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बीस जनवरी को ट्रंप की अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ के अवसर पर: मोदी + ट्रम्प जुगलबंदी : आओ, निर्वाचित एकतंत्र एकतंत्र खेलें!

January 20, 2025 | By Ramsharan Joshi
बीस जनवरी को ट्रंप की अमेरिका के राष्ट्रपति पद की शपथ के अवसर पर: मोदी + ट्रम्प जुगलबंदी : आओ, निर्वाचित एकतंत्र एकतंत्र  खेलें!

“लोकतंत्र के संबंध में जनता की अवधारणा और बुद्धिजीवियों की   अवधारण के मध्य गहरा विभाजन रहता आया  है. यह विभाजन  निर्वाचित एकतंत्रवादियों और  अधिनायकवादियों के चाल, चरित्र और चेहरे में प्रतिबिंबित होता रहता है।“ 

“सड़कों पर टैंक नहीं होते हैं. संविधान और मनोनीत लोकतान्त्रिक संस्थाएं अपने अपने स्थानों पर नाममात्र के लिए  ज़िंदा रहती हैं. लोग फिर भी वोट देते हैं. निर्वाचित निरंकुशवादी लोकतंत्र का मुखौटा पहने रखते हैं, जबकी वे  इसके मूल पदार्थ को निष्कासित करते रहते हैं.” ( स्टीवन लेवित्स्की +डेनियल जिब्लत्त – लोकतंत्र की मृत्यु कैसे होती है; पृ.5 )

विश्व के लोकतंत्र के इतिहास में वर्ष 2024 को  ‘ निर्वाचित अधिनायकवाद’ के उभार और ‘उदार लोकतंत्र’ के हाशियाकरण के रूप दर्ज़ किया जायेगा. यह भी विचित्र संयोग है कि विश्व में  लोकतंत्र की जन्मभूमि  माने जाने वाले भारत, और विकसित राष्ट्रों के  सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश के रूप में  विख्यात अमेरिका, दोनों ही देशों में इसी वर्ष   लोकमत पर सवार होकर अधिनायकवादी शासक  राजसत्ता  पर क़ाबिज़ हुए; एक. जून में नरेंद्र दामोदरदास मोदी;दो. नवंबर में डोनाल्ड जॉन ट्रम्प. दोनों ही शासक ( प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति ) चरम दक्षिणपंथी विचारधारा के पोषक व वाहक हैं; मुक्त अर्थव्यवस्था व कॉर्पोरेट पूंजीवाद के समर्थक; अंधराष्ट्रवाद, राज्य  वैभववाद, चयनित जातीय व वर्गीय श्रेष्ठता व उत्कर्ष -समर्थक व संरक्षक और सामाजिक -सांस्कृतिक वैषम्य व विषमता के पालक हैं. दोनों ही प्रत्यक्ष -परोक्ष रूप से अल्पसंख्यकों को नापसंद करते हैं और घुसपैठियों को अपने अपने देशों से खदेड़ना चाहते हैं. दोनों ही प्रशासनिक तंत्र के संचालकों ( नौकरशाही)को निजी व् दलीय वफ़ादारी के सांचे में ढालना चाहते हैं.    मोदी और ट्रम्प, दोनों को ही निरंकुश राजसत्ता रास आती है. दोनों ही खिलंदड़ी शैली में शासन या संवैधानिक व्यवस्था के संचालन करने में विश्वास रखते हैं.

जून, ‘24 में मोदी की तीसरी दफ़ा लगातार  वापसी और ट्रम्प की  चार वर्षीय अंतराल के बाद नम्बर,’24 में पुनर्वापसी ( अंतराल  2020 -24) निश्चित ही विलक्षण लोकतांत्रिक घटना है. भारत में आम धारण  थी कि नरेंद्र मोदी की सत्ता हैट ट्रिक  केक वाक-सी नहीं रहेगी। उनकी सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी लोकसभा के चुनावों में पराजित भी हो सकती है, लोकसभा त्रिशंकु हो सकती है. बेशक, भाजपा लड़खड़ाई और 303 सीटों का बहुमत खो कर 240 सीटों पर आ टिकी। लेकिन, मोदी जी अपने दो सहयोगी दलों -तेलुगु देसम और जनता दल ( यूनाइटेड ) के सहयोग से  सत्ता में वापसी कर सके. राजनैतिक यथार्थ तो यही है कि वे  सफलतापूर्वक तीसरी बार  भारत के प्रधानमंत्री बने हैं. निःसंदेह, मोदी की हैट ट्रिक को  सामाजिक -सांस्कृतिक- धार्मिक मूल्यों की दृष्टि से मध्ययुगीनता के उपासक संघ परिवार के  लिए  ऐतिहासिक उपलब्धि  ही कहा जायेगा। 2014 से  मोदी- नेतृत्व  में शुरू होने वाली संघ परिवार की सत्ता यात्रा भव्य व गौरवपूर्ण रही है. निश्चित ही इस यात्रा ने 2025 से  आरम्भ होनेवाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के’ शताब्दी- स्थापना वर्ष’ के लिए ठोस ज़मीन तैयार कर दी है. अब भव्यता के साथ  शताब्दी स्थापना -आयोजन मना सकता है. वैसे,फिलवक्त संघ इसे मनाने के प्रति उत्सुक दिखाई नहीं दे रहा है. लेकिन, महाराष्ट्र में भाजपा की अभूतपूर्व विजय के पश्चात् वह अपनी उदासीनता पर पुनर्विचार भी कर सकता है.

अब डोनाल्ड ट्रम्प की बात कर ली जाए. 2024 -28 के लिए निर्वाचित ट्रम्प के संबंध में इस पत्रकार ने लिखा था कि अमेरिकी जनता उन्हें कतई पसंद नहीं करती है. वे भविष्य में फिरसे राष्ट्रपति नहीं बनेंगे। इस मत का आधार था लेखक की अमेरिकी यात्रा. 2022 में लेखक बोस्टन, शिकागो , केन्टचुकी आदि शहरों की निजी पर  यात्रा था. यात्रा के दौरान विभिन्न वर्ग के लोगों के साथ संपर्क हुआ और ट्रम्प के भविष्य को लेकर चर्चा हुई. इसकी वज़ह यह थी कि विभिन्न प्रकरणों में  ट्रम्प के विरुद्ध अदालती कार्रवाई शुरू होने लगी थी. उन पर सबसे बड़ा संगीन आरोप यह था कि उन्होंने  2020 के चुनावों में पराजय के बाद अपनी हार को स्वीकार नहीं किया था, बल्कि अपने समर्थकों को वाशिंगटन स्थित संसद भवन पर चढ़ाई के लिए उकसाया था. चढ़ाई से पहले समर्थक राष्ट्रपति निवास -वाइट हाउस पर एकत्रित हुए थे. ट्रम्प ने उन्हें सम्बोधित किया था. इसके बाद सैंकड़ों लोगों ने कैपिटल हिल स्थित संसद भवन या कांग्रेस भवन पर धावा बोल दिया था. तत्कालीन उपराष्ट्रपति माइक पेन्स भी भवन में थे. बामुश्किल वे अपनी जान बचा कर भवन से बाहर निकल सके. सुरक्षा गार्डों के साथ मुठभेड़ में हिंसा भी हुई थी. यह मुक़दमा अभी तक चल रहा है.

इसके अलावा कई और यौन व आर्थिक अपराधों को लेकर भी अदालतों में कानूनी कार्रवाई जारी है. पिछले महीनों में ट्रम्प को अदालतों में कई बार हाज़िर भी होना पड़ा था. सज़ा भी हो चुकी है. दूसरी तरफ़  डोनाल्ड ट्रम्प ताल ठोक कर ऐलान कर रहे थे- मैं फिर चुनाव लडूंगा, वापस लौटूंगा। लोगों का कहना था कि पूर्व राष्ट्रपति कुछ भी कहते रहें, लेकिन वे फिरसे राष्ट्रपति नहीं बनेंगे। उन्होंने संसद पर हमला करवा करके अमेरिकी लोकतंत्र को बदनाम किया है. उनमें लोकतान्त्रिक शिष्टता नहीं है. वे विवादास्पद चरित्र के व्यक्ति हैं.  2022 में समयांतर के  विभिन्न अंकों में प्रकाशित लेखक की अमेरिकी यात्रा में इन लोगों की प्रतिक्रियाओं का उल्लेख है.

आम लोगों की  प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं की पृष्ठभूमि में ट्रम्प की  धमाकेदार सत्ता -वापसी  निःसंदेह  ऐतिहासिक है. इससे पहले 19 वीं सदी में  डेमोक्रेट पार्टी के   ग्रोवर क्लीवलैंड पहले राष्ट्रपति थे जो 4 वर्ष के अंतराल के बाद दो बार 22 वें और 24 वें राष्ट्रपति चुने गए थे. गृहयुद्ध के बाद उन्होंने 1885 में देश की कमान सम्हाली ( 1885-89 )  थी. इसके बाद दूसरी बार 1893 -1897 की राष्ट्रपति -पारी खेली।  1897 के करीब  सवा सौ साल के पश्चात् रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रम्प पहले व्यक्ति हैं जो इस पद  पर 4 वर्षीय अंतराल के बाद निर्वाचित हुए हैं और ‘28 तक बेधड़क राज करते रहेंगे. अलबत्ता, नरेंद्र मोदी 2029 तक लुटियन दिल्ली के साउथ ब्लॉक ( प्रधानमंत्री कार्यालय ) में जमें रहेंगे. अमेरिका के राजनीतिक  शास्त्रियों और इतिहासकारों ने ट्रम्प को आरम्भ ( 2016 ) से ही विवादास्पद और शिखर पद के लिए वांछित पात्रता विहीन माना है. आज भी अमेरिकी समाज का बौद्धिक वर्ग डोनाल्ड ट्रम्प को लोकतांत्रिक नहीं मानता है. उन्हें  हठधर्मी, स्वार्थी, अशिष्ट, अनैतिक और यौन प्रेमी समझता है. यह भी संयोग ही था कि इस वर्ष भी यह लेखक

एक महीने के लिए बोस्टन में था. एक माह के पड़ाव के दौरान लेखक ने अकादमिक क्षेत्रों और अन्य व्यवसाय से जुड़े व्यक्तियों के साथ चर्चा में  उन्हें ट्रम्प -विरोधी ही पाया था. लेकिन, इक्के-दुक्के ऐसे भी थे जो मान कर चल रहे थे कि डोनाल्ड ट्रम्प फिरसे वाइट हाउस में लौटेंगे. डेमोक्रेट उम्मीदवार कमला हैरिस का जीतना आसान नहीं है. लेखक की बेटी डॉ. मनस्विता जोशी , जोकि प्रसिद्ध हार्वर्ड  यूनिवर्सिटी से संबद्ध है, का स्पष्ट मत था, ‘ पापा, कमला हैर्रिस का जीतना मुश्किल है.. इतने  भौतिक विकास के बावजूद, अमेरिकी समाज आंतरिक रूप   से मूलतः पुरुष व नस्लवादी है. ट्रम्प को हराना आसान नहीं है. आपने देखा नहीं, 2016 में  हिलैरी क्लिंटन ट्रम्प से ही चुनाव हारी थीं. आज भी उनका   मुक़ाबला भारत वंशी महिला से ही है. लगता नहीं है कि अमेरिका का पुरुष समाज कमला को जीतते देखना चाहेगा.!नवंबर के पहले सप्ताह में चुनाव परिणामों से यह विचार  सिद्ध भी हो गया कि श्वेत अमेरिकी समाज की भीतरी परतें अब भी यथास्थितिवादी हैं, जिसमें संगीन अपराधों के बावजूद,ट्रंप जैसे पुरुष नेता ही सत्ता के शिखर पर ताण्डव कर सकते हैं।

फिलहाल ट्रंप की सजाएं और अन्य मामले रद्द नहीं हुए हैं, ठंडे बस्ते के हवाले किये जा सकते हैं। वज़ह, रिपब्लिकन पार्टी का संसद के दोनों सदनों में बहुमत है; महाभियोग की संभावना कम है; राष्ट्रपति काल की समाप्ति के बाद ट्रंप को अदालतों में पेश होना पड़ सकता है; ट्रंप अपने अधिकारों का प्रयोग कर प्रकरणों को रद्द करने की कोशिश भी कर सकते हैं।अभी वे मनोनीत राष्ट्रपति हैं और अगले वर्ष जनवरी में पद की विधिवत शपथ लेंगे। संभावना यह भी है कि दिसंबर में उनके विरुद्ध कार्रवाई की जाए। लेकिन, अमेरिकी समाज का ध्रुवीकरण हो चुका है। वह ट्रंप समर्थक और विरोधियों में बुरी तरह से विभाजित हो गया है। भारत में भी मोदी की यही स्थिति है। अतः ऐसी स्थिति में ट्रंप के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई अपने तार्किक मुकाम तक पहुंचेगी, इसकी संभावना नहीं के बराबर है।

पिछले दिनों  इस लेखक ने अमेरिकी समाज से संबंधित दो पुस्तकें पढ़ीं थीं -. स्टेफेन बट्स की ‘गोड्स ओन कंट्री’ और नैंसी इसेनबर्ग की ‘वाइट ट्रैश’. इन दोनों को पढ़ने से एक ही मत बना कि सतह पर  डोनाल्ड ट्रम्प की जीत चमत्कारिक लग सकती है. लेकिन, समाज के विभिन्न समुदायों के चरित्र को बारीकी से समझने पर ट्रम्प -विजय एक स्वाभाविक परिणाम प्रतीत होगी; चरम भौतिक तरक़्क़ी और चांद पर चहल क़दमी के बावज़ूद अमेरिकी समाज का बड़ा हिस्सा डार्विन के वैज्ञानिक  विकासवादी सिद्धांत का धुर विरोधी, और  ईश्वर की रचना विचारधारा एँव  इंटेलीजेंट डिज़ाइन में  दृढ़ आस्था रखता है. यहां तक मानता है कि ईश्वर की मर्ज़ी से ही  अमेरिका में बड़ी बड़ी प्राकृतिक आपदाएं आती हैं. हास्यास्पद मनोदशा तो यह है कि ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो आज भी यह मानते हैं कि   2001 में   न्यूयॉर्क के दो टॉवरों और अन्य स्थानों पर चार विमानों से आतंकी हमला भी ईश्वर की मर्ज़ी से ही हुआ था. ईश्वर अमेरिका को सबक़ सीखना चाहता था. यह भी मन जाता है कि धर्मनिरपेक्ष मानवता, बहुलतावाद,सहिषुणता, साम्यवादी, मानवतावादी जैसे तत्व ‘अमेरिकी समाज के अदृश्य  शत्रु’ हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति भी पादरियों का  अपने वाइट हाउस स्वागत सत्कार करते रहते आएं हैं. स्वयं राष्ट्रपति बुश जूनियर ने क्राइस्ट का नाम लेकर अफ़ग़ानिस्तान व इराक़ पर चढ़ाई की थी. बुश मानते रहे हैं कि वे मिशन पर हैं और ईश्वर के आदेश का पालन कर रहे हैं. क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं को ‘नॉन-बायोलॉजिकल’ नहीं मानते हैं? उनकी भी आस्था है कि वे  ईश्वर के मिशन पर हैं. और अब तो भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि उन्होंने बाबरी मस्ज़िद व रामजन्म भूमि विवाद में ईश्वर से मार्ग दिखाने की प्रार्थना की थी. आस्था के इस परिप्रेक्ष्य में मोदी+ ट्रम्प जोड़ी की सत्ता वापसी एक ‘स्वाभाविक परिघटना’ प्रतीत होगी। इसका यह अर्थ हुआ कि  उत्पादन पद्धति व साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन के बावज़ूद समाज की आंतरिक संरचना   प्रतिगामी बनी हुई है! भारत की स्थिति भी इससे भिन्न कहां है? हिंदुत्व के ज्वार पर सवार हो कर चुनाव जीत लिए जाते हैं।  क्या  ‘ बटोगे तो कटोगे, एक रहोगे तो सेफ रहोगे’ जैसे नारे के निशाने पर कौनसा धार्मिक समुदाय है, यह सर्वविदित है. क्या ऐसे नारों से लोकतांत्रिक शासन स्वस्थ व प्रभावशाली ढंग से चल सकेगा? ट्रम्प- विजय से उदारवादी लोकतंत्र का अवसान दिखाई दे रहा है. निश्चित, भारत सहित अन्य देशों की  लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा। धुर दक्षिण पंथी ताक़तें ही मज़बूत होंगी।

ट्रंप ने अपनी टीम बनाकर संकेत दे दिए हैं कि वे ’अमेरिका प्रथम और महान’ की विचारधारा से काम लेंगे; अवैध आप्रवासियों को सेना की मदद से खदेड़ कर रहेंगे; टैरिफ बढ़ाएंगे; मुख्य प्रतिद्वंदी चीन उनके निशाने पर रहेगा; इसराइल को समर्थन जारी रहेगा और ईरान के साथ कोई नरमी बरती नहीं जाएगी; क्लाइमेट चेंज पर रुख यथावत रहेगा; कॉर्पोरेट कंपनियों और सुपर रिच पर टैक्स घटेगा व गन पालिसी यथावत रहेगी. सारांश में, ट्रंप शासन चरम दक्षिणपंथी मार्ग पर चलेगा।ट्रंप के पास धनकुबेर ऐलन मस्क है, तो मोदी को गौतम अदानी का छाता है।दोनों देशों के शिखर शासक राजनीतिक सत्ता और धन सत्ता के फौलादी गठबंधन से लैस हैं।

जहां तक मोदी+ ट्रंप यारी दोस्ती का सवाल है, उसमें आधारभूत गुणात्मक परिवर्तन होगा, इसकी संभावना कम है।क्योंकि, दोनों ही चरम दक्षिणपंथी हैं, मध्ययुगीन आस्थाओं व मूल्यों के समर्थक हैं। दोनों ही शासक निरंकुश शैली से शासन करना चाहते हैं। दोनों में बला कि ’पॉलिटिकल शोमैनशिप’ है। दोनों के साथ रूसी राष्ट्रपति पुतिन के संबंध अच्छे हैं। अमेरिका, भारत और चीन के बीच ’ कभी ठंडा कभी गर्म’ रिश्ते रहेंगे। यह भी हैरतअंगेज इत्तफाक है कि अमेरिका, भारत, रूस और चीन में अधिनायकवादी शासक( ट्रंप,मोदी,पुतिन और झी जिनपिंग) हैं। चारों शासक उदार लोकतंत्र व मज़बूत प्रतिपक्ष के शत्रु हैं और गोदी मीडिया के प्रेमी हैं। ट्रंप पाकिस्तान समर्थक नहीं हैं, इसलिए उनकी प्रधानमंत्री मोदी के साथ  अच्छी पटेगी। अमेरिका में भारतवंशी गुजराती समुदाय ट्रंप का कट्टर समर्थक है। यही समुदाय मोदी का भी है। दोनों शासकों के मध्य यह समुदाय  टिकाऊ सेतु की भूमिका भी निभाएगा।फिरभी, दोनों देशों के बीच दो तीन नाज़ुक मामले हैं, जिन्हें लेकर मोदी और ट्रंप के बीच खींचतान बनी रह सकती है। मसलन, अमेरिकी अदालत द्वारा जारी कॉरपोरेटपति गौतम अदाणी के विरुद्ध अरेस्ट वॉरंट, खालिस्तानियों के विरुद्ध कार्रवाई, भारतीय माल पर संभावित टैरिफ वृद्धि,अमेरिकी मुद्रा डॉलर के समकक्ष ब्रिक्स देशों की संभावित मुद्रा को रखना, ईरान के साथ भारत के संबंध, अमेरिका में भारत के अवैध प्रवासियों का निष्कासन,  भारतीय विद्यार्थियों को जॉब वीज़ा, सुरक्षा परिषद का लोकतांत्रीकरण आदि हैं।फिरभी, लेखक के मत में भारत अमेरिका का विश्वास पात्र देश बना रहेगा. ट्रम्प और मोदी  की दोस्ती पक्की है. इसमें दरार की सम्भावना कम है. दोनों ही  परस्परपूरक हितों से  आबद्ध हैं.

और अंत में.  निवर्तमान उपराष्ट्रपति कमला हैर्रिस का कथन है कि उन्होंने चुनाव हारा है, लड़ाई नहीं. संघर्ष जारी है. लेखक की दृष्टि में, वे  अगली 2028 की लड़ाई के लिए स्वयं को तैयार कर रही हैं, इसकी सम्भावना बानी हुई है.

ट्रम्प लोकप्रियता के वाहक: श्वेत कचरा, मिट्टी खोर, रेड नैक….!

October 06, 2024 | By Ramsharan Joshi
ट्रम्प लोकप्रियता के वाहक:  श्वेत कचरा, मिट्टी खोर, रेड नैक….!

“अमेरिकियों ने लोकतंत्र  के शिष्टाचार का ही स्वाद चखा है जोकि वास्तविक लोकतंत्र से बिलकुल भिन्न है. मतदाताओं ने धन-सम्पति में गहरी विषमताओं  को स्वीकार कर लिया है , और इस अपेक्षा के साथ कि  उनके द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि उनसे भिन्न नहीं निकलेंगे.”  नैंसी इसन्बर्ग ( वाइट ट्रैश, पृ.16 )

विश्व के सर्वश्रेष्ठ लोकतांत्रिक और विकसित  देश होने का  दंभ भरनेवाले अमेरिका में ऐसे भी मतदाता हैं जिन्हें आज़ भी ‘श्वेत कचरा, नमूना कचरा, मिट्टी खोर, आलसी, ज़ाहिल, लाल गर्दन, पीली चमड़ी, फालतू लोग, पहाड़ी भोंदू, पटाखा, कीचड़ घूरा, बक़वास, रेत छुपैया, पहाड़ी ‘ जैसे विकृत उपनामों से सम्बोधित किया जाता है! क्या आपको हैरत नहीं है?

ज़ी हां, यह  अमेरिकी या यांकी समाज की ऐसी कुरूप सच्चाई है, जिसे बड़े जतन के साथ ढक कर रखा जाता है. लेकिन, मतदाता- बाज़ार में इन उपनामों का शोर भी सोशल मीडिया और आपसी चर्चाओं में  सुनाई देने लगता है. जब से रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प की पंचम स्वर में चुनावी सभाएं होने लगी हैं, तब से इन  अपमानजनक सम्बोधनों  की चलन रफ़्तार भी बढ़ गई है.  टीवी स्क्रीन पर सभाओं को देखते ही सामान्य दर्शक बताने लगते हैं, ‘ जोशी जी, देखिये भीड़ में बैठे वे वाइट ट्रैश ( श्वेत कचरा ) हैं और ट्रम्प के कट्टर समर्थक भी हैं. ‘ अमेरिकी समाज में  मनुष्यों या मतदाताओं के ऐसे भी सम्बोधन  प्रचलित हैं? मैं हैरान हूँ!

मेरी अमेरिकी  आवाजाही रहती रही है. लेकिन, इस दफ़ा  इन अजीबो -ग़रीब सम्बोधनों ने मेरा ध्यान अपनी तरफ़ खासा  खैंचा है।  इनकी तह में जाने की कोशिश की. ये सम्बोधन अश्वेत ( भारतवंशी समेत ) समुदायों के लिए नहीं हैं, बल्कि इनका प्रयोग खांटी  श्वेत समुदाय के लोगों के लिए किया जाता है. इसका लम्बा इतिहास है. मगर, चुनाव के वक़्त ये उपनामधारी ज़रूर आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं।  जबसे ट्रम्प का अमेरिकी राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर उभार हुआ है तब से ये लोग लगातार चर्चा में रहते आये हैं. 2016 में ट्रम्प की पहली पारी की शुरुआत से इस और विशेष ध्यान जाने लगा है. बौद्धिक क्षेत्रों में बहसें होने लगी हैं. 2016 में प्रकाशित नैंसी इसन्बर्ग की पुस्तक ‘ white  trash ( श्वेत कचरा )’ की वजह से इस वर्ग के लोगों पर नये सिरे से बहस हो रही है। जाना जा रहा है कि ये लोग श्वेत और स्वतंत्र लोग हैं, फिर भी श्वेत समाज की मुख्यधारा में इन लोगों को सम्मान व गरिमा की दृष्टि से देखा नहीं जाता है। चुनाव के समय ही इनकी पूछ बढ़ जाती है। मतदान समाप्ति के बाद इन लोगों को वापस उनके अपमानजनक संबोधनों के साथ वापस हाशिए पर फेंक दिया जाता है।एक तरह से ये उपेक्षित, जहालतभरी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश अवैध धंधों को अपनाते हैं; माफिया, मादक वस्तुओं के तस्कर, यौन तस्कर, पेशेवर हत्यारे आदि बन जाते हैं। अमेरिका की अंडरग्राउंड लाईफ के स्वामी कहलाते हैं। समझा जाता है कि देश के 25 _ 30 शहरों में इनकी प्रभावी मौजूदगी है। अमेरिका के टॉप 10 शहरों में इनकी तूती बजती है, जिनमें शामिल हैं लिटिल रॉक, अल्कांसा, टोलीडो, दायतों ( ओहिओ), एबलाइन, वाको(टेक्सास), स्प्रिंगफील्ड,, नॉर्थ कैरोलिना, ओखोलोमा सिटी, लुसियाना, मोंटोगोमरी ( अलबामा)जैसे शहर हैं। इन शहरों ने अपने विशेषीकृत अपराधों के लिए कुख्याती अर्जित की है। इन शहरों को ट्रंप भक्तों के अड्डों के रूप में देखा जाता है। हैरत यह है कि ब्लैक समुदाय  के लोगों के लिए पहले से ही अशोभनीय संबोधन हैं, लेकिन अभिजन श्वेत वर्गों ने अपने ही श्वेत लोगों के लिए अपमानजनक संबोधनों को गढ़ रखा है।

ऐसे संबोधनो के संदर्भ मुझे भारत में हाशिए के लोगों के प्रति प्रयुक्त तिरस्कारपूर्ण संबोधनों की याद ताज़ा हो जाती है। भारत में भी हम लोग दलितों और आदिवासियों के लिए विकृत उपनामों का प्रयोग करते हैं;बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, तमिलनाडु जैसे राज्यों में वंचित समाज के लोगों के लिए असभ्य शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। उन्हें ’ बुड़बक, जाहिल, गंवार, निकम्मा, आलसी, लफंगा, कामचोर, ठग, पिंडारी, भंगी, चमार, छोटी जात, नीच, जंगली, हरामखोर, अछूत, लुटेरा’ आदि जैसे तिरस्कारपूर्ण शब्द से उन्हें संबोधित किया जाता है। राज्यवार इन संबोधानों में विभिन्नताएं रहती हैं। वंचित हिंदू वर्ग के नामों बिगाड़ दिया जाता है।निजी अनुभवों के आधार पर मैं ऐसा कह रहा हूं। दलितों को लेकर जातिसूचक संबोधन बेशुमार हैं।

अमेरिका में श्वेत कचरा की बसाहट दक्षिण प्रांतों में अधिक है। और ये लोग रिपब्लिकन पार्टी के परंपरागत समर्थक रहते आए हैं। इनमें अधिकांश स्कूल ड्रॉप आउट रहते हैं। इनमें उच्च शिक्षा की बेहद कमी है। इनकी जीवन शैली की विशिष्ट पहचान हैं:  _ खुरदुरापन, अशिष्टता, आक्रोशित चेहरा, भद्दी भाषा, भड़काऊ रंगढंग, काऊ बॉय, अंधविश्वासी, विगत जीवी, श्वेत श्रेष्ठता और वर्चस्वता का भ्रम,बुनियाद परस्ती, नस्लवाद, चरम राष्ट्रवाद , सैन्यवाद और अमेरिका महानवाद ।  वास्तव में विभिन्न प्रकार के काल्पनिक  भ्रमों में  श्वेत कचरा  समुदाय के लोग जीते रहते हैं. इन लोगों की दृष्टि में, अमेरिका महान के पतन के मुख्य अपराधी वे लोग हैं जो उदार लोकतंत्र, बहुलतावाद,रूढ़िवादी या निरंकुश लोकतंत्र विरोध  वैज्ञानिक चेतना, आप्रवासी समर्थन, गर्भपात समर्थन, गन संस्कृति के विरोधी, करवादी, कॉर्पोरेट पूंजी विरोधी,  मुस्लिम समर्थन , इजराइल विरोध, मध्य वर्ग समर्थन, श्वेत सर्व वर्चस्व विरोध, ओबामा केयर समर्थन जैसी प्रवृत्तियों के पक्षधर हैं.  इन प्रवृतियों का प्रतिनिधित्व  डेमोक्रेटिक पार्टी  करती है।   इस समय इन प्रवृत्तियों की पोषक और संरक्षक कमला हैरिस हैं. इसलिए, उनका विरोध किया जाना चाहिए। हैरिस के प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रम्प ने श्वेत कचरा समुदाय के लोगों में दो सौ वर्ष पुराने अमेरिकी  का वैभव जगा रखा है. ये लोग मानते हैं कि  उत्तरी  अमेरिका के लोगों ने ही ‘अश्वेत लोगों की गुलामी ‘ की प्रथा को समाप्त कर श्वेतों के वैभव पर कुठाराघात किया है.  गुलाम व्यापार और गुलाम प्रथा को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए था. इसलिए ये लोग अभी तक तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन से भी नफरत करते हैं क्योंकि उन्होंने ही नीग्रो या काले गुलामों को आज़ाद किया था. याद रहे, दक्षिण प्रान्त के व्यक्ति  ने ही वॉशिंगटन में लिंकन की अप्रैल,1865 में फोर्ड थिएटर में नाटक देखते समय हत्या कर दी थी. यह अलग बात है, आज भी बेशुमार लोग उस दीर्घा को देखने आते हैं जहां राष्ट्रपति लिंकन नाटक को  देख रहे थे. लम्बी लम्बी कतारें लगती हैं और थिएटर की दूसरी तरफ  राष्ट्रपति पर लिखी गईं  हज़ारों किताबों की नुमाईश है. यह लेखक का निजी अवलोकन है.    वंचित श्वेत समाज के  लोगों ने यह भ्रम पाल रखा है कि  ट्रम्प की जीत का अर्थ है विगत अमेरिका वैभव व महानता की पुनर्स्थापना।  इसलिए ट्रम्प अपने हर चुनावी भाषण में ‘ अमेरिका महान’ के नारे लगाते हैं. और इसके साथ ही कचरा समुदाय के लोगों में महानता का स्वप्न जगने लगता है. इसी नारे और मनोसंरचना के आधार पर अमेरिका के दक्षिण प्रांतों में ट्रम्प -समर्थन उमड़ने लग जाता है।  दिलचस्प यह है कि विभिन्न टीवी कार्यक्रमों में  श्वेत कचरा की जीवन शैली का चित्रांकन उपहासपूर्ण अंदाज़ में किया जाता है. एक शो काफी चर्चित रहा है : here comes boo boo dynasty.  निश्चित ही श्वेत कचरा समाज के लोग निर्धन और अशिक्षित होते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी बहुतायत रहती है. इस समाज के लोग भिक्षावृति को भी अपना लेते  हैं. पुलों के नीचे और सड़कों-पार्कों के किनारे पड़े रहते हैं. इन्हें मीडिया में  ‘बंजर भूमि और पहाड़वासी ‘ तक लिखा जाता है. इनके बच्चे रोगग्रस्त रहते हैं और ठीक तरह से पुस्तक पढ़ भी नहीं पाते हैं. कुछ का अनुमान है कि  श्वेत कचरा समाज में 42%  लोग गरीबी की सीमा तले अपना गुज़र -बसर करते हैं.  इनके लिए जातीयता महत्वपूर्ण है, जनकल्याण कारी कार्यक्रम दूसरे  पायदान पर हैं. लेकिन, अपने पिछड़ेपन के बावज़ूद  ये लोग  दक्षिण अमेरिका ( प्रान्त ) का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं और उत्तरी अमेरिका ( बोस्टन, न्यू यॉर्क या न्यू इंग्लैंड ) के समकक्ष लाना चाहते हैं. बेशक, ट्रम्प उनके इस स्वप्न को ज़बरदस्त ढंग से भुनाने की कोशिश भी कर रहे हैं. समाजशास्त्रियों के मत में अमेरिका में ’सामाजिक गतिशीलता के स्थान पर दैहिक आवागमन गतिशीलता बढ़ी है।’ किसी भी देश के असली विकास का पैमाना है सामाजिक यानि सोशल मोबिलिटी का विस्तार होना। अमेरिका में इसका अभाव है।भारत के संदर्भ में भी यह कड़वी सच्चाई है।

अमेरिका का यह परिदृश्य  हम  भारतियों के लिए अज़नबी नहीं है. यहां भी धर्म-मज़हब -जाति के नाम पर बेशुमार भ्रमों को वंचित वर्ग के मतदाताओं के दिलो -दिमागों में पैदा किया जाता है; विश्व गुरु, भारत महान, अखण्ड  भारत आदि के स्वप्न दिखाए जाते हैं. लोकतंत्र को सिर्फ मतदान तक सीमित कर दिया गया है. वोट डालने का अर्थ ही लोकतंत्र है, जबकि यह लोकतंत्र की सिर्फ एक क्रिया है. लोकतंत्र  जीवन और देश की जीवन शैली है. क्या मतदाताओं को लोकतान्त्रिक चेतना से लैस किया जा रहा है ? क्या  सरकार बदलना ही सबकुछ है?  राज्य और शासकों का कैसा चरित्र होना चाहिए, क्या ऐसे सवालों की शक्ति से जनता को लैस किया जा रहा है ? कहीं हम विविध रंगी मतदाताओं को  सिर्फ ‘ मत कचरा ‘ में  तब्दील तो नहीं किया जा रहा है ? कहीं हम  ‘श्वेत कचरा -मिट्टी खोर’ के भारतीय संस्करण तो नहीं बनते जा रहे हैं ? यदि इसका जवाब ’हां’ है तो लोकतंत्र को मौत से कैसे बचाया जा सकता है?ज़रा  सोचिये.. !