राष्ट्रवाद, परम्परा और संस्कृति का दोहरा चरित्र

March 03, 2024 | By Dr. Hawaldar Bharti
राष्ट्रवाद, परम्परा और संस्कृति का दोहरा चरित्र

राष्ट्रवाद, परम्परा और संस्कृति कुछ ऐसे विचार व भावनाएं हैं जो हमेशा से मानव इतिहास अथवा सभ्यताओं में बिशिष्ठ स्थान प्राप्त किए हुये हैं। प्रत्येक सभ्यता विभिन्न प्रकार की परम्पराओं और संस्कृतियोंको आत्मसात कर अपने विकास से चरम तक पहुँचती है। प्रत्येक  सभ्यताओं के व्यक्तियों के व्यक्तित्व, व्यवहार और सोच समझको तत्कालीन परम्परा और संस्कृति ही निर्धारित करती है। अपने प्रारम्भिक समय से लेकर आज तक राष्ट्रवाद, परम्परा और संस्कृति जैसे विचार व भावनाएं विमर्श के केंद्र में बनी हुयी हैं। वर्तमान काल में भी उपरोक्त विचारों व भावनाओं के तुलना में सारे विचार व मुद्दे कमतर आँके जाते हैं, अर्थातराष्ट्रवाद, परम्परा और संस्कृति की भावना सर्वोपरि रहती है।

भारत मेंस्वतन्त्रता आंदोलन के समय से राष्ट्रवाद की भावना सर्वोपरि होने के कारण और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दे  मुख्यधारा के मुद्दों से दूर हो गए, चाहे वो बेहतर शिक्षा का मुद्दा हो, महिला शशक्तिकरण का सवाल हो,छुआछूत का मुद्दा हो, जाति का प्रश्न हो, स्वास्थ का मुद्दा हो, रोज़गार का मुद्दा हो इत्यादि। इस संदर्भ में बहुधा इतिहासकारों की स्थापना रही है कि भारत में राष्ट्रवाद का आंदोलन केवल और केवल मध्यवर्गीय समाज के अभिलाषाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति का एक माध्यम मात्र था। अगर वैश्विक पटल पर देखें तो राष्ट्रवाद ने पूंजीवाद,साम्राज्यवाद और संप्रदायवाद को जन्म दिया। हालाँकि साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के अंत का कारण भी राष्ट्रवाद ही बना। इसी संदर्भ में यह बात साबित होती है कि राष्ट्रवाद दो धारी तलवार होता है, अर्थात जिस पर तलवार चलाई जाती है उसका तो गला कटता ही है और जो तलवार चलाता है उसका भी गला कट जाता है।हालाँकि राष्ट्रवाद की भावना बहुत व्यापक और समावेशी है, परन्तु राष्ट्रवाद की बहुत ही संकीर्ण और छद्म किस्म की भावना बड़े ही शातिर ढंग से लोगों में स्थापित कर दी गयी। आज राष्ट्रवाद की परिभाषा किसी देश की सीमा और उसकी रक्षा कर रहे सिपाहियों तक सीमित हो गयी है। राष्ट्रवादी होने की सबसे बड़ी पहचान अपने देश से प्रेम करने के बजाय दूसरे देश या मुल्क से कोई कितना नफरत करता है से तय होती है।यह स्थापित सत्य है कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना कोई न  कोई मित्र राष्ट्र होता है और कोई दुश्मन राष्ट्र, जैसे भारत का दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान है और पाकिस्तान का भारत। इसी प्रकार बांग्लादेश का दुश्मन राष्ट्र पाकिस्तान है तो पाकिस्तान का बांग्लादेश, और अमेरिका का रूस तो रूस का अमेरिका। राष्ट्रवाद की मूलभावना मित्रता के बजाय नफरत बन गयी है। वहीनागरिक सबसे बड़ा देश भक्त साबित होगा जो दूसरे मुल्क से यानि कि अपने दुश्मन राष्ट्र सेसबसे ज्यादा नफरत करता है। आलम इस कदर है कि अपने राष्ट्र की कमजोरियों को उजागर करना और उसकी आलोचना करना भी देश द्रोह कहलाने लगा है। उदाहरण के तौर परभारत जैसे सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश होने का दावा करने वाले देश में यदि कोई जाति आधारित शोषण पर आवाज़ उठाता है उसको जातिवादी घोषित कर दिया जाता। यदि कोई आदिवासियों के हक़ और हुकुक की बात करता है तो नक्सली बताकर मार दिया जाता। यदि कोई धार्मिक अल्पसंख्यक समाज के खिलाफ़ हो रहे शोषण पर आवाज़ उठाता है तो उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता।ऐसी भावना और विचार को जिंगोइज़्म कहना बिलकुल सटीक होगा। जिंगोइज़्म का आशय है अति-राष्ट्रवाद, आक्रामक राष्ट्रवाद और अंध देशभक्ति। अर्थात इस भावना के आगे किसी और भावना की कोई कद्र नही होती। जिंगोइज़्म का आलम इस कदर है कि इसके आड़ में लोगों के खाने पीने की आज़ादी छीन ली जाती है। इस संदर्भ मे अखलाख,पहलू ख़ान,अफराजुल, हैदर की निर्मम हत्या जैसी घटनाओं की कतारें लंबी और डरावनी है।

इसी प्रकार इस तथाकथित जिंगोइज़्म की आड़ में लोगों के बोलने की आज़ादी पर भी पाबन्दी लगाई जाती है, जैसे गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे, कल्बुर्गी इत्यादि घटनाएँ दिल दहला देती हैं। हालाँकि ये सारे अधिकार चाहे वो खाने की हो, पीने की हो, पहनने की हो, रहने की हो, बोलने की हो और घूमने की आज़ादी इस देश के संविधान द्वारा हर नागरिक को प्रदत्त है। परंतु, ऐसे अधिकार भारतीय संविधान द्वारा इस देश हर नागरिक को प्राप्त होने के बावजूद इनको राष्ट्रवाद की आड़ में ख़तम क्यों किया जा रहा है?अब सवाल उठता है कि क्या उपरोक्त समस्यों को उजागर करने मात्र से  कोई राष्ट्र द्रोही हो सकता है? और क्या इन समस्याओं के उजागर होने से कोई राष्ट्र कमजोर हो सकता है? क्या उपरोक्त समस्याओं के समाधान के बगैर किसी राष्ट्र का निर्माण संभव है?क्या सरकारों का विरोध करने मात्र से कोई राष्ट्रद्रोही हो सकता है? क्या सरकारें ही राष्ट्र हो गईं हैं? आखिर क्यों जब कभी बेहतर रोज़गार, स्वास्थ और शिक्षा पर सरकारों को घेरने की कोशिश की जाती है उस समय सरकारों द्वारा राष्ट्रवाद के शोर से उन आवाजों को दबा दिया जाता?हमे राष्ट्रवाद को दूसरे मुल्कों से नफ़रत और घृणा के आधार पर परिभाषित करना है या उन किसानों, मजदूरों, दलितों, शोषितों, आदिवासियों और महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करके तय करना है? जो भारत जैसे राष्ट्र के अभिन्न अंग हैं। इस सवाल के जवाब की तफतीश करने की ज़िम्मेदारी मैं इस लेख को पढ़ने वालों पर छोड़  रहा हूँ।

परम्परा और संस्कृतिकी भी स्थापित परिकल्पना राष्ट्रवाद से कुछ अलग नहीं है। इसकी भी समझ लोगों के अंदर बहुत संकीर्ण दायरे तक सीमित हो चुकी है। लोग संस्कृति और परम्परा के नाम पर कुछ भी मानने न मानने को आमादा हैं। किसी भी कर्मकाण्ड, अंधविश्वास और अमानवीयता जैसे कामों को संस्कृति और परम्परा के नाम पर विश्वास कर लेते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पूरी तरीके से मानवता और तर्क करने की परम्परा क्षीण सी हो गयी है। हम शायद यह भूल गए हैं कि परम्पराएँ और संस्कृतियाँ अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की होती। हर सभ्यता अथवा मानव इतिहास में अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की परम्पराएँ और संस्कृतियाँ  रही हैं। जैसे-

प्रगतिशील अथवा मानवीय परम्परा और संस्कृति

इसका केंद्र बिन्दु मानवता, प्रगतिशीलता, बौद्धिकता और मानव चेतना की पैरोकारी करना रहा है। यह बगैर किसी बात की समीक्षा किए या फिर विमर्श किए किसी बात की पुष्टि नहीं करती है। इसके साथ यह  जड़ता को पूरी तरीके से नकारती है। उपरोक्त परम्परा और संस्कृति सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक तानेबाने को मानवता के अनुकूल बनाने को हर जतन करती है। यह हमेशा से इन संस्थानों को लोकतान्त्रिक, बौद्धिकता, समानता और मानवतावादी मूल्यों पर स्थापित करने की पैरोकारी करतीहै।

अमानवीय और ब्राह्मणवादी परम्परा और संस्कृति

ऐसे प्रकार की संस्कृति और परम्परा की विशेषता यह होती है कि यह वैज्ञानिक मूल्यों, बौद्धिकता और मानव चेतना को दरकिनार करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह समाज में आस्था, अंधविश्वास को सर्वोपरि रखने की पैरोकारी करती है। यह ऐसा दावा करती है कि व्यक्ति धर्म और आस्था के लिए है न कि धर्म और आस्था व्यक्ति के लिए। यह समाज में विद्दमान कुरीतियों,रूढ़ियो और कुप्रथाओं को भी संस्कृति और परम्परा के नाम पर बचाव करती है। यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक आधार पर असमानता को भी सही ठहराती है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि व्यक्ति की पहचान उसके जन्म के आधार पर करती है न कि व्यक्ति के कर्म के आधार पर।

अब मानवतावादी, वैज्ञानिक दृष्टिकोणों व मूल्यों पर आधारित, समानतावादी, लोकतान्त्रिक, और पुरातनवादी, शोषणकारी, अवैज्ञानिक, अमानवीय और अंधिविश्वासी संस्कृतिओं और परम्पराओं में भेद करने का समय आ गया है। इसके साथ साथ ये समय जिंगोइज़्म और राष्ट्रवाद के फर्क को समझने का भी है। वास्तविकता में हमें राष्ट्र को तोड़ने वाले राष्ट्रवाद को अपनाना है या फिर राष्ट्र को तोड़ने वाले जिंगोइज़्म को अपनाना है। हमारी सबसे बड़ी भूल इन दोनों प्रकार की संस्कृतिओं और परम्पराओं को पहचानने के समय हो जाती है। हम ये भूल जाते हैं कि दोनों के विकास की दिशा बिलकुल एक दूसरे के विपरीत है। एक हमे बिलकुल सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से पीछे ले जाएगी और दूसरी आगे। हमको ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि वैज्ञानिक मूल्यों और दृष्टिकोणों पर आधारित संस्कृति के कारण ही इंसान  आदिमानव के जीवन स्तर से आज चाँद तक का सफ़र तय कर पाया है। आज प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों को मानव जीवन के अनुकूल बनाने में हमने इन्ही वैज्ञानिक मूल्यों और अन्वेषणों का सहारा लिया है। इसी प्रकार इन्ही वैज्ञानिक दृष्टिकोणों और तर्क-वितर्क, वाद-संवाद के सहारे ही हमको सामाजिक और धार्मिक जड़ता, अंधविश्वास और कुप्रथाओं को नाश करने की प्रेरणा मिली है। वास्तव में  हमको व्यक्ति की पहचान जन्म के बजाय कर्म के आधार पर करने को सूझी, अन्यथा मानव अधिकार और सामाजिक न्याय नामक कोई चीज नहीं होती।