इस समय देश में दो तरह के राजनीतिक आयोजन हो रहे हैं। दोनों का ही राजनीतिक मकसद एक है, इस साल मार्च-अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अपने पक्ष में माहौल तैयार करना। पहले राजनीतिक आयोजन के रूप में 14 जनवरी को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष, सांसद राहुल गांधी ने मणिपुर से मुंबई तक की 6700 किमी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू की है। दूसरा राजनीतिक आयोजन या कहें अभियान उत्तर प्रदेश के अयोध्या में हो रहा है। यह राजनीतिक अभियान धार्मिक अनुष्ठान के रूप में किया जा रहा जिसमें मुख्य भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनका पार्टी भारतीय जनता पार्टी और उन्हें संचालित करने वाले आरएसएस और उसके विश्व हिंदू परिषद जैसे आमुख संगठनों की है। सामुदायिक कहें या फिर जातीय हिंसा और तनाव की आग में झुलसे मणिपुर में राहुल गांधी पहले भी जा चुके हैं। हालांकि मणिपुर के लोगों लोगों की सुध लेने और वहां फिर से शांति और भाई चारा कायम करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तक वहां नहीं गए।
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी को अयोध्या जाएंगे जहां उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी, इसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के आधिपत्य वाले ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’ की देख रेख में दूसरा राजनीतिक आयोजन हो रहा है। अयोध्या में 22 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी निर्माणाधीन राम जन्मभूमि मंदिर में मुख्य यजमान के रूप में प्राण प्रतिष्ठा करेंगे। लेकिन इस कार्यक्रम में राहुल गांधी की मां, कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे, लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी तथा अन्य अधिकतर विपक्षी दलों के नेता भी नहीं जाएंगे। राहुल गाधी को तो निमंत्रण ही नहीं मिला है। हालांकि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भी साफ किया है कि वे लोग राम मंदिर में फिर कभी जाएंगे लेकिन भाजपा के राजनीतिक आयोजन में नहीं जाएंगे। निमंत्रण तो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भी नहीं मिला है। क्या इसलिए कि वे आदिवासी महिला और अनुसूचित जाति से हैं। और तो और संघ परिवार के विहिप और बजरंग दल के राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेनेवाले विनय कटियार और उमा भारती जैसे कुछ प्रमुख चेहरे भी प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में कहीं नजर नहीं आ रहे।
यही नहीं, सनातन हिंदू धर्म के चारों सर्वमान्य शंकराचार्य भी इस आयोजन में नहीं जाएंगे। ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद और गोवर्धन पीठ, पुरी के जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने साफ कहा है कि “अयोध्या में 22 जनवरी को धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि राजनीतिक आयोजन होने जा रहा है।” उनका तर्क है कि आधे अधूरे, निर्माणाधीन मंदिर जिसमें शिखर और उसमें कलश बनने से पहले वहां मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा शास्त्रोचित नहीं है। उनका कहना है कि “प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्रीराम के शीर्ष पर चढ़कर मजदूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा।” वह प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा प्राण प्रतिष्ठा पर भी सवाल उठाते हुए कह रहे हैं कि “प्रधानमंत्री मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा करेंगे तो हम क्या वहां ताली बजाएंगे।” दूसरी तरफ मंदिर निर्माण से जुड़े तमाम संत-महंथ और मंदिर निर्माण ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय भी शंकराचार्यों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उनके बारे में विवादित और अभद्र टिप्प्पणियां भी कर रहे हैं। चंपत राय ने तो यह भी कहा है कि जहां प्राण प्रतिष्ठा हो रही है, वह मंदिर तो रामानंदाचार्य संप्रदाय का है जहां शंकराचार्य की कोई भूमिका नहीं। इस पर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद तंज करते हुए कह रहे हैं कि अगर ऐसा है तो फिर चंपत राय वहां से हट जाएं और रामानंदाचार्य संप्रदाय के लोगों को ही धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने दें। इत तरह के काफी तर्क कुतर्क हो रहे हैं।
अयोध्या में राम मंदिर में मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा के स्थान और समय को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। कहा जा रहा है कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी, और 6 दिसंबर 1992 को जिसे ध्वस्त कर रामलला विराजमान किए गए थे और जिसको लेकर हजारों लोग देश भर में हुए सांप्रदायिक दंगों के शिकार हुए थे, नया मंदिर वहां से कुछ दूर बन रहा है। अगर यही करना था तो फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के प्रस्ताव में क्या बुराई थी।