“मीडिया महज नफरती संस्कृति का सौदा करने छोड़ दें तो लोग चुनाव कोलोकतंत्र का पर्व जैसा मानने लगेंगे।“
महात्मा गांधी अपने अखबार यंग इंडिया में लिखते हैं कि .. हमें वातावरण को नफरत मुक्त करना और हमें ऐसे अखबारों का वहिष्कार करना है जो कि नफरत फैलाते हैं और चीजों को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं..।
भारत में मीडिया कंपनियों के टीवी चैनलों द्वारा खुद से बनाई गई संस्था एनबीडीएसए ने 28 फरवरी 2024 को एक साथ तीन चैनलों के खिलाफ सात आदेश पारित किए हैं जिसमे यह कहा गया है कि इन चैनलों ने खबरों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया और वे धर्म के आधार पर नफरत फैलाने के लिए दोषी है। यह संस्था नफरत फैलाने वाली खबरों के आरोप को सही पाकर हद से हद इनके खिलाफ जूर्माना कर सकती है। जबकि समाज में नफरत फैलाने की कोशिश के आरोप में मुकदमे और सजा का प्रावधान है। जूर्माना लगने के बावजूद क्या मीडिया कंपनियों के टीवी चैनल नफरत फैलाने से बाज आ सकते हैं और खास तौर से तब 2024 में लोकसभा का चुनाव की तैयारी चल रही है। खुद एनबीडीएसए ने यह माना है कि चैनलों द्वारा नफरत फैलाने की घटनाएं बढ़ती जा रही है। यह बात एनबीडीएसए ने 11 नवंबर 2022 को नफरती भाषण के विरुद्ध सावधान करते हुए अपने सदस्य चैनलों से कहा कि मीडिया का काम” लोगों को देश और समाज में जो कुछ घटित हो रहा है उसकी सही सही जानकारी देना है और लोगों को जागरुक करना है। एनबीडीएसए आगे लिखता है कि यह देखा जा रहा है कि चैनलो में धर्म, जाति ,लिंग के आधार पर नफरती भाषा का इस्तेमाल बढ़ा है।
एनबीडीएसए के बारे में
हिन्दी में इस संस्था को इस रुप में समझ सकते हैं कि यह टीवी चैनलों व डिडीटल चैनलों के द्वारा खुद की बनाई संस्था है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. के सिकरी है और दूसरे महत्वपूर्ण पदों से सेवानिवृत अधिकारी है। स्वतंत्रता के बाद जाति और धर्म के आधार पर नफरत फैलाना कानूनन अपराध की श्रेणी में आता है। इसके खिलाफ थाने में शिकायत की जाती है। न्यायालय में सुनवाई होती है। नफरत वाले भाषणों के आरोप में कई लोगों को सजा सुनाई गई है।लेकिन मीडिया कंपनियां इस तरह के अपराधों से मुक्त मानी जाती है। मीडिया कंपनियों के चैनल अपने खिलाफ पुलिसिया कारर्वाई को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मानते है। मीडिया कंपनियां खुद के लिए आचार संहिता बनाने और उसका पालन करने के लिए भरोसा देती है। लेकिन मीडिया कंपनियों के खुद की आचार संहिता है कि वे किस तरह से लोगों को खबरें देंगी। वे अपनी कसौटी पर खरी उतर रही या नहीं इसकी निगरानी करने के लिए मीडिया कंपनियों ने ही संस्था बनाई है जिसे एनडीएवीएस कहा जाता है।
नफरत के खिलाफ आदेश
28 फरवरी को जिन चैनलों के खिलाफ इस संस्था ने आदेश दिए हैं, वे टीवी टूडे ग्रुप का आज तक , अंबानी की कंपनी न्यूज 18 इंडिया और द टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप से जुड़ा टाइम्स नाऊ नवभारत है। न्यूज 18 इंडिया ने “लव जेहाद बहाना, एक मज़हब निशाना? जैस चार हेडलाइन्स के साथ 16 नवंबर 2022 से 21 नंवबर 2022 तक कार्यक्रम चलाए। नवभारत ने इसे लव तो बहाना है… हिन्दू बेटियां निशानाहै। यह श्रद्धा हत्या कांड को लेकर कार्यक्रम थे जिसमे एक उस युवक पर हत्या का आरोप था जिसका नाम आफताब है। आजा तक ने 30 मार्च 2023 को नालंदा में मुस्लिम समाज को निशाने पर रखा। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के सीएनएन के साथ बातचीत के दौरान भारत के बारे में यह कहना चैनलों को उत्तेजित कर दिया कि भारत में धार्मिक समुदायों के हितों को संरक्षण देने से चूकता है तो उसके उल्टे नतीजे देखने को मिल सकते हैं।
इन सात आदेशों में एनडीएवीएस ने जो कहा है वह दरअसल मीडिया कंपनियों के चैनलों में आम बात हैं। दरअसल आदेश उन्हीं कार्यक्रमों को लेकर आते हैं जिनके विरुद्ध शिकायतें दर्ज की जाती है। लेकिन जहां नफरती भाषा संस्कृति के रुप स्वीकार कर ली गई है, उस स्थिति में शिकायत बेमानी हो जाती है। शिकायत तो अपवाद जैसी स्थिति में सतर्कता बरतने के लिए की जाती है।
राजनीति और मीडिया का गठबंधन
हिन्दी और भोजपुरी के कवि गोरख पांडे ने अपनी एक कविता में यह लिखा है कि साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं तो इसका मतलब है कि जितनी खून की बारिश होगी उतनी ही वोटो की भी बारिश होगी। वे राजनीति और साम्प्रदायिक दंगों के रिश्तों की पड़ताल करते हैं। लेकिन साम्प्रदायिक दंगे से पहले साम्प्रदायिक नफरत और तनाव की एक स्थिति तैयार की जाती है और वे लगातार बनी रहती है तो साम्प्रदायिक दंगे की जमीन पर अगुवाई करने वाली राजनीतिक- सामाजिक शक्तियां कामयाब हो जाती है।
साम्प्रदायिक तनाव और नफरत का मकसद राजनीतिक सत्ता हासिल करना है।क्या मीडिया कंपनियां भी इसी मकसद में सहायक होती है। दो बातों को यहां ध्यान में रखा जा सकता है। पहला यह प्रमाणित है कि साम्प्रदायिक दंगों में राजनीतिक संघों की भूमिका होती है। दूसरा महात्मा गांधी, भगत सिंह, डा. राम मनोहर लोहिया और डां. अम्बेडकर ने बहुत साफ साफ शब्दो में यह बताया है कि साम्प्रदिक दंगों में मीडिया की भूमिका होती है। इस समय यह देखा जाता है कि मीडिया और राजनीतिक संघ एक दूसरे के साथ गठबंधन में शामिल है। राजनीतिक संघों को सत्ता मिलती है और मीडिया को उसमें हिस्सेदारी मिलती है। यह हिस्सेदारी उनकी कमाई मेंभी जाहिर होती है। कहने के लिए सितंबर 2023 की स्थिति के अनुसार, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (एमआईबी) द्वारा 915 निजी सैटेलाइट टीवी चैनलों की अनुमति प्रदान की गई है। इसमें361 भुगतान वाले चैनल (भुगतान वाले 257 एसडी चैनल और भुगतान वाले 104 एचडीचैनल) और 543 फ्री टू एयर (एफटीए) चैनल शामिल हैं तथा लगभग 332 प्रसारक(भुगतान वाले42 प्रसारक और 290 एफटीए प्रसारकों सहित) हैं। लेकिन सच्चाई है कि मात्र बीसेक कंपनियों का टीवी चैनल के बाजार में वर्चस्व बना हुआ है। चैनलों की कमाई का अंदाजा इससे लग सकता है कि वर्ष 2022 के दौरान, टीवी राजस्व 70,900 करोड़ रुपये का था, जिसमें से 31,800 करोइ रुपये विज्ञापन का राजस्व था।
मीडिया कंपनियां अपनी कमाई के लिए जगह बेचती है। मसलन अखबार विज्ञापन के लिए अखबार के पन्नों में जगह बेचते हैं तो टीवी चैनल समय बेचते हैं। राजनीतिक पार्टियां और उसके सहायक लालच और नफरत के लिए इन जगहों को खरीदते है और टीवी के जरिये के फैलाते हैं। मीडिया में एक शब्द बहुत प्रचलित हुआ था। वह पेड न्यूज था। पेड न्यूज का मतलब यह लगाया जाता था कि राजनीतिक पार्टियां मीडिया में जगह खरीद लेती है और मीडिया अपनी भाषा, डिजाईन और प्रस्तुति से उस जगह को राजनीतिक पार्टियों, व नेताओं के लिए इस्तेमाल करती रही है। वह लंबे समय तक चला और लोकतंत्र का डंका भी बजता रहा। अब मीडिया में जगह सत्ता की पना के लिए सुरक्षित कर लिया है। मीडिया का अपना कुछ नहीं दिखता है जो दिखता है वह खरीददारों की ही जगह दिखती है। अगर मीडिया लोकसंभा के चुनाव के दौरान केवल ‘नफरती संस्कृति’ का सौदा करना छोड़ दे तो लोकतंत्र के लिए बड़ी बात होगी।