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The historic victory in Nagina completed Chandrashekhar’s journey from the streets to Parliament

July 12, 2024 | By Sushma Tomar
The historic victory in Nagina completed Chandrashekhar’s journey from the streets to Parliament

The results of the Lok Sabha elections 2024 have been declared. The Election Commission has made it clear by announcing the results of 543 Lok Sabha seats that which alliance will form the government in the country, NDA or INDIA. But meanwhile, there was one Lok Sabha seat which not only attracted the attention of the entire Lok Sabha election but also dominated the entire social media. We are talking about Nagina Lok Sabha of Uttar Pradesh.

Nagina Lok Sabha of Uttar Pradesh was a topic of discussion even before the elections began, but the results were declared today. Chandrashekhar Azad of Azad Samaj Party won the Nagina Lok Sabha seat by a margin of one and a half lakh votes. He defeated BJP candidate Om Kumar and Manoj Kumar of India Alliance by a huge margin. Chandrashekhar Azad, the winner of Nagina seat in Lok Sabha elections 2024, got a total of 5,12,552 (5 lakh 12 thousand five hundred fifty-two) votes. At the same time, Om Kumar of BJP got 3,61,079 and Manoj Kumar of Samajwadi Party got 1,02,374 votes.

handrashekhar Azad has achieved a record-breaking victory in Nagina Lok Sabha. This is the first election in which Chandrashekhar Azad has won. This victory is definitely a big one and has been recorded in the history of Nagina. Before this, Chandrashekhar Azad has contested the UP assembly elections, although he could not win. But how could he win because he had to reach the Lok Sabha and not the assembly. After his victory, Chandrashekhar Azad thanked everyone. While talking to the media, he said,

I thank the people of Nagina who blessed me, I also thank those who criticized me. I thank all those who voted for me, worked for me 24 hours a day. I also thank all those Karmacharis and my workers who worked with full honesty.”

INDI alliance benefits

After the victory, Chandrashekhar Azad said on the performance of India Alliance, “If India Alliance had acted wisely, the result would have been much better than this.” Let us tell you that before the elections started, Chandrashekhar Azad was a part of India Alliance. But according to sources and media reports, Akhilesh Yadav and the Alliance did not agree that Chandrashekhar should contest the election from Nagina. But Chandrashekhar Azad worked hard continuously on the Nagina seat and met people at the grassroots level. He connected with them. This is the reason why Chandrashekhar Azad contested this election without joining any alliance and created history by winning the Nagina seat by 1.5 lakh votes.

After Chandrashekhar Azad’s victory, videos of celebrations started going viral on social media. Videos of the crowd chanting Jai Bhim also surfaced. There is an atmosphere of happiness among the workers of Azad Samaj Party and Bhim Army, whose founder is Chandrashekhar Azad. Chandrashekhar Azad is a grassroots leader and now he has been elected as a Lok Sabha MP. Everyone hopes that after going to Parliament, Chandrashekhar will become the voice of Dalits, backward, poor, oppressed and minorities.

(Dalit Times)

बौद्ध विहार नालंदा को किसने तोड़ा था, ब्राह्मणों ने या मुस्लिम आक्रमणकारियों ने?

July 12, 2024 | By Sushma Tomar
बौद्ध विहार नालंदा को किसने तोड़ा था, ब्राह्मणों ने या मुस्लिम आक्रमणकारियों ने?

नालंदा को किसने तोड़ा इसे लेकर सोशल मीडिया पर मतभेद शुरू हो गए हैं। इसे लेकर दो बातें कही जा रही है पहली यह की नालंदा को ब्रह्मणों ने तोड़ा औऱ दूसरा ये की नालंदा को मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने तुड़वाया था।

सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक में नालंदा विश्वविद्यालय इस वक्त छाया हुआ है। क्योंकि हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के राजगीर में नालंदा यूनिवर्सिटी का इनोग्रेशन किया। इस वक्त लोगो को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि बुद्ध की इस धरती यानी भारत के साथ आज दुनिया के सभी देश कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहते है। 19 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी के इनोग्रेशन के दौरान ये भी कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय वसुधैव कुटुंबकम की भावना का एक सुंदर प्रतीक है।

एक वक्त पर नालंदा भारत की पंरपरा और पहचान का जीवंत केंद्र हुआ करती थी। पीएम मोदी यह बात उस नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में बोल रहे थे जो अब खंडहर हो चुका है लेकिन अपने आप में यह खंडर एक इतिहास समेटे हुए है। बता दें कि हाल ही में जिस नालंदा यूनिवर्सिटी का इनोग्रेशन किया गया है वह नालंदा के खंडहरों से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

पीएम मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी को प्राचीन नालंदा की शिक्षा परंपरा को पुनर्जीवित करने और इसे एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित करने का उद्देश्य बताया। इसका मकसद वैश्विक शिक्षा के क्षेत्र में भारत को पुनः एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाना है और एशियाई सभ्यता के अध्ययन को बढ़ावा देना है।

किसने तोड़ा नालंदा को ?

इतिहास कहता है कि नालंदा एक प्रसिद्ध संस्थान था जिसका संबंध बौद्ध धम्म से था। जहाँ बौद्ध धम्म के महायान अध्ययन और प्रचार पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। हालांकि 12वी शताबदी में इसे तोड़ दिया गया। लेकिन इस घरोहर को किसने तोड़ा इसे लेकर सोशल मीडिया पर मतभेद शुरू हो गए हैं। इसे लेकर दो बातें कही जा रही है पहली यह की नालंदा को ब्रह्मणों ने तोड़ा औऱ दूसरा ये की नालंदा को मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने तुड़वाया था।

JNU में इतिहास की प्रोफेसर रूचिका शर्मा ने और कुछ विद्वानों और इतिहासकारों, जैसे श्रीधर वेंकट राघवन ने लामा तारानाथ का हवाला देते हुए यह दावा किया है कि नालंदा का विनाश ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध धम्म के प्रति शत्रुता के कारण किया गया था। जिसका जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार दीलीप मंडल ने कहा कि आपकी इतिहास लेखन की विधि गलत है. नालंदा को जलाने का आरोप ब्राह्मणों पर लगाना इतिहास को सिर के बल खड़ा करने वाली बात है. अल्पसंख्यकवाद के चक्कर में सवर्ण वामपंथी इतिहासकार ये करते हैं. भारत में इतिहास लेखन पर उनका ही कब्जा है. आपने दो तिब्बती सोर्स के आधार पर जो निष्कर्ष निकाला है वह संदिग्ध है.

नालंदा पर जब बख्तियार खिलजी ने आक्रमण किया तब तक वहां पाल राजवंश  का शासन था. नालंदा और आसपास के इलाके पर कभी ब्राह्मणों का राज नहीं रहा. इससे पहले के चार सौ साल में यहां अधिकतर समय बौद्ध राजा रहे. पाल राजवंश भी बौद्धों का है. नालंदा को जलाने का आरोप आप ब्राह्मणों पर कैसे लगा रही हैं?

वह आगे लिखते हैं कि मूर्तियों को तोड़ना या स्ट्रक्चर को नष्ट करना या ग्रंथों को जलाना ब्राह्मण विधि नहीं है बुद्ध की मूर्ति तोड़ने की सबसे ताजा घटना भी अफगानिस्तान की है. लिखित इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं है कि ब्राह्मणों ने बुद्ध की मूर्ति तोड़ी या मठ जलाए. नालंदा के विध्वंस पर बाबा साहब को पढ़ा जाना चाहिए. कृपया उनकी रचनावली का वॉल्यूम तीन देखें. उन्होंने इस विनाश के लिए स्पष्ट तौर पर मुस्लिम हमलावरों को जवाबदेह बताया है.

नालंदा और डॉ आंबेडकर

आखिर में जब हम इन सारी चीजो का निष्कर्ण निकालते हैं तो हमें बाबा साहेब अंबेडकर की राइटिंग्स मिलती है जिसमें सिंबल ऑफ नॉलेज डॉ. अंबेडकर ने लिखा है कि मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय और अन्य बौद्ध स्थलों को नष्ट किया था।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश के लिए स्पष्ट रूप से 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी को जिम्मेदार ठहराया, जिसके अनुसार यह आक्रमण बौद्ध धम्म को समाप्त करने का प्रयास था, जिससे बौद्ध धर्म और उसकी शिक्षा प्रणाली को गंभीर नुकसान हुआ। आंबेडकर ने मुस्लिम आक्रमणकारियों को बौद्ध धम्म के पतन का मुख्य कारण माना है।

नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय बनाया जाए

इसी के साथ दिलीप मंडल ने एक नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय बनाने की मांग भी कर डाली है। उन्होंने लिखा कि, “जब जामिया और अलीगढ़ जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम विश्वविद्यालय हो सकते हैं तो नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय क्यों नहीं?” उनका यह सवाल भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों की पहचान और उन्हें संरक्षित करने की दिशा में एक विचारणीय पहल है। इस सवाल से यह बात उभरती है कि यदि कुछ विश्वविद्यालय विशिष्ट धार्मिक समुदायों की पहचान के रूप में स्थापित हो सकते हैं, तो बौद्ध धम्म की प्राचीन और महत्वपूर्ण धरोहर, नालंदा विश्वविद्यालय, को बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता क्यों नहीं दी जा सकती है?  क्या इस परियोजना का उद्देश्य केवल वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल करना है, या इसके माध्यम से स्थानीय समाज और उनके हितों का भी ध्यान रखा गया है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि किसी भी बड़े परियोजना के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का ध्यान रखना आवश्यक है, खासकर जब वह परियोजना एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी हो

बौद्ध धम्म और नालंदा विश्वविद्यालय

प्राचीन युग में नालंदा विश्वविद्यालय भारत का एक प्रमुख शिक्षण संस्थान था, जो लगभग 5वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक बिहार राज्य के नालंदा में स्थित था। यह विश्वविद्यालय विश्वभर के छात्रों और विद्वानों को गहन शिक्षा के लिए अपनी और आकर्षित करता था,‌  इसमें कई महत्वपूर्ण विषय की उच्च शिक्षा दी जाती थी, जिनमें बौद्ध धर्म, दर्शन, गणित, आयुर्वेद, और विज्ञान शामिल थे

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी। इसके निर्माण के लिए विभिन्न शासकों ने  भरपूर सहयोग किया और इसे समय-समय पर विकसित किया जाता रहा है ताकि शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ता रहे। यहाँ अनेक मठ और विद्यालय थे, और इसकी लाइब्रेरी ‘धर्मगंज’ तीन प्रमुख भवनों में विभाजित थी जिनका नाम रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक था।

नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध धम्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहाँ महायान बौद्ध धर्म के अध्ययन और प्रचार पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान जैसे नागार्जुन, दिङ्नाग, और धर्मकीर्ति यहाँ शिक्षण और अध्ययन करते थे। यह विश्वविद्यालय बौद्ध धम्म के अध्ययन के लिए दूर-दूर से छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था।

(Dalit Times)

Why did Dalits not vote for BJP?

June 15, 2024 | By Sushma Tomar
Why did Dalits not vote for BJP?

By giving the slogan of crossing 400, BJP had made the Lok Sabha elections one-sided. At the same time, by raising the issue of constitution and reservation, the opposition broke BJP’s dream of crossing 400. Let us know how the constitution and reservation played an important role in this entire election and the Dalit votes got scattered from BJP.
Story: Nitya
Edit: Sushma Tomar

Post-election analyses of the 2024 Lok Sabha results have shown a fundamental shift in the voting behaviour of Dalits. From a total of 131 seats reserved for SCs, STs and OBCs, the BJP managed to win only 55, and the percentage of SC/ST/OBC votes in their favour has also decreased substantially. According to the My-Axis poll, the INDI Alliance won 53 more SC dominated seats than they did in 2019, while on the other hand the BJP lost 34 SC dominated seats as compared to 2019.

The state of Uttar Pradesh has 17 seats reserved for Dalits. In the 2014 elections, BJP bagged all 17 of them and in 2019 they captured 14. In the recent elections however, only 8 of these seats were won by them. The INDIA bloc also made a lot of promises to the people of Uttar Pradesh which seemed to have garnered the support of the Dalit community. It included a minimum wage of 400 rupees and compensation for unemployment, among others.

In the states of Telangana, Maharashtra, Rajasthan, and Haryana as well we see a similar pattern wherein the bjp lost a major chunk of the Dalit vote share. The three seats reserved for SC/STs in Telangana were swept up by the INDIA Bloc, while a huge share of Dalit votes in Maharashtra also veered towards the alliance bloc. In Rajasthan, the BJP suffered heavy losses in constituencies with SC/ST/OBC dominated voters, such as eastern Rajasthan and the Shekhawati region.

What caused this significant shift away from the Bharatiya Janata Party? In the case of the Dalit vote, BJP’s “400 paar ” slogan seems to have done more harm than good. Many on ground sources interviewed by various media outlets echoed the fear that such an overwhelming majority of the BJP could lead to alteration of the constitution, specifically the special provisions that protects their community. The Constitution is an invaluable source of empowerment and protection for these communities, and when faced with the possibility of it being taken away from them, they united as a group to ensure the party in question is unable to do so. The INDIA bloc used this threat as part of their campaigning efforts and it clearly struck a chord with the people.

The voters’ dissatisfaction with the lack of representation among the NDA candidates, coupled with an increasing representation among the INDIA bloc, is another contributing factor to this change. Many criticised Akhilesh Yadav’s decision to field a Dalit candidate in a general seat like Faizabad, but in the end this decision paid off.

This dramatic shift in caste based voting behaviour signals an important shift for the country. The Dalits very evidently expressed their dissatisfaction with the BJP through their votes. The possibility of a threat to the salient provisions of the constitution was important enough to create a fundamental shift in voter behaviour.

(Dalit Times)

Lok Sabha Elections and Chandrashekhar’s Rise to Power

June 15, 2024 | By Sushma Tomar
Lok Sabha Elections and Chandrashekhar’s Rise to Power

Ever since Chandrashekhar Azad’s victory in the elections, there is talk of the end of Mayawati and BSP. Politicians and media are constantly running the propaganda that Mayawati’s politics is over and now Chandrashekhar Azad has taken her place. But no one wants that two big leaders of the Dalit community come into politics and represent Dalits, backward classes and tribals…
Report by : Avni Kulshreshtha
Edit by : Sushma Tomar

The 2024 Lok Sabha election results came as nothing less than a surprise for the nation. While some parties out-performed themselves, there were some that could not cross the anticipated majority mark. Undoubtedly, the power of democratic elections made tables turn this year. One such highlight came from Nagina, where Chandrashekhar Azad has emerged as a new leader for the Dalits. He wasn’t visibly seen as a threat to other Dalit leaders such as Mayawati in the beginning, but it is his work that has established him as a popular leader in the eyes of the community.

Chandrashekhar Azad, the co-founder of Bhim Army in 2014, and the founder of Azad Samaj Party (Kanshi Ram) in 2020, has made his mark in the minds of the Dalits through his unwavering dedication and visibly impactful groundwork. He has opened several schools in Western Uttar Pradesh, and has had a more ‘hands-on’ approach as compared to his counterparts. In stark contrast to the 2024 Lok Sabha elections, Azad had lost to Yogi Adityanath in Gorakhpur in the 2022 assembly elections. It was the support of both the Dalits, as well as the Muslims, that brought him up as a leader in Nagina.

Azad won the Nagina seat by more than 1.5 lakh votes, establishing him as a new leader amidst the Dalits after Mayawati. Azad’s victory in Nagina is particularly noteworthy because prior to 2009, this constituency was part of the Bijnor Lok Sabha seat, the same seat from which Mayawati contested elections. Her absence from the foreground gave the people an opportunity to place their faiths in someone new, and Chandrashekhar Azad, with a notably promising history with the community, won their hearts.

However, that’s not to say that Mayawati is not appreciated. She was elected as the Chief Minister of Uttar Pradesh four times, and Bahujan Samaj Party emerged as a major political force under her leadership, making a space for itself in the Indian political sphere. She worked towards reservation to uplift the Dalits, and made various advancements in education as well as infrastructure.

She initiated the creation of numerous statues, parks, and memorials honouring Dalit figures such as Dr B.R. Ambedkar, and made focused on complete eradication of caste-based violence. Through rallies, speeches, and grassroots organizing, she galvanized Dalit communities, promoting political involvement and activism. Mayawati’s efforts have left a lasting imprint on Indian politics, greatly advancing Dalit empowerment and transforming the political landscape to be more inclusive of marginalized groups.

Therefore, the 2024 Lok Sabha elections have made clear that people are not afraid to place their trust on new faces if they remain unsatisfied. It is necessary for party leaders to realise that the masses will elect those that they believe in, and those who engage in grassroot efforts. Indian democracy is strong enough to not be fooled and elected leaders need to show visible work for upliftment of all communities.

(Dalit Times)

भारत की पहली दलित हीरोइन पी के रोज़ी जिसकी फिल्म ब्राह्मणवादियों ने नहीं चलने दी थी

April 20, 2024 | By Sushma Tomar
भारत की पहली दलित हीरोइन पी के रोज़ी जिसकी फिल्म ब्राह्मणवादियों ने नहीं चलने दी थी

क्या आपने कभी देखा है कि कोई ब्राह्मण नायिका सिनेमाई पर्दे पर अदाकारी कर रही हो और लोग सिर्फ उसके ब्राह्मण होने की वजह से फिल्म में उसके होने पर आपत्ति जताए… या थिएटर में स्क्रीन ही तोड़ दें। जाहिर सी बात है, बिल्कुल नहीं लेकिन 1930 का दशक ऐसा था जब एक दलित नायिका को ब्राह्मणवादियों कि दकियानूसी सोच के चलते अपना भविष्य दाव पर लगाना पड़ा था।

दलित टाइम्स के कॉलम एससी/एसटी नायक में पढ़िए भारत की पहली दलित हिरोइन P.K. रोज़ी के बारे में.. जो बता रहीं है सुषमा तोमर…

साल 1928 का दौर था जब तथाकथित उच्च कुल की लड़कियां सिनेमा में काम नहीं करती थीं इसी समय केरल की पहली फिल्म बन कर तैयार हुई थी। जिसका नाम था, ‘विगथकुमारन’, जिसे केरल के मशहूर फिल्म मेकर जे.सी डेनियल ने बनाया था। जेसी डेनियल ने फिल्म में नायिका के किरदार के लिए एक दलित महिला को चुना था। हालांकि इसके पीछे भी एक लंबी कहानी है कि एक ऐसे दौर में जब महिलाओं को ही ना के बराबर फिल्मों में काम करने की इजाज़त थी वहाँ दलित महिला को नायिका के रूप कैसे लिया गया ? ये पूरा किस्सा आपको लेख में आगे पढ़ने के लिए मिलेगा लेकिन उससे पहले थोड़ी भूमिका बांधना जरूरी है।

कहते हैं कि सिनेमा समाज का आईना होता है और जो समाज में घटता है वह किसी न किसी रूप में हमें सिनेमा में देखने के लिए मिलता है। लेकिन 7 नवंबर 1928 को इस आईने में जातिवाद का घिनौना चेहरा दिखाई दिया। तमिलनाडु के कैपिटल थिएटर में पी.के. रोज़ी की फिल्म का प्रीमियर होना था। लेकिन फिल्म रिलीज होने से पहले ही आलोचनाओं से घिर गयी। ब्राह्मणवादियों में यह जानते ही रोष पैदा हो गया कि ऊंची जाति की लड़की का किरदार एक दलित लड़की कैसे कर सकती है। इसके बाद थिएटर में और पी. के. रोज़ी के साथ जो हुआ वो वाक्या आपके बदन में भी सिहरन पैदा कर देगा।

कौन थी पी. के रोज़ी :

सर्च इंजन गूगल पर पीके रोज़ी की एक तस्वीर के अलावा कोई भी जानकारी मौजूद नहीं है। इसलिए उनकी निजी जिंदगी की जानकारी दैनिक भास्कर के हवाले से दे रहे हैं। साल 1903 जब भारत में अंग्रेजों की गुलामी के साथ- साथ जातिवाद, छुआछूत और जातिभेद भी था। उस वक्त तिरुवतंपुरम के नंदकोड़े में एक गरीब परिवार में पी.के राजम्मा का जन्म होता है। उनके परिवार में माँ, बाप और एक छोटी बहन थी। छोटी उम्र में ही पिता का साया सिर से उठ गया और रोज़ी को बचपन में ही कमाने के लिए घर से निकलना पड़ा। घास काट कर घर का गुजारा होता। 1920 में परिवार को सहारा मिला और राजम्मा के चाचा उन्हें अपने साथ ले गए।

1920 का दशक दक्षिण भारत में ईसाई धर्म के फैलाव का था इसी दौरान राजम्मा की माँ ने LMS चर्च के पादरी से दूसरी शादी कर ली। सौतेले पिता ने राजम्मा को ईसाई धर्म स्वीकार करवा दिया। लेकिन रोज़ी माँ के साथ नहीं गयी उन्होंने दादाजी के साथ रहना ही उचित समझा।

छोटी जाति की लड़कियों को ऊंचे सपने देखने का हक नहीं :

चंचल स्वभाव की रोज़ी को नाचने गाने का बड़ा शौक था लेकिन उस वक्त नाचना-गाना सिर्फ दो ही तरह के लोगों को शोभा देता था एक ऊंचे घराने के लोगों को और दूसरा तवायफों को। और रोज़ी इन दोनों में से कोई नहीं थी। इसलिए उसके इस शौक को अच्छा नहीं माना गया। दादाजी ने रोज़ी के नाचने गाने का खूब विरोध किया। लेकिन उसकी लगन देखकर चाचा ने उसे आर्ट स्कूल में भर्ती करवा दिया। रोज़ी ने यहाँ कक्काराशी फोक डांस सीखा।

यह एक ऐसी कला है जिसमें शिव-पार्वती के धरती पर आने की कहानी को डांस और गाने के ज़रिए दिखाया जाता है। दादाजी अब रोज़ी से और नाराज़ हो गए और उन्होंने रोज़ी को स्कूल जाने से रोका लेकिन रोज़ी नहीं रूकी। उसने अब एक ड्रामा कंपनी भी जॉइन कर ली थी। समाज को अब ये नागवार गुज़रा, इस पर आपत्ति जताई गयी और हार कर दादाजी ने रोज़ी को घर से निकाल दिया। रोज़ी को ड्रामा कंपनी के लोगों के साथ ही रहने को मजबूर होना पड़ा।

राजम्मा से रोज़ी बनने की यह थी कहानी :

समाज और परिवार की परवाह नहीं करने वाली अपने सपनों को अहमियत देने वाली राजम्मा को रोज़ी नाम कैसे मिला इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है। केरल के मशहूर फिल्म मेकर जे.सी. डेनियल अपनी फिल्म ‘विगथकुमारन’ बना रहे थे। फिल्म के लिए मुंबई से मिस लाला को फिल्म की हीरोइन बनाने के लिए बुलाया गया। लेकिन अपने हिसाब से रहन-सहन के इंतज़ाम ना पाकर मिस लाला ने फिल्म छोड़ दी। जे. सी. डेनियल को अब फिल्म के लिए एक नयी हीरोइन की तलाश थी। डेनियल के दोस्त जॉनसन ने डेनियल के सामने राजम्मा को लाकर खड़ा कर दिया। डेनियल की मजबूरी थी इसलिए उन्होंने राजम्मा को हीरोइन बना लिया लेकिन डेनियल राजम्मा के नाम को लेकर आश्वस्त नहीं थे। वह चाहते थे कि फिल्म की हीरोइन का नाम मिल लाला जैसा हो इसलिए उन्होंने पी.के.राजम्मा को बना दिया पी.के रोज़ी।

हीरोइन बनी लेकिन छुआछूत का करना पड़ा सामना :

रोज़ी को फिल्म के लिए रोज 5 रुपए दिए जाते। 10 दिन तक चली शूटिंग में रोज़ी को पूरे 50 रुपए मिले। लेकिन शूटिंग के दौरान सेट पर छुआछूत से रोज़ी बच ना सकीं। उन्हें सेट पर कोई भी चीज छूने की मनाही थी। यहाँ तक की सेट पर बाकियो के लिए जो खाना आता था रोज़ी को वो भी खाने के लिए नहीं मिलता। रोज़ी अपना खाना घर से लेकर आती और अकेले बैठकर खाती। अखबारों में जब यह खबर छपी की जे.सी डेनियल की फिल्म की हिरोइन एक दलित लड़की पी.के. रोज़ी है और जो फिल्म में एक ऊंची जाति की लड़की का किरदार निभा रही है। जातिवादियों को ये रास नहीं आया। लेकिन 10 दिन के भीतर फिल्म बनकर तैयार हो गयी।

दलित लड़की के साथ बैठ कर फिल्म नहीं देखेंगे :

फिल्म बनकर तैयार थी उसका प्रीमियर होने वाला था। डेनियल ने अभिनेत्री रोज़ी को इस प्रीमियर शो के लिए आमंत्रित नहीं किया था। मुख्य अतिथि गोविंद पिल्लई थे जो कि पेशे से एक प्रसिद्ध वकील थे और फिल्म का इनॉग्रेशन करने वाले थे। पर इस सबसे अनजान रोज़ी, एक मित्र के साथ ये शो देखने पहुंच गईं। रोज़ी को देखते ही गोविंद पिल्लई ने नाराजगी जताते हुए कहा कि जब तक रोज़ी वहां रहेगी वह इनॉग्रेशन नहीं करेंगे।

वह एक दलित लड़की के साथ बैठ कर फिल्म नहीं देखेंगे. डेनियल ने रोज़ी से आग्रह किया कि वो बाहर चली जाए और अगला शो देखने थिएटर में वापस आए। रोज़ी मान गईं और थिएटर से चली गई। अपनी ही फिल्म को देखने के लिए रोज़ी बाहर खड़ी होकर इंतज़ार करती रही।

प्रीमियर पर जो हुआ वो पी.के रोज़ी भुला नहीं पाई :

जैसे तैसे इनॉग्रेशन हुआ और फिल्म का प्रीमियर शुरू हुआ। लेकिन फिल्म में दलित लड़की के होने पर गुस्साए लोग वो सीन देखकर और आग बबूला हो गए जिसमें उच्च जाति का हीरो दलित हीरोइन के बालों में लगा फूल चूम रहा था। बस फिर क्या था इस एक सीन ने उन लोगों के मन में लगी आग में घी डालने का काम किया और उच्च जाति के दर्शकों ने थिएटर की स्क्रीन तोड़ना शुरू कर दिया। थिएटर को आग के हवाले कर दिया गया।

इतना ही नहीं भीड़ रोज़ी के घर तक भी पहुंच गई और उसके घर पर भी पत्थरबाजी की गई। लोगो ने रोज़ी के घर को आग लगा दी। इसके बाद 25 साल की रोज़ी ने कभी कोई फिल्म नहीं की क्योंकि अपनी पहली फिल्म के किरदार के चलते उन्हें अपना सब कुछ गवाना पड़ा। रोज़ी ने अपना घर छोड़ दिया। सिनेमा की दुनिया से गायब हो गईं। पी.के रोज़ी को दलित होने की एक भारी कीमत चुकानी पड़ी. सिनेमा में नायिका के बिना नायक अधूरा होता है लेकिन इस घटना ने सिनेमा में किरदारों की भी जातियां तय कर दी थी। इस जातिवादी मानसिकता ने कला के बदले कलाकार की जाति को महत्व देना ज्यादा जरूरी समझा था।

गुमनाम हो गयी पहली दलित नायिका :

थिएटर और रोज़ी के घर में लगी आग ने सब कुछ राख कर दिया था। रोज़ी का सपना भी और उसकी पहचान भी। रोज़ी को शहर छोड़कर भागना पड़ा। रोज़ी ने जिस बस ड्राइवर केसावा से मदद मांगी वो उंची जाति का था। केसावा रोज़ी को तमिलनाडु के नागरकोइल ले आया। दोनों ने शादी कर ली। केसावा के परिवार ने दलित बहु को अपनाने से मना कर दिया। केसावा और रोज़ी ने अपनी अलग जिंदगी शुरू की।

दोनों की दो बेटियां हुई लेकिन रोज़ी ने कभी अपना इतिहास नहीं बताया। ये भी नहीं की मलयाली की पहली फीचर फिल्म “विगताकुमारत” की वो पहली दलित हीरोइन थी। शादी के बाद रोज़ी, राजम्मा पिल्लई बन गयी और गुमनामी में जिंदगी बिताने लगी। उनकी सिर्फ एक तस्वीर के अलावा गूगल पर ज्यादा जानकारी मौजूद नहीं है। 2023 में जब गूगल ने उनका डूडल बनाया तो एक बार फिर भारत में फिल्म, दलित हीरोइन रोज़ी और जातिवाद पर चर्चा शुरू हुई।

कुछ मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि दलित लड़की को फिल्म में नायिका के तौर पर प्रदर्शित करने का खामियाजा जे.सी.डेनियल को भी उठाना पड़ा। अपनी जमीन बेचकर जो फिल्म बनाई थी उसके प्रीमियर पर थिएटर जला दिए गए। इसके बाद कर्ज़ में डूबे जे.सी. डेनियल ने कोई फिल्म नहीं बनाई और अपनी पूरी जिंदगी डेंटिस्ट बनकर काटी।

(Dalit Times)

अगला बेरोजगार कहीं मैं तो नहीं’ भारत का हर चौथा युवा क्यों सोच रहा ये बात, अलीगढ़ के ‘ITI चायवाले’ के उदाहरण से समझें

April 02, 2024 | By Sushma Tomar
अगला बेरोजगार कहीं मैं तो नहीं’ भारत का हर चौथा युवा क्यों सोच रहा ये बात, अलीगढ़ के ‘ITI चायवाले’ के उदाहरण से समझें

हकीकत और विज्ञापन में बहुत अंतर होता है। दिखाया कुछ जाता है और हकीकत कुछ अलग होती है। देश- प्रदेश में युवाओं के लिए रोजगार का संकट है। सरकार को युवाओं की तरफ़ ध्यान देना चाहिए… सुषमा तोमर की रिपोर्ट

Unemployment in India : भारत भले ही वैश्विक स्तर पर 5 ट्रिलियन इकोनॉमी का डंका बजा रहा है, लेकिन असल हालात ये है कि देश में लगातार बढ़ रही युवाओं की आबादी  बेरोजगार घूम रही हैं।ऊपर से पीएम मोदी की ये बात की भले ही “चाय और पकौड़े बेचो, लेकिन खुद का व्यापार करो” उन बेरोजगारों के सीने पर मूंग दल रही है, क्योंकि शिक्षित होने में अपने माँ-बाप की जितनी कमाई उन्होंने स्कूलों में जमा करवाई थी उसे कमाने के लिए जिस नौकरी का सहारा था वो उन्हें मिल ही नहीं रही।

उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में एक ऐसे ही बेरोज़गारी से परेशान युवा का दर्द सामने आया है, हालांकि अब चाय की दुकान लगाकर वो अपने घर का खर्चा चला रहा है, लेकिन बेरोजगारी के कारण जितनी तकलीफें उन्हें झेलनी पड़ी वो कहानी सभी तक पहुंचनी चाहिए।

2020 में सादाबाद से ITI इलेक्ट्रिशियन की डिग्री लेने के बाद अलीगढ़ के दीपक को लगा कि परिवार की सभी मुश्किलें खत्म हो जाएंगी। वह नौकरी करेगा और परिवार का भरण पोषण करेगा, लेकिन ITI की डिग्री लेने के बाद भी 9 से 10 हज़ार रुपए महीने की नौकरी में घर का गुज़ारा करना मुश्किल हो जाता। दीपक ने हिम्मत दिखाई और सबसे कम पूंजी वाला, चाय का धंधा शुरू किया। अलीगढ़ में कलेक्ट्रेट ऑफिस के सामने अपनी ITI चाय वाले की दुकान लगा ली।

दीपक ने अपनी उतार-चढ़ाव की ज़िंदगी का अनुभव लेते हुए वर्तमान भारत सरकार पर तंज किया। उन्होंने कहा, “हकीकत और विज्ञापन में बहुत अंतर होता है। दिखाया कुछ जाता है और हकीकत कुछ अलग होती है। देश- प्रदेश में युवाओं के लिए रोजगार का संकट है। सरकार को युवाओं की तरफ़ ध्यान देना चाहिए।” सरकार को चाहिए की वो ज़्यादा से ज़्यादा नौकरियों का सृजन करें।

आकर्षित करता है ITI चाय वाला :

ज़रूरी नहीं कि चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री ही बने, देश में बेरोजगारी का दौर ऐसा है कि कंपनियों में काम करने वाली उम्र का हर 5वां युवा चाय या समोसे बेच रहा है। अलीगढ़ के इस “ITI चाय वाला” के पोस्टर को देख कर लोग खिंचे चले आते हैं। और दीपक के हाथ से बनी चाय की चुस्कियां लेते हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक दीपक की चाय पीने आए लोगों ने बताया कि ITI चाय वाला नाम आकर्षित करता है। साथ ही उसकी चाय की भी जमकर तारीफ़ की। बहरहाल, दीपक की चाय की बिक्री से ठीक ठाक आमदनी आ रही है और उसके घर का गुज़ारा भत्ता चल रहा है।

69 हज़ार लोग नौकरी के लिए लगातार दे रहे धरना :

लेकिन उत्तर प्रदेश में बीते 5 सालों से 69 हज़ार शिक्षक अपनी नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। 69 हज़ार शिक्षक भर्ती में आरक्षण का घोटाला किया गया जिसकी वजह से हज़ारों की संख्या में दलित और पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को नौकरी से महरूम होना पड़ा। यह लोग लगातार 5 सालों से न्याय के लिए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहें हैं। मुख्यमंत्री आवास से लेकर शिक्षा मंत्री तक के दरवाजे खटखटाते हैं। लेकिन उनकी समस्या का समाधान न तो अभी तक हुआ है और न ही उन्हें नियुक्ति पत्र दिए गए हैं।

बेरोजगार युवा आत्महत्या को मजबूर :

अब उत्तर प्रदेश के दो ऐसे मामले सुनिए जो आपको सोचने पर विवश कर देंगे। पहला मामला उत्तर प्रदेश के कन्नौज का है। जहाँ पुलिस भर्ती की परीक्षा का पेपर लीक होने के बाद एक युवक ने अपनी डिग्रियों को आग लगाकर खुद आत्महत्या कर ली। युवक ने एक सुसाइड नोट में लिखा कि, “ऐसी डिग्री होने का क्या फायदा जो एक नौकरी तक ना दिला सके।” वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद की एक युवती ने बेरोज़गारी के कारण फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। उसने भी यूपी पुलिस भर्ती परीक्षा दी थी लेकिन पेपर लीक होने के बाद परीक्षा रद्द होने के बाद वो डिप्रेशन में थी। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक युवती काफी समय से नौकरी के लिए प्रयास कर रही थी।

भारत में क्या है बेरोजगारी दर :

भारत में बीते तीन सालों की बेरोजगारी दर देखी जाए तो साल 2021 में 4.2 प्रतिशत, साल 2022 में 3.6 प्रतिशतऔर साल 2023 में 3.1 प्रतिशत बेरोजगारी दर थी। यह आंकड़े आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण [Periodic Labour Force Survey (PLFS)] के है। फोर्ब्स इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2024 में भारत की बेरोजगारी दर 6.57 है। हालांकि बीते तीन सालों की ये दरें लगातार  घट रही है, यानी बेरोज़गारी दर पहले से सुधरी है लेकिन सिर्फ इन आंकड़ों से मान लेना की रोजगार को लेकर भारत के हालात ठीक हैं, इस नतीजे पर पहुंचना सही नहीं होगा।

आइए एक नज़र भारत की साक्षरता दर पर डालते हैं। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार पिछली जनगणना (2011) की तुलना में भारत में साक्षरता दर 2023 में 5% बढ़कर 77.7% हो गई है। इसमें केरल 96.2% साक्षरता दर के साथ सबसे आगे है। वहीं यूनेस्को की एक रिपोर्ट कहती है कि आने वाले साल 2060 में भारत सार्वभौमिक साक्षरता हासिल कर लेगा। लगातार बढ़ती जनसंख्या और उनमें भी युवाओं की भागीदारी और लगातार बेरोजगारी के कारण आत्महत्या करते युवाओं का आंकड़ा उससे कहीं ज्यादा है। इस समय भारत में हर चौथे युवा का एक ही सवाल है कि अगला बेरोजगार कहीं मैं तो नहीं..?

(Dalit times)