महाड़ के ‘चवदार तालाब’ आन्दोलन का महत्त्व इसलिये भी अधिक है, क्योंकि भारत के इतिहास में दलितों ने पहली बार किसी दलित समाज के नेतृत्व में जन संघर्ष और सत्याग्रह के द्वारा अपने अधिकारों को प्राप्त किया था….
Mahad Satyagraha or Chavdar Tale Satyagraha:
सामाजिक क्रांति के इतिहास में खासकर बहुजनों-दलितों के लिए डॉक्टर बाबा साहेब आम्बेडकर ने जो किया, उसे सदियों तक भुलाना नामुमकिन है। आज शायद बहुत से लोग यह बात जानते भी नहीं होंगे कि बाबा साहेब के कारण ही अछूतों को पानी पीने तक का अधिकार मिल पाया था। जी हां, पहले दलितों को पानी पीने तक का अधिकार नहीं था। आज 20 मार्च यानी चावदार तालाब क्रांति दिवस है, जिस दिन घोषित तौर पर बाबा साहेब के अतुलनीय योगदान के कारण दलितों को पानी पीने का अधिकार मिला था।
वर्ष 1927 में महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ ज़िले के महाड़ स्थान पर चावदार आंदोलन अछूतों-दलितों को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया था, जिसके अगुवा बाबा साहेब अंबेडकर थे। उस वक़्त हिंदुओं के धर्म स्थानों, कुओं और तालाब पर कुत्ता-बिल्ली, गाय-भैंस और गधे जैसे जानवर पानी पी सकते थे-नहा सकते थे, उसी तालाब से अछूतों को पानी पीने की सख्त मनाही थी, भले ही वह प्यासा ही मर जाये।
विलायत से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उच्च डिग्री प्राप्त करने के बाद बाबा साहब अंम्बेडकर 1917 में भारत आये थे। अपने करार के अनुसार कुछ समय उन्होने बड़ौदा रियासत में अर्थमंत्री के रूप में कार्य किया, लेकिन वे यहां अधिक समय तक नहीं रहे, वहां नहीं टिकने का कारण था कि दरबार के कार्कुन अछूत समझकर उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया करते। उच्च शिक्षित और इतना ऊंचा पद मिलने के बावजूद अंबेडकर को घोर अपमान सहना पड़ा था।
बाबा साहेब कहते थे, “दलित समाज की मुक्ति के बिना हमारी स्वतंत्रता अधूरी है।” दलित समाज की मुक्ति के लिये बाबा साहब आम्बेडकर ने जन संघर्ष और सामूहिक आंदोलन के मार्ग को चुना था। वे जानते थे कि संघर्ष द्वारा एक तरफ उन्हें अपने अधिकार तो प्राप्त होंगे ही साथ ही सदियों से पीड़ित दलित तबके के भीतर आत्मसम्मान की भावना भी जागृत होगी।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र के कई स्थानों पर दलितों को सार्वजनिक तालाब या कुएँ से पानी लेने की अनुमति नहीं थी। यदि कोई दलित व्यक्ति सार्वजनिक तालाब से पानी लेने की हिम्मत दिखाता तो पूरे समाज को इसके परिणाम भुगतने पड़ते। कितनी अजीब बात है जल, ज़मीन और वन जैसी प्राकृतिक संपदा जिस पर प्रत्येक प्राणी का अधिकार है, लेकिन दलितों को अछूत कह कर उनका बहिष्कार किया जाता था। बाबा साहेब चूंकि स्वयं दलित समुदाय से थे, इसलिए भारतीय समाज की सनातनी व्यवस्था से भलीभांति परिचित थे। अंग्रेजों के शासन में भी भारतीय समाजिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया था। सार्वजनिक जीवन में उन्हें बहिष्कृत जीवन ही जीना पड़ता।
दलितों को पानी पीने जैसे अधिकार से भी वंचित देखकर वे बड़े आहत हुए। अपने भविष्य को लेकर बाबा साहब आंबेडकर के सामने दो मार्ग थे। एक तो अपनी शिक्षा को आधार बनाकर धन दौलत कमाते या फिर असहाय दलितों की आवाज़ बनकर उनकी की मुक्ति के लिए संघर्ष करते। बाबा साहब ने संघर्ष की राह चुनी। इसी के साथ सन 1924 को मुंबई में उन्होंने दलित उद्धार के लिए ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ नामी एक संस्था बनाई। इस सभा में अस्पृश्य सदस्यों के साथ-साथ ऊंची जाति के भी सदस्य जुड़े थे। कई स्थानों पर इस संस्था के अंतर्गत सभाओं का आयोजन भी किया गया।
चवदार तालाब आंदोलन सार्वजनिक तालाब और कुओं को लेकर उन दिनों मुंबई प्रसिडेन्सी की ओर से एक सरकारी अध्यादेश पारित हुआ था कि सार्वजनिक जल स्रोतों पर सभी नागरिकों का अधिकार होगा। इसी अध्यादेश को आधार बनाकर महाड़ के नगराध्यक्ष सुरेन्द्रनाथ टिपणीस ने 1924 में चवदार तालाब को भी सार्वजनिक संपत्ति घोषित किया, यानी अब तालाब से सबको पानी लेने का अधिकार प्राप्त था। इसके बावजूद सवर्ण जातियों की ओर से अघोषित तौर पर दलितों का सामाजिक बहिष्कार जारी था। ‘चौदार तालाब’ से दलितों को पानी लेने नहीं दिया जाता था। अगर कोई साहस दिखाता भी तो उसे कठोर यातनाएं सहनी पड़ती। दलित महिलाओं को मीलों दूर पानी के लिए जाना पड़ता।
महाड़ आने का निमंत्रण
नगर अध्यक्ष सुरेन्द्र नाथ टिपणीस ने बाबा साहब को महाड़ आने का निमंत्रण दिया ताकि उनके हाथों इस तालाब को आम लोगों को समर्पित किया जाए। बाबा साहब ने यह निमंत्रण स्वीकार किया। बाबा साहब दो महीने पहले ही जनवरी 1924 को इस क्षेत्र में पहुंच गए। उनके यहाँ पहुंचते ही स्थानीय दलितों में उत्साह और जोश था। बाबा साहब माहाड़ की इस भूमि से भलीभांति परिचित थे। महार जाति के बहुत से लोग ब्रिटिश सेना से जुड़े थे। सेना से मुक्त होने के बाद वे यहां बड़ी संख्या में आबाद थे। बाबा साहब को सत्याग्रह के लिये ऐसे ही अनुशासित लोगों की ज़रूरत थी। अंबेडकर घूम-घूमकर स्थानीय लोगों से संवाद स्थापित किया उनकी समस्याओं को समझा।
उनके साथ स्थानीय दलित नेता आर. बी. मोरे का सहयोग बाबा साहब को मिलता रहा। गांव गांव घूमकर वे लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करते जाते । लोगों के मन पर बाबा साहब की बातों का गहरा प्रभाव होने लगा। धीरे धीरे हज़ारों की संख्या में लोग चौदार तालाब आंदोलन से जुड़ने लगे। बाबा साहब का कहना था कि “जिस तालाब से ऊंची जाति के लोग पानी पी सकते हैं, यहां तक कि पशु के पानी पीने पर भी किसी को एतेराज नहीं ऐसी सूरत में भला दलितों को इस अधिकार से कैसे दूर रखा जा सकता है? प्राकृतिक संसाधनों पर प्रत्येक मनुष्य का एक जैसा अधिकार है।” चाहे वो फिर किसी भी जाति धर्म क्यों न हो।
महाड़ आन्दोलन को सभी वर्गों का मिला था समर्थन
एक तरफ जहां स्थानीय स्तर पर घोर सनातनी हिन्दू दलितों को सार्वजनिक स्थानों पर बेरोकटोक पानी पीने का अधिकार दिये जाने का विरोध कर रहे थे, वहीं दलितों के साथ साथ समाज के एक बड़े वर्ग का इस आन्दोलन को समर्थन भी प्राप्त था। काज़ी हुसैन ने आगे बढकर अपनी ज़मीन आन्दोलन कारियों को ठहरने के लिये उपलब्ध कारवाई। वहीं दूसरी तरफ डॉ. सुरेंद्रनाथ टिपनिस, गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे और अनंत विनायक चित्रे, कायस्थ प्रभु जैसे सवर्ण समाज के लोग भी डॉक्टर आम्बेडकर की सहायता के लिये आगे आये।
महाड़ सत्याग्रह की शुरुआत 20 मार्च 1927 को हुई थी, जोकि आज इतिहास में दर्ज हो चुका है। ये वो ऐतिहासिक दिन है जब बाबा साहब आम्बेडकर ने हज़ारों दलितों को साथ लेकर सत्याग्रह किया। इस आंदोलन का पूरा स्वरूप अहिंसात्मक था। पहले से तय समय पर इस दिन बाबा साहेब अंबेडकर चौदार तालाब पर पहुंचे अपनी अंजुली से इस तालाब का ज़ायकेदार जल ग्रहण किया। चौदार का मतलब होता है स्वादिष्ट। इस तरह बाबा साहब के साथ सैकड़ों दलित समाज ने भी सैकड़ों वर्षों की गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर तालाब का चौदार यानी मीठा जल ग्रहण किया।
महाड़ के ‘चवदार तालाब’ आन्दोलन का महत्त्व इसलिये भी अधिक है, क्योंकि भारत के इतिहास में दलितों ने पहली बार किसी दलित समाज के नेतृत्व में जन संघर्ष और सत्याग्रह के द्वारा अपने अधिकारों को प्राप्त किया था। बाबा साहब द्वारा किया गया यह सत्याग्रह केवल पानी के अधिकार तक ही सीमित नहीं था। उनका कहना था कि “प्रत्येक मनुष्य को ज़मीन, जंगल, पर्वत पेड़ सूर्य और आकाश पर बराबर का हक हासिल है। यह कभी किसी की निजी मिल्कियत नहीं हो सकती।”
महाड़, ‘चवदार तालाब’ के आंदोलन का महत्त्व इसलिये भी है क्योंकि इस आंदोलन के बाद ही दलित समाज के भीतर नवचेतना का विकास हुआ। या यूं कह सकते हैं कि चौदार तालाब के आंदोलन के बाद ही दलित प्रश्न भारतीय राजनीति के केंद्र में आने लगे। आज भी हर वर्ष 20 मार्च को माहाड़ के ‘चौदार तालाब’ के दर्शन के लिये पूरे देश से हज़ारों की संख्या में दलित समाज के लोग गाते-बजाते हाथों में परचम लिये ‘जय भीम’के नारों के साथ वहां पहुंचते हैं।