Category Archives: अल्पसंख्यक

बौद्ध विहार नालंदा को किसने तोड़ा था, ब्राह्मणों ने या मुस्लिम आक्रमणकारियों ने?

July 12, 2024 | By Sushma Tomar
बौद्ध विहार नालंदा को किसने तोड़ा था, ब्राह्मणों ने या मुस्लिम आक्रमणकारियों ने?

नालंदा को किसने तोड़ा इसे लेकर सोशल मीडिया पर मतभेद शुरू हो गए हैं। इसे लेकर दो बातें कही जा रही है पहली यह की नालंदा को ब्रह्मणों ने तोड़ा औऱ दूसरा ये की नालंदा को मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने तुड़वाया था।

सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक में नालंदा विश्वविद्यालय इस वक्त छाया हुआ है। क्योंकि हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के राजगीर में नालंदा यूनिवर्सिटी का इनोग्रेशन किया। इस वक्त लोगो को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि बुद्ध की इस धरती यानी भारत के साथ आज दुनिया के सभी देश कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहते है। 19 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी के इनोग्रेशन के दौरान ये भी कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय वसुधैव कुटुंबकम की भावना का एक सुंदर प्रतीक है।

एक वक्त पर नालंदा भारत की पंरपरा और पहचान का जीवंत केंद्र हुआ करती थी। पीएम मोदी यह बात उस नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में बोल रहे थे जो अब खंडहर हो चुका है लेकिन अपने आप में यह खंडर एक इतिहास समेटे हुए है। बता दें कि हाल ही में जिस नालंदा यूनिवर्सिटी का इनोग्रेशन किया गया है वह नालंदा के खंडहरों से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

पीएम मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी को प्राचीन नालंदा की शिक्षा परंपरा को पुनर्जीवित करने और इसे एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित करने का उद्देश्य बताया। इसका मकसद वैश्विक शिक्षा के क्षेत्र में भारत को पुनः एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाना है और एशियाई सभ्यता के अध्ययन को बढ़ावा देना है।

किसने तोड़ा नालंदा को ?

इतिहास कहता है कि नालंदा एक प्रसिद्ध संस्थान था जिसका संबंध बौद्ध धम्म से था। जहाँ बौद्ध धम्म के महायान अध्ययन और प्रचार पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। हालांकि 12वी शताबदी में इसे तोड़ दिया गया। लेकिन इस घरोहर को किसने तोड़ा इसे लेकर सोशल मीडिया पर मतभेद शुरू हो गए हैं। इसे लेकर दो बातें कही जा रही है पहली यह की नालंदा को ब्रह्मणों ने तोड़ा औऱ दूसरा ये की नालंदा को मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने तुड़वाया था।

JNU में इतिहास की प्रोफेसर रूचिका शर्मा ने और कुछ विद्वानों और इतिहासकारों, जैसे श्रीधर वेंकट राघवन ने लामा तारानाथ का हवाला देते हुए यह दावा किया है कि नालंदा का विनाश ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध धम्म के प्रति शत्रुता के कारण किया गया था। जिसका जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार दीलीप मंडल ने कहा कि आपकी इतिहास लेखन की विधि गलत है. नालंदा को जलाने का आरोप ब्राह्मणों पर लगाना इतिहास को सिर के बल खड़ा करने वाली बात है. अल्पसंख्यकवाद के चक्कर में सवर्ण वामपंथी इतिहासकार ये करते हैं. भारत में इतिहास लेखन पर उनका ही कब्जा है. आपने दो तिब्बती सोर्स के आधार पर जो निष्कर्ष निकाला है वह संदिग्ध है.

नालंदा पर जब बख्तियार खिलजी ने आक्रमण किया तब तक वहां पाल राजवंश  का शासन था. नालंदा और आसपास के इलाके पर कभी ब्राह्मणों का राज नहीं रहा. इससे पहले के चार सौ साल में यहां अधिकतर समय बौद्ध राजा रहे. पाल राजवंश भी बौद्धों का है. नालंदा को जलाने का आरोप आप ब्राह्मणों पर कैसे लगा रही हैं?

वह आगे लिखते हैं कि मूर्तियों को तोड़ना या स्ट्रक्चर को नष्ट करना या ग्रंथों को जलाना ब्राह्मण विधि नहीं है बुद्ध की मूर्ति तोड़ने की सबसे ताजा घटना भी अफगानिस्तान की है. लिखित इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं है कि ब्राह्मणों ने बुद्ध की मूर्ति तोड़ी या मठ जलाए. नालंदा के विध्वंस पर बाबा साहब को पढ़ा जाना चाहिए. कृपया उनकी रचनावली का वॉल्यूम तीन देखें. उन्होंने इस विनाश के लिए स्पष्ट तौर पर मुस्लिम हमलावरों को जवाबदेह बताया है.

नालंदा और डॉ आंबेडकर

आखिर में जब हम इन सारी चीजो का निष्कर्ण निकालते हैं तो हमें बाबा साहेब अंबेडकर की राइटिंग्स मिलती है जिसमें सिंबल ऑफ नॉलेज डॉ. अंबेडकर ने लिखा है कि मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय और अन्य बौद्ध स्थलों को नष्ट किया था।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश के लिए स्पष्ट रूप से 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी को जिम्मेदार ठहराया, जिसके अनुसार यह आक्रमण बौद्ध धम्म को समाप्त करने का प्रयास था, जिससे बौद्ध धर्म और उसकी शिक्षा प्रणाली को गंभीर नुकसान हुआ। आंबेडकर ने मुस्लिम आक्रमणकारियों को बौद्ध धम्म के पतन का मुख्य कारण माना है।

नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय बनाया जाए

इसी के साथ दिलीप मंडल ने एक नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय बनाने की मांग भी कर डाली है। उन्होंने लिखा कि, “जब जामिया और अलीगढ़ जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम विश्वविद्यालय हो सकते हैं तो नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय क्यों नहीं?” उनका यह सवाल भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों की पहचान और उन्हें संरक्षित करने की दिशा में एक विचारणीय पहल है। इस सवाल से यह बात उभरती है कि यदि कुछ विश्वविद्यालय विशिष्ट धार्मिक समुदायों की पहचान के रूप में स्थापित हो सकते हैं, तो बौद्ध धम्म की प्राचीन और महत्वपूर्ण धरोहर, नालंदा विश्वविद्यालय, को बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता क्यों नहीं दी जा सकती है?  क्या इस परियोजना का उद्देश्य केवल वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल करना है, या इसके माध्यम से स्थानीय समाज और उनके हितों का भी ध्यान रखा गया है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि किसी भी बड़े परियोजना के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का ध्यान रखना आवश्यक है, खासकर जब वह परियोजना एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी हो

बौद्ध धम्म और नालंदा विश्वविद्यालय

प्राचीन युग में नालंदा विश्वविद्यालय भारत का एक प्रमुख शिक्षण संस्थान था, जो लगभग 5वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक बिहार राज्य के नालंदा में स्थित था। यह विश्वविद्यालय विश्वभर के छात्रों और विद्वानों को गहन शिक्षा के लिए अपनी और आकर्षित करता था,‌  इसमें कई महत्वपूर्ण विषय की उच्च शिक्षा दी जाती थी, जिनमें बौद्ध धर्म, दर्शन, गणित, आयुर्वेद, और विज्ञान शामिल थे

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी। इसके निर्माण के लिए विभिन्न शासकों ने  भरपूर सहयोग किया और इसे समय-समय पर विकसित किया जाता रहा है ताकि शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ता रहे। यहाँ अनेक मठ और विद्यालय थे, और इसकी लाइब्रेरी ‘धर्मगंज’ तीन प्रमुख भवनों में विभाजित थी जिनका नाम रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक था।

नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध धम्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहाँ महायान बौद्ध धर्म के अध्ययन और प्रचार पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान जैसे नागार्जुन, दिङ्नाग, और धर्मकीर्ति यहाँ शिक्षण और अध्ययन करते थे। यह विश्वविद्यालय बौद्ध धम्म के अध्ययन के लिए दूर-दूर से छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था।

(Dalit Times)

महाड़ सत्याग्रह दिवस विशेष : बाबा साहेब के कारण अछूतों-दलितों को मिल पाया था पानी पीने का अधिकार

April 02, 2024 | By Maati Maajra
महाड़ सत्याग्रह दिवस विशेष : बाबा साहेब के कारण अछूतों-दलितों को मिल पाया था पानी पीने का अधिकार

महाड़ के ‘चवदार तालाब’ आन्दोलन का महत्त्व इसलिये भी अधिक है, क्योंकि भारत के इतिहास में दलितों ने पहली बार किसी दलित समाज के नेतृत्व में जन संघर्ष और सत्याग्रह के द्वारा अपने अधिकारों को प्राप्त किया था….

Mahad Satyagraha or Chavdar Tale Satyagraha:

सामाजिक क्रांति के इतिहास में खासकर बहुजनों-दलितों के लिए डॉक्टर बाबा साहेब आम्बेडकर ने जो किया, उसे सदियों तक भुलाना नामुमकिन है। आज शायद बहुत से लोग यह बात जानते भी नहीं होंगे कि बाबा साहेब के कारण ही अछूतों को पानी पीने तक का अधिकार मिल पाया था। जी हां, पहले दलितों को पानी पीने तक का अधिकार नहीं था। आज 20 मार्च यानी चावदार तालाब क्रांति दिवस है, जिस दिन घोषित तौर पर बाबा साहेब के अतुलनीय योगदान के कारण दलितों को पानी पीने का अधिकार मिला था।

वर्ष 1927 में महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ ज़िले के महाड़ स्थान पर चावदार आंदोलन अछूतों-दलितों को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया था, जिसके अगुवा बाबा साहेब अंबेडकर थे। उस वक़्त हिंदुओं के धर्म स्थानों, कुओं और तालाब पर कुत्ता-बिल्ली, गाय-भैंस और गधे जैसे जानवर पानी पी सकते थे-नहा सकते थे, उसी तालाब से अछूतों को पानी पीने की सख्त मनाही थी, भले ही वह प्यासा ही मर जाये।

विलायत से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उच्च डिग्री प्राप्त करने के बाद बाबा साहब अंम्बेडकर 1917 में भारत आये थे। अपने करार के अनुसार कुछ समय उन्होने बड़ौदा रियासत में अर्थमंत्री के रूप में कार्य किया, लेकिन वे यहां अधिक समय तक नहीं रहे, वहां नहीं टिकने का कारण था कि दरबार के कार्कुन अछूत समझकर उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया करते। उच्च शिक्षित और इतना ऊंचा पद मिलने के बावजूद अंबेडकर को घोर अपमान सहना पड़ा था।

बाबा साहेब कहते थे, “दलित समाज की मुक्ति के बिना हमारी स्वतंत्रता अधूरी है।” दलित समाज की मुक्ति के लिये बाबा साहब आम्बेडकर ने जन संघर्ष और सामूहिक आंदोलन के मार्ग को चुना था। वे जानते थे कि संघर्ष द्वारा एक तरफ उन्हें अपने अधिकार तो प्राप्त होंगे ही साथ ही सदियों से पीड़ित दलित तबके के भीतर आत्मसम्मान की भावना भी जागृत होगी।

गौरतलब है कि महाराष्ट्र के कई स्थानों पर दलितों को सार्वजनिक तालाब या कुएँ से पानी लेने की अनुमति नहीं थी। यदि कोई दलित व्यक्ति सार्वजनिक तालाब से पानी लेने की हिम्मत दिखाता तो पूरे समाज को इसके परिणाम भुगतने पड़ते। कितनी अजीब बात है जल, ज़मीन और वन जैसी प्राकृतिक संपदा जिस पर प्रत्येक प्राणी का अधिकार है, लेकिन दलितों को अछूत कह कर उनका बहिष्कार किया जाता था। बाबा साहेब चूंकि स्वयं दलित समुदाय से थे, इसलिए भारतीय समाज की सनातनी व्यवस्था से भलीभांति परिचित थे। अंग्रेजों के शासन में भी भारतीय समाजिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया था। सार्वजनिक जीवन में उन्हें बहिष्कृत जीवन ही जीना पड़ता।

दलितों को पानी पीने जैसे अधिकार से भी वंचित देखकर वे बड़े आहत हुए। अपने भविष्य को लेकर बाबा साहब आंबेडकर के सामने दो मार्ग थे। एक तो अपनी शिक्षा को आधार बनाकर धन दौलत कमाते या फिर असहाय दलितों की आवाज़ बनकर उनकी की मुक्ति के लिए संघर्ष करते। बाबा साहब ने संघर्ष की राह चुनी। इसी के साथ सन 1924 को मुंबई में उन्होंने दलित उद्धार के लिए ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ नामी एक संस्था बनाई। इस सभा में अस्पृश्य सदस्यों के साथ-साथ ऊंची जाति के भी सदस्य जुड़े थे। कई स्थानों पर इस संस्था के अंतर्गत सभाओं का आयोजन भी किया गया।

चवदार तालाब आंदोलन सार्वजनिक तालाब और कुओं को लेकर उन दिनों मुंबई प्रसिडेन्सी की ओर से एक सरकारी अध्यादेश पारित हुआ था कि सार्वजनिक जल स्रोतों पर सभी नागरिकों का अधिकार होगा। इसी अध्यादेश को आधार बनाकर महाड़ के नगराध्यक्ष सुरेन्द्रनाथ टिपणीस ने 1924 में चवदार तालाब को भी सार्वजनिक संपत्ति घोषित किया, यानी अब तालाब से सबको पानी लेने का अधिकार प्राप्त था। इसके बावजूद सवर्ण जातियों की ओर से अघोषित तौर पर दलितों का सामाजिक बहिष्कार जारी था। ‘चौदार तालाब’ से दलितों को पानी लेने नहीं दिया जाता था। अगर कोई साहस दिखाता भी तो उसे कठोर यातनाएं सहनी पड़ती। दलित महिलाओं को मीलों दूर पानी के लिए जाना पड़ता।

महाड़ आने का निमंत्रण

नगर अध्यक्ष सुरेन्द्र नाथ टिपणीस ने बाबा साहब को महाड़ आने का निमंत्रण दिया ताकि उनके हाथों इस तालाब को आम लोगों को समर्पित किया जाए। बाबा साहब ने यह निमंत्रण स्वीकार किया। बाबा साहब दो महीने पहले ही जनवरी 1924 को इस क्षेत्र में पहुंच गए। उनके यहाँ पहुंचते ही स्थानीय दलितों में उत्साह और जोश था। बाबा साहब माहाड़ की इस भूमि से भलीभांति परिचित थे। महार जाति के बहुत से लोग ब्रिटिश सेना से जुड़े थे। सेना से मुक्त होने के बाद वे यहां बड़ी संख्या में आबाद थे। बाबा साहब को सत्याग्रह के लिये ऐसे ही अनुशासित लोगों की ज़रूरत थी। अंबेडकर घूम-घूमकर स्थानीय लोगों से संवाद स्थापित किया उनकी समस्याओं को समझा।

उनके साथ स्थानीय दलित नेता आर. बी. मोरे का सहयोग बाबा साहब को मिलता रहा। गांव गांव घूमकर वे लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करते जाते । लोगों के मन पर बाबा साहब की बातों का गहरा प्रभाव होने लगा। धीरे धीरे हज़ारों की संख्या में लोग चौदार तालाब आंदोलन से जुड़ने लगे। बाबा साहब का कहना था कि “जिस तालाब से ऊंची जाति के लोग पानी पी सकते हैं, यहां तक कि पशु के पानी पीने पर भी किसी को एतेराज नहीं ऐसी सूरत में भला दलितों को इस अधिकार से कैसे दूर रखा जा सकता है? प्राकृतिक संसाधनों पर प्रत्येक मनुष्य का एक जैसा अधिकार है।” चाहे वो फिर किसी भी जाति धर्म क्यों न हो।

महाड़ आन्दोलन को सभी वर्गों का मिला था समर्थन

एक तरफ जहां स्थानीय स्तर पर घोर सनातनी हिन्दू दलितों को सार्वजनिक स्थानों पर बेरोकटोक पानी ​पीने का अधिकार दिये जाने का विरोध कर रहे थे, वहीं दलितों के साथ साथ समाज के एक बड़े वर्ग का इस आन्दोलन को समर्थन भी प्राप्त था। काज़ी हुसैन ने आगे बढकर अपनी ज़मीन आन्दोलन कारियों को ठहरने के लिये उपलब्ध कारवाई। वहीं दूसरी तरफ डॉ. सुरेंद्रनाथ टिपनिस, गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे और अनंत विनायक चित्रे, कायस्थ प्रभु जैसे सवर्ण समाज के लोग भी डॉक्टर आम्बेडकर की सहायता के लिये आगे आये।

महाड़ सत्याग्रह की शुरुआत 20 मार्च 1927 को हुई थी, जोकि आज इतिहास में दर्ज हो चुका है। ये वो ऐतिहासिक दिन है जब बाबा साहब आम्बेडकर ने हज़ारों दलितों को साथ लेकर सत्याग्रह किया। इस आंदोलन का पूरा स्वरूप अहिंसात्मक था। पहले से तय समय पर इस दिन बाबा साहेब अंबेडकर चौदार तालाब पर पहुंचे अपनी अंजुली से इस तालाब का ज़ायकेदार जल ग्रहण किया। चौदार का मतलब होता है स्वादिष्ट। इस तरह बाबा साहब के साथ सैकड़ों दलित समाज ने भी सैकड़ों वर्षों की गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर तालाब का चौदार यानी मीठा जल ग्रहण किया।

महाड़ के ‘चवदार तालाब’ आन्दोलन का महत्त्व इसलिये भी अधिक है, क्योंकि भारत के इतिहास में दलितों ने पहली बार किसी दलित समाज के नेतृत्व में जन संघर्ष और सत्याग्रह के द्वारा अपने अधिकारों को प्राप्त किया था। बाबा साहब द्वारा किया गया यह सत्याग्रह केवल पानी के अधिकार तक ही सीमित नहीं था। उनका कहना था कि “प्रत्येक मनुष्य को ज़मीन, जंगल, पर्वत पेड़ सूर्य और आकाश पर बराबर का हक हासिल है। यह कभी किसी की निजी मिल्कियत नहीं हो सकती।”

महाड़, ‘चवदार तालाब’ के आंदोलन का महत्त्व इसलिये भी है क्योंकि इस आंदोलन के बाद ही दलित समाज के भीतर नवचेतना का विकास हुआ। या यूं कह सकते हैं कि चौदार तालाब के आंदोलन के बाद ही दलित प्रश्न भारतीय राजनीति के केंद्र में आने लगे। आज भी हर वर्ष 20 मार्च को माहाड़ के ‘चौदार तालाब’ के दर्शन के लिये पूरे देश से हज़ारों की संख्या में दलित समाज के लोग गाते-बजाते हाथों में परचम लिये ‘जय भीम’के नारों के साथ वहां पहुंचते हैं। 

( Dalit times)

2014 के बाद से मुस्लिमों के विरुद्ध नफरती भाषणों और वक्तव्यों को कानूनी मान्यता मिल गयी है

March 08, 2024 | By Maati Maajra
2014 के बाद से मुस्लिमों के विरुद्ध नफरती भाषणों और वक्तव्यों को कानूनी मान्यता मिल गयी है

2014 के बाद से मुस्लिमों के विरुद्ध नफरती भाषणों और वक्तव्यों को कानूनी मान्यता मिल गयी है। तमाम तथाकथित साधू, साध्वियां, धार्मिक गुरु, संघ की छत्रछाया में पनप रहे संगठन, पत्रकार और सत्ता में बैठे नेता ऐसे वक्तव्य लगातार दे रहे हैं, तो दूसरी तरफ तमाम मुस्लिम बुद्धिजीवियों को इसी आरोप में जेल में डाल दिया जाता है, और न्यायालय भी खामोश रहता है… वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

लालू यादव ने पटना के गांधी मैदान में कहा कि बीजेपी समाज में नफरत फैला रही है, अखिलेश यादव भी इसे कहते हैं और राहुल गांधी तो पिछले कुछ महीनों से इसे लगातार कह रहे हैं। हाल में ही न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग एंड डिजिटल स्टैण्डर्ड अथॉरिटी ने तीन समाचार चैनलों – टाइम्सनाउ, न्यूज़-18 और आजतक – पर समुदाय विशेष के विरुद्ध नफरत फैलाने और साम्प्रदायिक विभाजन को भड़काने के कारण जुर्माना लगाया है। यह सबकुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से मुस्लिमों के विरुद्ध नफरती भाषण और वक्तव्य सत्ता और मीडिया की मुख्यधारा की भाषा बन चुके हैं, और पुलिस और क़ानून इसमें नफरत फैलाने वालों का खूब साथ दे रही है।

हाल में ही अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में स्थित अनुसंधान संस्थान, इंडिया हेट लैब ने वर्ष 2023 में भारत में मुस्लिमों के विरुद्ध हेटस्पीच पर एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसके अनुसार भारत में हरेक दिन औसतन 2 ऐसे कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जिनमें मुस्लिमों के विरुद्ध जहर उगला जाता है। ऐसे मामले साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि कट्टरपंथी और हिंसक हिन्दू संगठनों की संख्या बढ़ती जा रही है, इन्हें सत्ता से पूरी छूट मिली होती है, पुलिस का संरक्षण प्राप्त रहता है। इन संगठनों का अस्तित्व ही नफरती सम्मेलनों, समारोहों और वक्तव्यों पर टिका है। इंडिया हेट लैब भारत में नफरती भाषणों का बारीकी से आकलन करता है।

इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2023 में ऐसे 668 आयोजन किये गए थे, जिसमें नफरती भाषण दिए गए – इसमें से 498 यानी लगभग 75 प्रतिशत आयोजन बीजेपी शासित राज्यों में किये गए। वर्ष 2023 के शुरू के 6 महीनों में ऐसे 255 आयोजन किये गए, पर इसके बाद अनेक राज्यों में विधानसभा चुनावों के दौरान इनकी संख्या तेजी से बढ़ी और अंतिम 6 महीनों में इनकी संख्या 413 तक पहुँच गयी – यह वृद्धि शुरू के 6 महीनों की तुलना में 62 प्रतिशत है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि हेटस्पीच या नफरती भाषणों की वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक है, पर केवल इतने आयोजनों की खबरें ही मीडिया में आईं थीं। ऐतिहासिक तौर पर यह साबित हो चुका है कि नफरती भाषणों और वक्तव्यों से समाज में अस्थिरता आती है, एक दूसरे के प्रति दुर्भावना बढ़ती है और यह नरसंहार को भी जन्म दे सकता है। इसलिए भारत में आज जो हो रहा है, सत्ता जिसे बढ़ावा दे रही है, यह स्थिति भविष्य के लिए भयानक है।

यहाँ वर्ष 2014 के बाद से मुस्लिमों के विरुद्ध नफरती भाषणों और वक्तव्यों को कानूनी मान्यता मिल गयी है। तमाम तथाकथित साधू, साध्वियां, धार्मिक गुरु, संघ की छत्रछाया में पनप रहे संगठन, पत्रकार और सत्ता में बैठे नेता ऐसे वक्तव्य लगातार दे रहे हैं, तो दूसरी तरफ तमाम मुस्लिम बुद्धिजीवियों को इसी आरोप में जेल में डाल दिया जाता है, और न्यायालय भी खामोश रहता है।

ऐसे समारोहों को आयोजित करने में 118 समारोहों के साथ पहले स्थान पर महाराष्ट्र, 104 आयोजनों के साथ दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश, और 65 आयोजनों के साथ मध्य प्रदेश तीसरे स्थान पर है। इसके बाद उत्तराखंड, हरियाणा और असम का स्थान है। इसमें से 46 प्रतिशत, यानि 307 आयोजन विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े कट्टर दक्षिणपंथी संगठनों ने आयोजित किया था। ऐसे 50 आयोजनों का संचालन स्वयं भारतीय जनता पार्टी ने किया था।

नफरती भाषणों में 63 प्रतिशत आरोप केवल मुस्लिमों को बदनाम करने के लिए आधारहीन हैं। इन आरोपों में तमाम बीजेपी शासित राज्यों की सत्ता द्वारा आगे बढाया जाने वाला “लव जिहाद” प्रमुख है, इसके बाद लैंड जिहाद, पापुलेशन जिहाद और हलाल जिहाद शामिल है। कुल 169 आयोजनों में मुस्लिम पूजा स्थलों और प्रार्थना स्थलों पर हमले के लिए भड़काया गया था। कुल 239 आयोजनों, यानी 36 प्रतिशत में तो सीधे मुस्लिमों पर हिंसा का आह्वान किया गया था, जिसमें से 77 प्रतिशत आयोजन बीजेपी शासित राज्यों में किया गया था। लगभग 100 आयोजनों में तो बीजेपी नेताओं ने ही ऐसे नफरती भाषण दिए थे।

नफरती भाषण बीजेपी की चुनावी रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा है – पूरे साल में जितने नफरती भाषण दिए गए, उनमें से 48 प्रतिशत जुलाई से नवम्बर के बीच दिए गए, जब राजस्थान, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ जैसे राज्यों में चुनावों का दौर चल रहा था।

(Source: Dalit times)

मदारिस: समस्याएं और वर्तमान स्थिति

March 03, 2024 | By Mohd Zeyauddin Barkati
मदारिस: समस्याएं और वर्तमान स्थिति

इस्लाम धर्म में मदरसों का महत्व 1400 वर्ष पहले से रहा है.वास्तविकता ये है कि इस्लाम धर्म को जानने का रास्ता मदरसे से होकर जाता है. मदरसे में दीनी तालीम पढ़ाई जाती है, जिससे कि लोगों को इस्लाम धर्म के बारे में जानकारी हो सके.

मदरसा एक अरबी भाषा का शब्द है, जिसका मतलब पढ़ने का स्थान होता है. इन मदरसों को चलाने के लिए इलाके के लोग जकात , फितरा, दान इकट्ठा कर मदरसा संचालक को देते हैं, जिससे कि वह मदरसा संचालित करता है. इन मदरसों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की योग्यता की अगर बात करें तो प्रत्येक मदरसे में शिक्षक की योग्यता धार्मिक शिक्षा के आधार पर हाफिज, कारी, आलिम, फाजिल ,मुफ्ती की डिग्री होना जरूरी होता है.

मदरसों में छात्रों को इस्लामी शिक्षा दी जाती है. जिसमें मौलवी मुंशी, आमिल,फाजिल, कामिल, कारी,अरबी,फारसी के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा के तौर पर उर्दू,हिंदी, अंग्रेजी, सामाजिक विज्ञान,विज्ञान, नागरिक शास्त्र और कंप्यूटर विषय विकल्प के तौर पर पढ़ाये जाते हैं.मदरसों पर बहुत गहरी नज़र रखने वाले, मौलाना नुरुल हुदा मिस्बाही गोरखपुर बताते हैं कि मदरसा चलाने के लिए कोई भी मुसलमान जिसके अंदर इस्लाम धर्म का जज्बा हो वह मदरसा चला सकता है.

मदरसा संचालक ने बताया कि बाद में जब मदरसा सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हो जाता है तो सरकार द्वारा मदरसे को ऐड दी जाती है. जिससे मदरसे का संचालन चलता है. मदरसे में दीनी और धार्मिक तालीम दी जाती है. मदरसे मे बच्चों को पढ़ाने लिए जो टीचर रखे जाते हैं उनकी योग्यता धार्मिक शिक्षा के आधार पर कम से कम हाफिज, कारी, आलिम की डिग्री होना जरूरी होता है. जिन बच्चों को आधुनिक शिक्षा के तौर पर हिंदी, गणित, अंग्रेजी, विज्ञान, इतिहास की तालीम दी जाती है उसके लिए पढ़ने वाले शिक्षक की योग्यता इंटर होना जरूरी है.

* वर्तमान में उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद के अंतर्गत संचालित प्रदेश के मदरसों की स्थिति इस प्रकार है:-

  1. तहतानिया (प्राथमिक स्तर) फौकानिया (जू. हाई स्कूल स्तर) 14677
  1. आलिया (मुशी, मौलवी, आलिम, कामिल, फ़ाज़िल) 4536

उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद द्वारा आयोजित परीक्षाओं का विवरण इस प्रकार है:-

  1. मुंशी/मौलवी (समकक्ष हाईस्कूल) (उच्च शिक्षा एवं नियुक्ति हेतु उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अनुमोदित किया गया है)
  1. आलिम (समकक्ष इंटरमीडिएट) (उच्च शिक्षा एवं नियुक्ति के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है)
  1. कामिल (समकक्ष स्नातक) (उच्च शिक्षा एवं नियुक्ति के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त है)

वर्तमान में आलिया स्तर के स्थायी मान्यता प्राप्त अनुदानित मदरसों की कुल संख्या 560 है।

मदरसे का संचालन

परिषद द्वारा मान्यता प्राप्त मदरसों में उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद अधिनियम-2004 के तहत विनियम 2016 में निहित शर्तों/प्रतिबंधों का अनुपालन किया जाता है। कमियां पाए जाने पर निराकरण के लिए नोटिस दिया जाता है। समय-समय पर मदरसे का निरीक्षण भी किया जाता है। कुशल संचालन के लिए सुझाव भी दिये गये हैं. आदेशों की अवहेलना या किसी मानक को पूरा न करने पर मान्यता निलंबित/वापसी भी होती है।

यूपी के इलावा बिहार मदरसा बोर्ड से 4,000 से अधिक मदरसे संबद्ध हैं, जिनमें 1,942 सरकारी सहायता प्राप्त मदरसे शामिल हैं, जिनमें 15 लाख से अधिक छात्र हैं।

इसी प्रकार राजस्थान मदरसा बोर्ड के साथ 3,240 मदरसे पंजीकृत हैं, जिनकी कुल छात्र संख्या 2.35 लाख है।जिनमें माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी हैं।अल्पसंख्यक कार्य विभाग की प्रधान सचिव श्रेया गुहा ने कहा, इनमें से कुछ मानदंडों के आधार पर चुने गए 500 मदरसों को मॉडल मदरसों के रूप में विकसित किया जाएगा।

ऐसे ही मध्‍य प्रदेश सरकार की एक रिकॉर्ड के मुताबिक, राज्‍य में पंजीकृत मदरसों की संख्‍या करीब 2,650 है।

हमारा अधिक फोकस उत्तर प्रदेश के मदरसे होंगे क्योंकि यहां सबसे अधिक मदरसे हैं और सैलरी भी सबसे अधिक है और साथ ही समस्याएं भी अधिक हैं।अगले आर्टिकल में हम अलग अलग राज्यों के मदरसों की स्थिति का आंकलन करने का प्रयत्न करेंगे।

इंडिया टूडे की रिपोर्ट के मुताबिक़ आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 26,928 मान्यता प्राप्त मदरसों में लगभग 1.17 लाख शिक्षक कार्यरत हैं, जिनमें 43.52 मिलियन से अधिक छात्र रहते हैं।

संसदीय पैनल ने कहा है कि उपलब्ध बुनियादी ढांचे, शिक्षकों और छात्रों सहित मदरसों के बारे में व्यापक जानकारी के अभाव में मदरसों में नई शिक्षा नीति को लागू करना चुनौतीपूर्ण होगा, क्योंकि केवल 10 राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों ने यूडीआईएसई पर विवरण दर्ज किया है।

परिणामस्वरूप, समिति ने मंत्रालय को तीन महीने के भीतर डेटा इकट्ठा करने की सलाह दी थी ताकि मदरसे योजना की सुविधाओं का उपयोग कर सकें।

मदरसा संचालक मसूद आलम नूरी बताते हैं कि मदरसे से जो डिग्रियां बच्चों को दी जाती हैं वह हाफिज की डिग्री होती है, आलिम और कारी की डिग्रियां होती हैं, मुफ्ती की डिग्री होती है, आलिम और फाजिल की डिग्री होती है. लेकिन उस डिग्री को लेकर वह किसी मस्जिद के इमाम बन जाते हैं, किसी मदरसे में उस्ताद या संचालक बन जाते हैं या मुफ्ती व काजी बन जाते हैं. लेकिन अगर उनको सरकारी नौकरियों की तरफ जाना तो फिर वह किसी यूनिवर्सिटी में दाखिला लेते हैं.

मौलाना नुरुल हुदा मिस्बाही ने बताया कि मदरसे की तालीम हासिल करने के साथ-साथ जो मदरसे यूपी गवर्नमेंट से मान्यता प्राप्त है और वहां के छात्र किसी बड़े एजुकेशनल इंस्टिट्यूट में दाखिला लेते हैं तो वो आलिम की डिग्री के माध्यम से बीए में एडमिशन लेते हैं और आगे बढ़ते हैं। इसके बाद वह सरकारी नौकरी के योग्य हो जाते हैं. उन्होंने बताया कि हिंदुस्तान के बहुत से ऐसे बड़े अधिकारी , डॉक्टर , प्रोफेसर, मौजूद हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी की शुरुआत मदरसे की तालीम से ही की थी और वह आज एक आला मुकाम पर मौजूद है.

मौलाना इम्तियाज रूमी असिस्टेंट प्रोफेसर जामिया मिल्लिया दिल्ली,ने बताया कि अब मदरसे के छात्र बड़ी संख्या में सेंट्रल यूनिवर्सिटी में तेजी से एडमिशन भी ले रहे हैं और उच्च पदों पर भी पहुंच रहे हैं। उनसे पूछने पर कि किन किन यूनिवर्सिटी में अधिक छात्र शिक्षा ले रहे हैं तो इसपर उन्होंने बताया कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया नई दिल्ली, जामिया हमदर्द नई दिल्ली, जेएनयू नई दिल्ली, मौलाना आजाद हैदराबाद, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़, इग्नू नई दिल्ली, में बड़ी संख्या में मदरसों के छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

मासिक पत्रिका कंजूल ईमान नई दिल्ली के संपादक और मदरसों के हालात पर पैनी नजर रखने वाले मौलाना जफरुद्दीन बरकती से देर तक बात हुई जिसमें उन्होंने कुछ समस्याओं की तरफ ध्यान केंद्रित किया कि मदरसों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन सबसे गंभीर समस्या आर्थिक समस्या है. ये मदरसे जकात, फितरे और दान पर चलते हैं। कुर्बानी की खाल से भी कुछ आमदनी हो जाती थी, लेकिन पिछले दो साल से यह स्रोत बंद है। जहां तक ​​जकात, फितरे और दान का सवाल है तो कुछ फर्जी लोगों के कारण दानदाताओं को भी मूल लाभार्थियों पर संदेह होता है। इसीलिए मदरसों को ऐसी जगहों से ही चंदा मिलता है जहां उनके परिचित होते हैं. वह बताते हैं कि मदरसों को खास तौर पर तीन क्षेत्रों में पैसा खर्च करना पड़ता है। एक छात्रों के भोजन पर, दूसरा शिक्षकों के वेतन पर और तीसरा मदरसा कक्षा और छात्रावास के निर्माण पर। जकात, फितरा आदि की रकम से विद्यार्थियों के खाने-पीने का प्रबंध किया जाता है। वर्ष में एक बार मदरसे की बैठक होती है जिसमें दान दिया जाता है। यह छात्रावासों के निर्माण पर खर्च किया जाता है लेकिन शिक्षकों के वेतन का प्रबंधन करना अधिक कठिन है। यही कारण है कि मदरसे वह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे पाते जो वे देना चाहते हैं।फिर भी इन्ही मदरसों के जहीन छात्र यूनिवर्सिटी का भी रुख कर रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत के सभी प्रमुख मदरसे उत्तर प्रदेश में हैं. यहां देशभर से छात्र धार्मिक शिक्षा के लिए आते हैं। बल्कि मदरसा मंजरे इस्लाम बरेली ,अल जामीअतुल अश्रफिया मुबारकपुर, दारुल उलूम नदवा लखनऊ में विदेशी छात्र भी वैधानिक तरीके से आते रहे हैं।मैं अल जामीअतुल अश्रफिया मुबारकपुर को करीब से जानता हूं कहा सरकार द्वारा शिक्षा के आधुनिकरण से बहुत पहले से ही यह दीनी शिक्षा के इलावा विज्ञान , गणित, सामाजिक विज्ञान, इतिहास, पॉलिटिकल साइंस, कंप्यूटर आदि की शिक्षा दी जाती रही है अब ऐसे में शिक्षा का आधुनिकरण में अशरफिया जैसे मदरसों को किसी भी दिक्कत का सामना नहीं।

दक्षिण भारत में भी कुछ बड़े मदरसे चल रहे हैं। इसके अलावा बिहार, बंगाल, असम, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों में भी कुछ बड़े मदरसे हैं। हालांकि, देशभर के मदरसे इस वक्त आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं। यह मदरसों की सबसे बड़ी समस्या है. यही कारण है कि यहां छात्रों की संख्या कम कर रहे हैं। एडमिशन के लिए बड़ी संख्या में विद्यार्थी आते हैं मगर उनमें से बड़ी संख्या को आर्थिक तंगी के कारण वापस कर दिया जाता है ।टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक गत 6 वर्षों में 4 लाख से अधिक मदरसे के छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी।

मौलाना सिद्दीक नूरानी सकाफी मध्य प्रदेश ने कहा कि केरल कालीकट का अल-सकाफा अल-सुन्निया एक आदर्श मदरसा है जो धार्मिक शिक्षा के बाद नियमित व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करता है।ऐसे में देश के अन्य संचालकों को इस तरह के मदरसे अपनाने की आवश्यकता है।

मौलाना जफरुद्दीन बरकाती ने बताया कि लड़कियों के मदरसों की बात की जाए तो वो काफी कम हैं फिर भी जिस अंदाज़ में चल रहे हैं वो सराहनीय कहा जा सकता है मगर वो भी काफी तंगी की शिकार हैं।

मैने अपने स्तर पर मालूम किया तो पता चला कि लड़कियों के मदरसे जनपद महाराजगंज में कई मदरसे संचालित हैं इसके इलावा गोरखपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, मुबारकपुर आजमगढ़, घोसी मऊ, सहारनपुर, मुरादाबाद, लखनऊ, कानपुर आदि क्षेत्रों में संचालित हैं। यहां लड़कियों धार्मिक शिक्षा के साथ साथ विज्ञान, अंग्रेजी, इतिहास ,गणित की भी शिक्षा दी जाती है।

मदरसों की आर्थिक तंगी में एक और झटका

वित्तीय वर्ष 2023-24 से वर्ष 2022-23 के लिए अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय का बजट आवंटन 38% कम कर दिया गया। अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए व्यावसायिक और तकनीकी पाठ्यक्रमों के लिए योग्यता-सह-साधन छात्रवृत्ति सहित कई छात्रवृत्ति और कौशल विकास योजनाओं में बड़ी धनराशि में कटौती की गई। इस वर्ष योजनाओं को ₹44 करोड़ की धनराशि आवंटित की गई है, जबकि पिछले वर्ष इसका बजट ₹365 करोड़ था।

2022-23 में अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय का बजट अनुमान ₹5,020.50 करोड़ था। इस बार मंत्रालय को 3,097 करोड़ रुपये आवंटित किये गये हैं. उल्लेख करने के लिए, 2022-23 में मंत्रालय को धन का संशोधित आवंटन ₹2,612.66 करोड़ था।

वित्त मंत्रालय ने वित्तीय वर्ष 2023-24 के लिए अल्पसंख्यकों के लिए प्री-मीट्रिक छात्रवृत्ति के लिए धनराशि में भी ₹900 करोड़ से अधिक की कटौती की है। पिछले बजट में छात्रवृत्ति निधि ₹1,425 करोड़ थी, जो इस वर्ष घटकर ₹433 करोड़ रह गई है।

मदरसों के पाठ्यक्रम को आधुनिकरण करने पर बहुत से मदरसों को समस्याओं का सामना तो करना पड़ा है मगर ये भी सत्य है कि अधिकतर मदरसों में आधुनिक शिक्षा दी जाती रही है।कुछ अध्यापकों ने बताया कि समय पर सैलरी न मिलने पर और अधिक आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।सरकार से अनुरोध है कि कामिल, फाजिल, मुफ्ती को बीए, एमए और पीएचडी के समान डिग्री देने का प्रावधान करे साथ ही मदरसों के लिए अधिक से अधिक बजट आवंटित किया जाए।ताकि मदरसों के छात्रों का भविष्य और प्रज्वलित हो सके और दीन के साथ साथ वर्तमान जीवनधारा में बहुत अच्छे अंदाज में आ सकें ।

जामिया मिल्लिया में कुलपति पद के लिए एएमयू के कार्यवाहक कुलपति व उनकी पत्नी भी दावेदार

February 28, 2024 | By Krishna Kant
जामिया मिल्लिया में कुलपति पद के लिए एएमयू के कार्यवाहक कुलपति व उनकी पत्नी भी दावेदार

जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली में कुलपति पद के लिए 29 लोगों के नाम साक्षात्कार के लिए चुने गए हैं। सर्च कमेटी एक-एक आवेदक का साक्षात्कार लेकर प्रक्रिया पूरी करेगी। साक्षात्कार के लिए अलग-अलग ई मेल भेजे गए हैं। उन्हें अलग-अलग तिथियों में बुलाया गया है। उसमें से तीन या पांच नाम केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय को भेजे जाएंगे। यहां से अंतिम स्वीकृति के लिए विजिटर यानी राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु के पास नाम जाएंगे। पूरे देश से 143 शिक्षकों ने आवेदन किए थे। उनमें एएमयू के कार्यवाहक कुलपति प्रो. मोहम्मद गुलरेज व उनकी पत्नी प्रो. नईमा गुलरेज सहित 20 से अधिक लोग शामिल हैं।

केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने सितंबर 2023 में जामिया मिलिया में कुलपति पद के लिए नाम मांगे थे। पूरे देश से 143 शिक्षकों ने आवेदन किए हैं। एएमयू से दावेदारी करने वालों में प्रो. अंजुम परवेज, काजी अहसान अली, प्रो. सरताज तबस्सुम, प्रो. असद उल्लाह खान, प्रो. नफीस अहमद खान, प्रो. सीमा हकीम, प्रो. मोहम्मद गुलरेज, प्रो. नजमुल इस्लाम, प्रो. नईमा खातून, प्रो. मुजाहिद बेग, प्रो. मोहम्मद रिजवान खान, प्रो. मोहम्मद जफर महफूज नोमानी, प्रो. अब्दुल अलीम और प्रो. कमरुल हसन अंसारी आदि का नाम शामिल है। जामिया मिलिया में कुलपति की नियुक्ति सर्च कमेटी के माध्यम से होती है। सर्च कमेटी शार्ट लिस्ट होने के बाद दावेदारों के साक्षात्कार लेती है। सर्च कमेटी में एएमयू के पूर्व कुलपति प्रो. तारिक मंसूर भी शामिल हैं। प्रो. तारिक मंसूर एमएलसी और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं।

एएमयू में कुलपति की नियुक्ति फ़िर tली

February 28, 2024 | By Krishna Kant
एएमयू में कुलपति की नियुक्ति फ़िर tली

एएमयू में कुलपति पद के पैनल में तीन नाम भेजे गए हैं। इसमें प्रो. एमयू रब्बानी, प्रो. फैजान मुस्तफा और प्रो. नईमा खातून का नाम है। सबसे अधिक प्रो. एमयू रब्बानी को 61 वोट, दूसरे नंबर प्रो. फैजान मुस्तफा को 53 और तीसरे नंबर प्रो. नईमा खातून को 50 वोट मिले हैं। ये नाम नवंबर 2023 में भेजे जा चुके हैं। अभी तक कुलपति पद के लिए इन पर मुहर नहीं लगी है। प्रो. रब्बानी एएमयू के जेएन मेडिकल कालेज में कार्डियोलाजी विभाग के चेयरमैन भी रह चुके हैं। प्रो. फैजान मुस्तफा विधि विभाग के प्रोफेसर रहे हैं। जबकि प्रो. नईमा खातून वर्तमान में एएमयू के वीमेंस कालेज की प्रिंसिपल हैं।

कोर्ट में भी चल रहा है विवाद

एएमयू कुलपति के पैनल के लिए हुई ईसी और कोर्ट की बैठकों की अध्यक्षता कार्यवाहक कुलपति प्रो. मोहम्मद गुलरेज ने की थी। कुलपति पद के लिए प्रो. नईमा खातून ने भी दावेदारी की थी। प्रो. नईमा खातून कार्यवाहक कुलपति प्रो. मोहम्मद गुलरेज की पत्नी भी हैं। उन्होंने अपनी पत्नी के लिए दोनों बैठकों में पैनल के लिए वोट भी डाला था और अपनी उपस्थिति में पैनल भी बनवाया। इस पर आपत्ति जताते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थीं। इस पर अंतिम सुनवाई 18 मार्च को होनी हैं। कोर्ट ने मामला लंबित होते हुए विजिटर यानी राष्ट्रपति को विवेकाधिकार के तहत कुलपति नियुक्ति करने के भी निर्देश दिए हैं, लेकिन कुलपति की नियुक्ति होने पर हाईकोर्ट का आदेश प्रभावी रहेगा।

गरीबी से जूझते हुए कश्मीर की तौहीदा ने महिलाओं के कारोबार करने के सपनों को किया साकार

June 21, 2023 | By Shireen Bano
गरीबी से जूझते हुए कश्मीर की तौहीदा ने महिलाओं के कारोबार करने के सपनों को किया साकार

जो लोग आर्थिक तंगी के बावजूद अपने लक्ष्य को सामने रखकर संघर्ष करने की क्षमता रखते हैं, ऐसे लोग हमेशा सफल होते हैं। सफलता उनसे कभी मुंह नहीं मोड़ती. कश्मीर कभी ऐसा हुआ करता था, जब वहां से गोलियों की आवाजें सुनाई देती थीं, लेकिन आज कश्मीर घाटी से कामयाबी की कहानी सामने आ रही है. हर दिन की हड़ताल और कश्मीर बंद अब बीते दिनों की बात हो गई है. अब वहां के लोगों को देश के साथ खड़े होने पर गर्व है।’ और घाटी में शांति, प्रगति और खुशहाली जारी है।

कश्मीर के युवाओं के पास ज्यादा संसाधन नहीं हैं, फिर भी वह कारनामे अंजाम दे रहे हैं, चाहे वह अपने कैरियर में नई ऊंचाइयों को छूना हो या समाज के जरूरतमंदों की मदद करना और उनके सपनों को उड़ान देना हो। और आने वाले दिनों में  देश के निर्माण में उनकी भूमिका भी कम नहीं होगी।

ऐसी ही एक कहानी है घाटी के एक मजदूर की बेटी तोहिदा अख्तर की।

तौहिदा अख्तर के पिता घरेलू नौकर के रूप में काम करके अपनी आजीविका कमाते थे, जिसके कारण उनके परिवार का गुजारा मुश्किल से हो पाता था। उनके घर में हमेशा पैसे की कमी रहती थी। यही कारण है कि तौहीदा को 12वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। वह अपने परिवार और भाई-बहनों के लिए कुछ करना चाहती थी। इसे याद करते हुए 30 वर्षीय ताहिदा कहती हैं, “मेरे पिता एक मजदूर थे और मुझे पढ़ाने का खर्च नहीं उठा सकते थे। हालांकि, मैंने घर पर खाली बैठने से इनकार कर दिया और बामिना इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (आईटीआई) में दाखिला लिया।)

वह कहती हैं कि मैंने यहां बहुत मेहनत से पढ़ाई की और मेहनत का अच्छा फल मिला, मैं अपनी कक्षा में अव्वल रही। जिससे मुझे जीवन में नई चीजों को आजमाने का आत्मविश्वास मिला।  लेकिन यह यात्रा मेरे लिए आसान नहीं थी, कई बार मेरे पास बस से सफर  करने के लिए भी पर्याप्त पैसे नहीं होते थे। हालाँकि, कठिन समय ने मुझे अपने भाइयों और बहनों को अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए मजबूर किया। “मुझे अपने सपने को आगे बढ़ाने और कड़ी मेहनत करने के लिए प्रेरित किया।

तोहिदा के तीन बड़े भाई और एक छोटी बहन है। उन्हें पहली सफलता तब मिली जब उन्होंने ज़ैनब इंस्टीट्यूट, मासूमा द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में भाग लिया। वह कहती हैं, ”मैंने प्रतियोगिता जीती और पुरस्कार के रूप में एक नई सिलाई मशीन मिली, जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। मैंने अपने हुनर से फायदा उठाया और सिलाई शुरू कर दी। इससे मुझे अच्छी आमदनी  होने लगी। इसके बाद तौहीदा ने एक छोटा सा बुटीक खोला , जो अब एक सफल उद्यम है और इसमें लगभग 12 महिलाओं को रोजगार मिलता है।

लेकिन सिर्फ अपने और अपने परिवार के लिए अच्छा कमाना ही काफी नहीं था। इसलिए तौहीदा ने त गरीब महिलाओं को सशक्त बनाने का फैसला किया और इस तरह लावापुरा में एक प्रशिक्षण केंद्र खोला।

तोहिदा कहती हैं, मेरे बुटीक में 12 कर्मचारी हैं। मैं सिलाई और मेंहदी की कला सिखाती हूं। मैंने 1,150 से अधिक लड़कियों को प्रशिक्षित किया है और बहुत कम फीस लेती  हूं। मैं गरीबों या अनाथों से फीस नहीं लेती तोहिदा शाइनिंग स्टार नाम से एक सोसायटी भी चलाती हैं, जिसके जरिए वह अपने बुटीक या आईटीआई में महिलाओं को मुफ्त ट्रेनिंग देती हैं।  हाल ही में उन्होंने 80 लड़कियों के लिए तीन महीने का मुफ्त फैशन डिजाइनिंग कोर्स और 15 लड़कियों और तीन लड़कों ।