हलमा: सामुदायिक भागीदारी से अपनी समस्याओं का हल निकालते जनजातिय समुदाय!

July 12, 2024 | By Vaagdhara
हलमा: सामुदायिक भागीदारी से अपनी समस्याओं का हल निकालते जनजातिय समुदाय!

अरावली पठार में आने वाला बांसवाडा जिले के तहसील घाटोल का पहाड़ी क्षेत्र वाला गाव मियासा । यह इलाका पलायन और सूखे के लिए जाना जाता है। यहां रहने वाले भील समुदाय के आदिवासियों के लिए कई समस्याएं संकट लेकर आती है। इस समस्या का समाधान आदिवासियों ने अपने पारंपरिक ज्ञान में खोजा। सामुदायिक भागीदारी ‘हलमा’ की मदद से यहां कई जगह मेडबंदी ,फसल बुवाई ,फसल कटाई, और सामुदायिक भूमि पर अरंडी ,खाकरा टिमरू के बीज लगाकर पर्यावरण संवर्धन कर रहे है I

दरअसल, कम खेती उपज ,पानी संकट बांसवाड़ा जिले में रहने वाले आदिवासियों की प्रमुख चिंता है। ये संकट उनके लिए कई समस्याएं लेकर आता है। पीने के पानी समस्या तो इनमें सबसे विकराल है। फसलों को पानी देने का संकट अलग से है। इससे वे साल में सिर्फ एक ही फसल ले पाते हैं। इसके चलते पलायन, मजदूरी, भुखमरी और शोषण का कुचक्र शुरू होता है ।

लेकिन इन दिनों मियासा गांव में इन आदिवासीयो ने सामुदायिक तरीके से एक दुसरे के खेतों में बुवाई, मेडबंदी करके लाखों रुपये की बचत कर चर्चा में है । इसे अनेक समस्या ग्रसित भील आदिवासियों के इस गांव ने कृषि और अन्य की समस्या का समाधान खोज लिया है ।

वागधारा गठित ग्राम स्वराज संगठन की सदस्य श्रीमती अमरी देवी निनामा हलमा के बारे में बताती हैं, हमारी भील समाज की हलमा एक प्राचीन परंपरा है। जब कोई व्यक्ति गांव में संकट में फस जाता है और अपनी पूरी ताकत लगाने के बाद भी उस संकट से नहीं निकल पाता, तो वो हलमा का आह्वान करता है। गांव के लोग हलमा के जरिए सामाजिक दायित्व निभाकर कर उस व्यक्ति को संकट से निकालते हैं ।”

वही एक ओर सदस्य श्रीमती जमाना निनामा बताते हैं, “हमने गांव में खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिलते इस संकट से निपटने के लिए हलमा बुलाया था। इसी हलमा से सामुदायिक भागीदारी के तहत बिना एक पैसा खर्च किए तकरीबन 15 किसानों ने अपने खेतों में सामुदायिक तरीके से बुवाई की इसमें एक किसान के खेत में 25 लोग सहभागी हुए इस हिसाब से 300 किसानों ने एक दूसरे के खेतों में श्रमदान किया हलमा द्वारा पेशा और समय भी बचाया है ” I

वागधारा संस्था इस क्षेत्र पिछले 20 वर्ष से इन जनजातिय लोगों को ,मेडबंदी ,तालाब निर्माण,सच्ची खेती के तहत जैविक खेती प्रणाली अपनाने, सरकारी योजनाएं लाभान्वित करने हेतु, और पंचायत में अपने अधिकार एवं भागीदारी ,सामुदायिक विकास आदि के बारे में प्रशिक्षण देते आ रहे हैं ।

कृषि एवं आदिवासी स्वराज संगठन के पदाधिकारी देवी लाल निनामा हमें बताते हैं, “हमारे गांवों में भील जनजाति रहती है। यह पहाड़ी, अर्ध-शुष्क जलवायु वाली मानसून की अनिश्चितता से जूझता इलाका है। यहां आमतौर पर औसत वार्षिक वर्षा 900 मिली लीटर के आसपास होती है। वहीं अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तो न्यूनतम सात डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है । यहां लाल, काली, पथरीली, दोमट मिट्टी पाई जाती है । यहां रहने वाली जनजाति यहां की जैव-विविधता पर निर्भर है । इसलिए ये जनजाति अपनी पुरातन परंपराओं और कुदरती ज्ञान को अपने अंदर समेटे हुए है । इसके चलते जंगल भी बचे हुए हैं और जनजाति समुदाय भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है ।”

मियासा गाँव के युवा केशव निनामा मजदूरी के लिए गुजरात जाते हैं । केशव और उनके पिता के पास बिना सिंचाई वाली तीन बीघा जमीन है जिससे वे केवल बारिश में बोई जाने वाली मक्का और तुवर उगा पाते हैं । मक्का सिर्फ घर में खाने में काम आता है । उसे वे मंडी में नहीं बेच पाते और फसल से मुनाफा नहीं हो पाता । घर में नगदी की हमेशा तंगी रहती है । इसलिए आधे परिवार को मजदूरी के लिए दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता था, क्यों की खेती करने के लिए मजदूर नहीं मिलते थे और खर्चा भी बहुत होता था पर अब खेती में फसल बुवाई और कटाई हलमा द्वारा करने से मैं बाहर पलायन नही जा रहा हु । हमें अभी गांव में और एक दूसरे की मदद करके अपनी की जरूरत का हल निकाल लिया है और हम हलमा के जरिये सामुदायिक भागीदारी अपनी विकास की राह से बनाएंगे।”