारी दर के मामले में बिहार तीसरे नंबर पर है। प्रदेश में उद्योग न के बराबर है। प्रदेश के जीडीपी में 30 से 35% हिस्सा अभी भी बिहार से बाहर काम करने वाले लोगों की ओर से भेजी हुई राशि का है। क़रीब 12 साल बीजेपी भी बिहार में नीतीश सरकार में शामिल रही है। इसलिए बीजेपी भी बिहार की बदहाली से जुड़े सवालों से भाग नहीं सकती है।

भाजपा ने हमेशा ‘ समरसता ‘ या सामंजस्यपूर्ण स्थिरता का आह्वान किया है, न कि ‘ सामाजिक न्याय ‘ या सामाजिक न्याय का, ओबीसी और दलितों के लिए इसका प्रयास समायोजन का रहा है, लेकिन हिंदुत्व के ढांचे के भीतर। संख्या और सत्ता में उनकी हिस्सेदारी के बीच इतना बड़ा अंतर ‘समायोजन’ को चुनौती देता है। न्याय की मांग को दबा पाना मुश्किल हो जाता है।

इस साल भाजपा ने सबसे आगे रहकर मुसलमानों के लिए आरक्षण खत्म करने की मांग की, इसे ‘मुस्लिम बनाम बाकी सब’ बनाकर सांप्रदायिक विभाजन को हवा देने की कोशिश की और मुस्लिम पिछड़ों के लिए आरक्षण खत्म करने की जरूरत को सही ठहराने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कड़े सवाल पूछे, जिसके कारण कर्नाटक की पूर्व बसवराज बोम्मई सरकार को अपनी नीति पर रोक लगानी पड़ी।990 के दशक में मंडल आयोग की यादें (जिसने रोजगार में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की थी) और कैसे इसने कमंडल (हिंदूकरण का आह्वान) को पीछे धकेल दिया, जिससे भाजपा को अपनी रणनीति पर फिर से काम करना पड़ा।

कांग्रेस ने भी पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना को लेकर कैंपेन शुरू किया है. लगातार केंद्र सरकार से जातीय जनगणना कराने की मांग कर रही है. कर्नाटक चुनाव के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी एक नारा दे दिया- “जितनी आबादी उतना हक.” इस नारे के साथ राहुल गांधी ने कहा अगर हम ओबीसी को ताकत देना चाहते हैं तो पहले ये समझना होगा कि देश में ओबीसी कितने हैं।
2021 में संसद के भीतर मौजूदा सरकार से जातीय जनगणना पर सवाल पूछा गया था. सवाल था कि 2021 की जनगणना जातियों के हिसाब से होगी या नहीं? नहीं होगी तो क्यों नहीं होगी. सरकार का लिखित जवाब आया कि सिर्फ एससी, एसटी को ही गिना जाएगा। यानी ओबीसी जातियों को गिनने का कोई प्लान नहीं है। मतलब साफ है केंद्र की सत्ता में जो भी पार्टी होती है, वो जातीय जनगणना से परहेज करती है। लेकिन विपक्ष में जब ये पार्टियां होती हैं तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती हैं।

कांग्रेस की भी कुछ इसी तरह की सोच रही है। मार्च 2011 में उस वक्त के गृह मंत्री पी चिदंबरम ने लोकसभा में कहा था कि “जनगणना में जाति का प्रावधान लाने से ये प्रक्रिया जटिल हो सकती है। और जो लोग जनगणना का काम करते हैं –ख़ासतौर पर प्राइमरी स्कूल शिक्षक –उनके पास इस तरह के जातिगत जनगणना कराने का अनुभव या ट्रेनिंग भी नहीं है।”