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सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला, किसको मिलना चाहिए आरक्षण और किसको नहीं ? अब राज्य सरकारें SC/ST लिस्ट में वर्गीकरण करके कर सकती है तय

August 31, 2024 | By Maati Maajra
सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया फैसला, किसको मिलना चाहिए आरक्षण और किसको नहीं ? अब राज्य सरकारें SC/ST लिस्ट में वर्गीकरण करके कर सकती है तय

“जाति के बजाय, आर्थिक कारकों, “जीवन स्तर”, व्यवसाय, उपलब्ध सुविधाओं आदि के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षण एक परिवार में केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिए। यदि किसी पीढ़ी ने कोटा लाभ का लाभ उठाया है तो अगली पीढ़ी को आरक्षण उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए।“

गुरूवार 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण और SC लिस्ट को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने बहुमत के फैसले में 2004 के ई.वी. चिन्नैया फैसले को खारिज कर दिया। जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि राज्य विधानसभाएं प्रवेश और सार्वजनिक नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत नहीं कर सकती हैं।

मामले पर सुवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि, “अनुसूचित जातियां एक एकीकृत या समरूप समूह नहीं हैं।“ राज्य सरकारें Sc, St में मौजूद उन जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए जो बड़े स्तर पर भेदभाव और पिछड़ेपन का समाना कर रही है उन्हें Sc, ST लिस्ट से उप-वर्गीकृत कर सकती है। उन्होंने कहा, “राज्य भेदभाव या पिछड़ेपन की विभिन्न डिग्री की पहचान कर सकते हैं और अनुसूचित जातियों के उप-वर्गों को अधिक लाभ पहुंचाने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। इससे राष्ट्रपति को अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जातियों की पहचान करने के विशेष अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा। राज्यों की उप-वर्गीकरण करने की शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।“

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि, “राज्य इस शक्ति का इस्तेमाल केवल अपनी मर्जी से नहीं कर सकता। इसके लिए अनुभवजन्य डेटा होना चाहिए। सात न्यायाधीशों की पीठ के फैसले ने तमिलनाडु विधानसभा की विधायी क्षमता को अरुंथथियार आरक्षण अधिनियम लागू करने के लिए भी हरी झंडी दे दी है। हालांकि इस मामले पर फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने अपनी अलग राय रखी और कहा कि इस मामले में न्यायालय असमानों के बीच समानता के प्रश्न पर विचार कर रहा है।

उन्होंने कहा कि, “पिछड़े वर्गों को कोटा का लाभ देना आरक्षण के मूल उद्देश्य को ही नष्ट कर देता है। आरक्षण के लाभ पर सवार होकर संपन्नता की स्थिति में पहुंचे लोगों को अब राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित नहीं माना जा सकता। वे पहले ही उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां उन्हें आरक्षण के प्रावधानों से बाहर निकलकर एससी/एसटी की अधिक योग्य श्रेणियों को रास्ता देना चाहिए।

न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि उनका विचार है कि राज्य को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के भीतर भी क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए ताकि उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर रखा जा सके। न्यायमूर्ति गवई ने अपनी राय पढ़ते हुए कहा, “मेरे विचार से, केवल यही, और केवल यही, संविधान में निहित वास्तविक समानता तक पहुंचने में मदद करेगा।”

उन्होंने ई.वी. चिन्नैया मामले में दिए गए फैसले को खारिज करने के मुख्य न्यायाधीश के मत से सहमति जताते हुए कहा कि राज्य सरकारें अनुभवजन्य आंकड़ों के आधार पर आरक्षण देने के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत कर सकती हैं। बता दें कि शीर्ष अदालत ने 8 फरवरी को अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमण, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अन्य की दलीलें सुनने के बाद अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था।

वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए राज्यों ने ई.वी. चिन्नैया निर्णय की समीक्षा की मांग की है।  जिसमें 2004 में निर्णय दिया गया था कि सभी अनुसूचित जाति समुदाय, जो सदियों से बहिष्कार, भेदभाव और अपमान झेल रहे हैं। एक समरूप वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।

इस खंडपीठ में न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र मिश्रा भी शामिल थे। पीठ ने 23 याचिकाओं पर सुनवाई की जिनमें पंजाब सरकार द्वारा पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली प्रमुख याचिका भी शामिल थी।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति गवई की बात पर सहमती जताई कि, ई.वी. चिन्नैया के फैसले को खारिज कर दिया जाना चाहिए। वे न्यायमूर्ति गवई से सहमत थे कि एससी/एसटी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक नीति होनी चाहिए। वहीं न्यायमूर्ति सतीश चन्द्र शर्मा ने बहुमत की इस राय से सहमति व्यक्त की कि राज्यों के लिए आरक्षण के प्रयोजनार्थ अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करना संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है, बशर्ते कि इसका समर्थन अनुभवजन्य आंकड़ों से हो।

एससी/एसटी के लिए क्रीमी लेयर सिद्धांत के अनुप्रयोग पर  न्यायमूर्ति शर्मा ने जे. गवई से सहमति व्यक्त की कि “एससी/एसटी के भीतर मूलभूत समानता की पूर्ण प्राप्ति के लिए एससी/एसटी समुदायों के बीच क्रीमी लेयर की पहचान एक संवैधानिक अनिवार्यता होनी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने भी यही राय व्यक्त की। न्यायमूर्ति गवई,  नाथ, मिथल और शर्मा ने अनुभवजन्य आंकड़ों के आधार पर अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करने के राज्यों के अधिकार के मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीश से सहमति जताई। उन्होंने कहा कि क्रीमी लेयर सिद्धांत को एससी/एसटी पर लागू किया जाना चाहिए।

हालांकि अकेली न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने सात न्यायाधीशों वाली पीठ में इस मामले को लेकर असहमति जताई। न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी ने अपने असहमति नोट में कहा कि “राज्य अनुसूचित जाति सूची में केवल अनुसूचित जाति के भीतर कुछ समूहों की पहचान करके और उन्हें वरीयता कोटा देकर “छेड़छाड़” नहीं कर सकते। कोटा पूरे अनुसूचित जाति समुदाय के लिए है। राज्य इस आधार पर राष्ट्रपति सूची में फेरबदल नहीं कर सकता कि वह अनुसूचित जाति समुदाय के कुछ समूहों को ऊपर उठाने की कोशिश कर रहा था जो बाकी लोगों से बदतर स्थिति में हैं।“ उन्होंने आगे कहा, “अनुसूचित जाति समुदाय एक समरूप समूह है जिसे राष्ट्रपति की अधिसूचना द्वारा अस्तित्व में लाया गया है। अनुसूचित जातियों को एक विशेष दर्जा प्राप्त है। यह विभिन्न समूहों का एक मिश्रण है। आरक्षण देने में कोई भी बदलाव केवल राष्ट्रपति की अधिसूचना के माध्यम से ही किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक कारणों से अनुसूचित जाति सूची के साथ छेड़छाड़ से बचने के लिए राज्य की शक्ति को सीमित कर दिया गया है।

पीठ की चौथी पृथक राय में न्यायमूर्ति पंकज मिथल ने बहुमत की राय से सहमति जताते हुए आरक्षण नीति में व्यापक बदलाव का सुझाव दिया। उन्होंने कहा, “जाति के बजाय, आर्थिक कारकों, “जीवन स्तर”, व्यवसाय, उपलब्ध सुविधाओं आदि के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षण एक परिवार में केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिए। यदि किसी पीढ़ी ने कोटा लाभ का लाभ उठाया है  तो अगली पीढ़ी को आरक्षण उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए।“

शीर्ष अदालत ने ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में 2004 के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार करने के संदर्भ में सुनवाई की। जिसमें यह माना गया था कि एससी और एसटी समरूप समूह हैं और इसलिए राज्य इन समूहों में अधिक वंचित और कमजोर जातियों के लिए कोटा के अंदर कोटा देने के लिए उन्हें आगे उप-वर्गीकृत नहीं कर सकते हैं।

चिन्नैया मामले में दिए गए निर्णय में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों का कोई भी उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन होगा। 2004 के फैसले में कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत केवल संसद ही अनुसूचित जातियों को राष्ट्रपति सूची से बाहर कर सकती है न कि राज्य विधानसभाएं। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को यह अनुमति दे दी है कि वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में भी वर्गीकरण कर सकती है।

(Dalit Times)

सच्चे बचपन की मुस्कान, बालश्रम पर पूर्ण विराम

July 12, 2024 | By Vaagdhara
सच्चे बचपन की मुस्कान, बालश्रम पर पूर्ण विराम

बालश्रम निषेध दिवस हर वर्ष विश्वभर में मनाया जाता है| इसका मुख्य उद्देश्य बच्चों में बालश्रम के प्रति सजगता बढ़ाना है और समाज का उनके प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण में जागरूकता लाना है। इस संदेश को पहुंचाने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों, गतिविधियों और जागरूकता अभियानों का आयोजन किया जाता है ।

हमारे आदिवासी क्षेत्र के बच्चों में अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता की कमी होती है, जिसके कारण वे बालश्रम जैसी समस्या एवं उससे उत्पन कुप्रभावओ को समझने से वंचित रह जाते है |  बच्चों के अधिकार एवं उनकी सुरक्षा मानवीय समाज के लिए अनिवार्य है | आदिवासी समुदाय के बच्चों के लिए सुरक्षित वातावरण तैयार करना एवं उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पोषण की देखभाल करना अनिवार्य है।

इसी कड़ी में वाग्धारा संस्था प्रत्येक वर्ष अपने कार्यक्षेत्र में बालश्रम निषेध दिवस के अवसर पर इस महत्वपूर्ण विषय पर सामाजिक संवाद को बढ़ावा देते हुए समुदाय और विभिन्न हितधारकों को बच्चों के समान अधिकारों के प्रति जागरूकता के लिए प्रेरित करते हैं ताकि आदिवासी समुदाय के कई बच्चे जो अपने अधिकारों से वंचित एवं कई प्रकार की समस्याओं से पीड़ित होते है जैसे : शिक्षा में असमानता, बचपन में श्रमिकता, बाल विवाह कुप्रथा और बाल श्रम का सामना करना पड़ रहा है ,उक्त समस्याओं से निपटने एवं बाल अधिकारों को सुनिश्चित करने व गाँवो में बाल मित्र वातावरण निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते है।

इस वर्ष के विषय “आइए अपनी प्रतिबद्धताओ पर कार्य करे: बालश्रम को समाप्त करे को ध्यान में रखते हुए, वाग्धारा संस्था द्वारा राजस्थान,मध्यप्रदेश एवं गुजरात राज्य के 1168  गाँवो में बालश्रम निषेध दिवस का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न प्रकार की बाल संवेदी गतिविधियाँ संचालित की गयी I जिसमें बाल स्वराज समूह सदस्य, ग्राम स्वराज समूह सदस्य, सक्षम समूह सदस्य, कृषि एवं आदिवासी स्वराज संगठन सदस्य, अभिभावक एवं अन्य हितधारकों सहित लगभग 80 हजार से ज्यादा लोगों ने सहभागिता निभाई I कार्यक्रम के दौरान बच्चों द्वारा बालश्रम करवाए जाने से उनके शारीरिक, मानसिक दुष्परिणामो एवं अधिकारो पर बच्चों को जागरूक किया गया, स्थानीय स्तर पर बालश्रम, पोषण एवं स्वास्थ्य जैसी समस्याओ को सामुदायिक प्रयासों से कैसे हल किया जा सकता है,  इसके बारे में ग्राम स्वराज समूह के सदस्यों ने बताया की बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, हमें ऐसी समस्याओ के समाधान के लिए समुदाय स्तर पर जागरूकता एवं निर्णय लेना होगा ताकि बच्चों का बचपन सुरक्षित हो सके | इसके साथ बच्चों के स्वास्थ्य एवं पोषण के लिए घर घर पोषण बाड़ी लगाई जाये, ताकि बच्चों को पोष्टिक फल और  सब्जियां मिल सके, जिससे बच्चो के स्वास्थ्य व् पोषण को बेहतर बनाया जा सकता है | इसके साथ ही परिवार की बच्चों के प्रति जिम्मेदारियों एवं आंगनबाड़ी स्तर पर बच्चों के विकास से संबधित गतिविधियों से अभिभावकों को अवगत करवाया गया ताकि घर पर भी बच्चों के विकास पर ध्यान दिया जा सके | इसके साथ घर परिवार में बच्चों की भागीदारी का ध्यान रखे ताकि शुरू से ही उनको एक मंच प्रदान हो जिससे वे अपने बोलने,आत्मविश्वास, खुल कर अपनी बात रखने जैसे कौशलो को ग्रहण कर पाए।

गाँव स्तर पर बालश्रम के विरोध एवं रोकथाम  को लेकर जागरूकता रैलीयां भी निकाली गयी और बाल स्वराज समूह के बच्चों ने भी अनेक प्रकार की गतिविधियों में भागीदारी निभाई, जिसमे बालश्रम के दुष्परिणामो एवं रोकथाम पर नाटक प्रस्तुत किये, स्थानीय (वागड़) की कविताए, खेल, संगीत, सरकारी योजनाओ पर विस्तार पूर्वक संवाद किया गया | इसके साथ ही बैठक के दौरान बच्चों द्वारा ग्राम स्तर एवं स्कूल स्तर की समस्याओ को लेकर आपस में और ग्राम स्वराज समूह एवं सक्षम समूह के  सदस्यों के साथ संवाद किया | जिसमें मुख्यतः निकल कर आया की समुदाय में कुछ परिवार बालश्रम में लिप्त है जिससे बच्चों की पढाई एवं विकास वाधित हो रहा है | इसके साथ स्कूल स्तर पर बालक बालिकाओ के लिए पृथक-पृथक शौचालय नही होना, जहाँ शौचालय है वे उपयोग लायक नही है एवं शौचालय में पानी की व्यवस्था नही होने के कारण सफाई नही होना, जिसके कारण बड़ी उम्र की बालिकाओ की उपस्तिथि कम रहने एवं ड्रापआउट जैसे समस्या पनपने लगती है तथा ड्रॉपआउट के कारण बालश्रम जैसी समस्या पैदा होने लगती है एवं स्थानीय विद्यालयों में पर्याप्त शिक्षको का नही होना, जिसके कारण बच्चे प्राइवेट विद्यालयों की तरफ रूख करने लगते है | खेल मैदान का नही होना एवं खेल मैदान जहाँ है वहां पर चार दिवारी का नही होना, स्कूल में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था नही होना, पीने के पानी में अत्यधिक फ्लोराइड की मात्रा पाई जाती है, जिसके कारण अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती है | इन सभी विषयों पर गहनता के बाद बाल विवाह, बाल श्रम जैसी कुप्रथाओ को रोकने के लिए ग्राम स्वराज समूह एवं बाल स्वराज समूह के सदस्यों ने शपथ ली, ताकि ग्राम स्तर पर बाल मित्र वातावरण निर्माण की पहल की जा सके | इन सभी मुद्दों पर चर्चा के बाद ग्राम स्वराज समूह एवं सक्षम समूह के सदस्यों के साथ मिलकर इन मुद्दों को लेकर एक आग्रह पत्र तैयार किया गया और आग्रह पत्र पर सभी से राय ली गई | जिसमे सभी मुद्दो का गाँव स्तर, पंचायत स्तर, पंचायत समिति एवं जिलास्तर के हिसाब से वर्गीकरण कर सूचि तैयार की गई | वर्गीकरण के बाद इन मुद्दों के समाधान के लिए प्रस्ताव तैयार किये गए | प्रस्ताव को लेकर ग्राम स्वराज समूह और कृषि एवं आदिवासी स्वराज संगठन के सदस्यों को जिम्मेदारी दी गई, ताकि जल्द इनका समाधान किया जा सके|

बौद्ध विहार नालंदा को किसने तोड़ा था, ब्राह्मणों ने या मुस्लिम आक्रमणकारियों ने?

July 12, 2024 | By Sushma Tomar
बौद्ध विहार नालंदा को किसने तोड़ा था, ब्राह्मणों ने या मुस्लिम आक्रमणकारियों ने?

नालंदा को किसने तोड़ा इसे लेकर सोशल मीडिया पर मतभेद शुरू हो गए हैं। इसे लेकर दो बातें कही जा रही है पहली यह की नालंदा को ब्रह्मणों ने तोड़ा औऱ दूसरा ये की नालंदा को मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने तुड़वाया था।

सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक में नालंदा विश्वविद्यालय इस वक्त छाया हुआ है। क्योंकि हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के राजगीर में नालंदा यूनिवर्सिटी का इनोग्रेशन किया। इस वक्त लोगो को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि बुद्ध की इस धरती यानी भारत के साथ आज दुनिया के सभी देश कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहते है। 19 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी के इनोग्रेशन के दौरान ये भी कहा कि नालंदा विश्वविद्यालय वसुधैव कुटुंबकम की भावना का एक सुंदर प्रतीक है।

एक वक्त पर नालंदा भारत की पंरपरा और पहचान का जीवंत केंद्र हुआ करती थी। पीएम मोदी यह बात उस नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में बोल रहे थे जो अब खंडहर हो चुका है लेकिन अपने आप में यह खंडर एक इतिहास समेटे हुए है। बता दें कि हाल ही में जिस नालंदा यूनिवर्सिटी का इनोग्रेशन किया गया है वह नालंदा के खंडहरों से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

पीएम मोदी ने नालंदा यूनिवर्सिटी को प्राचीन नालंदा की शिक्षा परंपरा को पुनर्जीवित करने और इसे एक अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित करने का उद्देश्य बताया। इसका मकसद वैश्विक शिक्षा के क्षेत्र में भारत को पुनः एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाना है और एशियाई सभ्यता के अध्ययन को बढ़ावा देना है।

किसने तोड़ा नालंदा को ?

इतिहास कहता है कि नालंदा एक प्रसिद्ध संस्थान था जिसका संबंध बौद्ध धम्म से था। जहाँ बौद्ध धम्म के महायान अध्ययन और प्रचार पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। हालांकि 12वी शताबदी में इसे तोड़ दिया गया। लेकिन इस घरोहर को किसने तोड़ा इसे लेकर सोशल मीडिया पर मतभेद शुरू हो गए हैं। इसे लेकर दो बातें कही जा रही है पहली यह की नालंदा को ब्रह्मणों ने तोड़ा औऱ दूसरा ये की नालंदा को मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने तुड़वाया था।

JNU में इतिहास की प्रोफेसर रूचिका शर्मा ने और कुछ विद्वानों और इतिहासकारों, जैसे श्रीधर वेंकट राघवन ने लामा तारानाथ का हवाला देते हुए यह दावा किया है कि नालंदा का विनाश ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध धम्म के प्रति शत्रुता के कारण किया गया था। जिसका जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार दीलीप मंडल ने कहा कि आपकी इतिहास लेखन की विधि गलत है. नालंदा को जलाने का आरोप ब्राह्मणों पर लगाना इतिहास को सिर के बल खड़ा करने वाली बात है. अल्पसंख्यकवाद के चक्कर में सवर्ण वामपंथी इतिहासकार ये करते हैं. भारत में इतिहास लेखन पर उनका ही कब्जा है. आपने दो तिब्बती सोर्स के आधार पर जो निष्कर्ष निकाला है वह संदिग्ध है.

नालंदा पर जब बख्तियार खिलजी ने आक्रमण किया तब तक वहां पाल राजवंश  का शासन था. नालंदा और आसपास के इलाके पर कभी ब्राह्मणों का राज नहीं रहा. इससे पहले के चार सौ साल में यहां अधिकतर समय बौद्ध राजा रहे. पाल राजवंश भी बौद्धों का है. नालंदा को जलाने का आरोप आप ब्राह्मणों पर कैसे लगा रही हैं?

वह आगे लिखते हैं कि मूर्तियों को तोड़ना या स्ट्रक्चर को नष्ट करना या ग्रंथों को जलाना ब्राह्मण विधि नहीं है बुद्ध की मूर्ति तोड़ने की सबसे ताजा घटना भी अफगानिस्तान की है. लिखित इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं है कि ब्राह्मणों ने बुद्ध की मूर्ति तोड़ी या मठ जलाए. नालंदा के विध्वंस पर बाबा साहब को पढ़ा जाना चाहिए. कृपया उनकी रचनावली का वॉल्यूम तीन देखें. उन्होंने इस विनाश के लिए स्पष्ट तौर पर मुस्लिम हमलावरों को जवाबदेह बताया है.

नालंदा और डॉ आंबेडकर

आखिर में जब हम इन सारी चीजो का निष्कर्ण निकालते हैं तो हमें बाबा साहेब अंबेडकर की राइटिंग्स मिलती है जिसमें सिंबल ऑफ नॉलेज डॉ. अंबेडकर ने लिखा है कि मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्वविद्यालय और अन्य बौद्ध स्थलों को नष्ट किया था।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश के लिए स्पष्ट रूप से 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी को जिम्मेदार ठहराया, जिसके अनुसार यह आक्रमण बौद्ध धम्म को समाप्त करने का प्रयास था, जिससे बौद्ध धर्म और उसकी शिक्षा प्रणाली को गंभीर नुकसान हुआ। आंबेडकर ने मुस्लिम आक्रमणकारियों को बौद्ध धम्म के पतन का मुख्य कारण माना है।

नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय बनाया जाए

इसी के साथ दिलीप मंडल ने एक नालंदा को बौद्ध विश्वविद्यालय बनाने की मांग भी कर डाली है। उन्होंने लिखा कि, “जब जामिया और अलीगढ़ जैसे विश्वविद्यालय मुस्लिम विश्वविद्यालय हो सकते हैं तो नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय क्यों नहीं?” उनका यह सवाल भारत में धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहरों की पहचान और उन्हें संरक्षित करने की दिशा में एक विचारणीय पहल है। इस सवाल से यह बात उभरती है कि यदि कुछ विश्वविद्यालय विशिष्ट धार्मिक समुदायों की पहचान के रूप में स्थापित हो सकते हैं, तो बौद्ध धम्म की प्राचीन और महत्वपूर्ण धरोहर, नालंदा विश्वविद्यालय, को बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता क्यों नहीं दी जा सकती है?  क्या इस परियोजना का उद्देश्य केवल वैश्विक प्रतिष्ठा हासिल करना है, या इसके माध्यम से स्थानीय समाज और उनके हितों का भी ध्यान रखा गया है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि किसी भी बड़े परियोजना के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का ध्यान रखना आवश्यक है, खासकर जब वह परियोजना एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ी हो

बौद्ध धम्म और नालंदा विश्वविद्यालय

प्राचीन युग में नालंदा विश्वविद्यालय भारत का एक प्रमुख शिक्षण संस्थान था, जो लगभग 5वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक बिहार राज्य के नालंदा में स्थित था। यह विश्वविद्यालय विश्वभर के छात्रों और विद्वानों को गहन शिक्षा के लिए अपनी और आकर्षित करता था,‌  इसमें कई महत्वपूर्ण विषय की उच्च शिक्षा दी जाती थी, जिनमें बौद्ध धर्म, दर्शन, गणित, आयुर्वेद, और विज्ञान शामिल थे

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने की थी। इसके निर्माण के लिए विभिन्न शासकों ने  भरपूर सहयोग किया और इसे समय-समय पर विकसित किया जाता रहा है ताकि शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ता रहे। यहाँ अनेक मठ और विद्यालय थे, और इसकी लाइब्रेरी ‘धर्मगंज’ तीन प्रमुख भवनों में विभाजित थी जिनका नाम रत्नसागर, रत्नोदधि, और रत्नरंजक था।

नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध धम्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यहाँ महायान बौद्ध धर्म के अध्ययन और प्रचार पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान जैसे नागार्जुन, दिङ्नाग, और धर्मकीर्ति यहाँ शिक्षण और अध्ययन करते थे। यह विश्वविद्यालय बौद्ध धम्म के अध्ययन के लिए दूर-दूर से छात्रों और विद्वानों को आकर्षित करता था।

(Dalit Times)

आपातकाल : तब और अब

April 23, 2024 | By Ramsharan Joshi
आपातकाल : तब और अब

जंग है घोषित इमरजेंसी बनाम अघोषित इमरजेंसी ?

18 वीं लोकसभा के लिए चुनावों का पहला चरण हो चुका है; 62 प्रतिशत  से अधिक मतदान के साथ मतदाताओं ने  ईवीएम  के द्वारा 102 सीटों के भाग्य का फैसला दे दिया  है. शेष सीटों के लिए चुनाव प्रक्रिया 1 जून तक ज़ारी रहेगी. चुनावों के शोर के बीच मोदी -भक्त और भाजपा समर्थक अक़्सर इंदिरा गांधी के शासन काल की इमरजेंसी या आपातकाल का तल्ख़ी के साथ याद दिलाने से चूकते नहीं हैं. 25 जून, 24 आनेवाला है.  25 जून 1975 में  लगी  इमरजेंसी को उस रोज़ आपातकाल के 49 वर्ष पूरे हो जाएंगे. बेशक़, लोकतांत्रिक  व्यवस्था  में किसी भी दल की इमरजेंसी ‘ नामंज़ूर’ है.  25  जून 1975 से 21 मार्च 1977 के इक्कीस मासी  कालखंड को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की   चुनौतीपूर्ण  लोकतांत्रिक यात्रा का ‘अंधकारग्रस्त पड़ाव’ ही कहा जायेगा. किसी को इससे इंकार नहीं है.

इस एक वर्ष कम आधी सदी के कालखंड में भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था और शासन शैलियों में अनेक बदलाव आये हैं. लेकिन, विगत एक दशक के मोदी- शासन शैली ने कई प्रकार के संदेह, आशंकाएं, भय , अनिश्चितता, राज्य के चरित्र में परिवर्तन जैसी संभावनाएं पैदा करदी हैं.  क्यों समाज के कतिपय क्षेत्रों  में ऐसी आशंका है कि  2024 के आम चुनाव अंतिम है ?; यदि मोदी -नेतृत्व को प्रचंड बहुमत मिलता है तो संविधान में आमूलचूल परिवर्तन हो जायेगा ?; क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारत को हिन्दू राष्ट्र की घोषणा का तोहफ़ा उनकी मातृ संस्था  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को उसकी अगले वर्ष जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर देंगे ? क्या भाजपा के लिए  वर्तमान चुनाव   ‘ करो या मरो ‘ का अनुष्ठान बन गया है ? क्या मोदी -शाह शासन देश को’ विपक्ष व प्रतिरोध मुक्त भारत’ बना कर रहेंगे ?

भययुक्त आशंकाओं के अलावा बहस इस पर भी है कि  क्या भारत में अघोषित इमरजेंसी का माहौल है? क्या देश में बहुसंख्यकवाद पर सवार तानाशाही है; क्या चुनावी अधिनायकवादी सत्ता का शासन है ? क्या मोदी हुकूमत को 21 वीं सदी का फासीवादी संस्करण कहा जाना चाहिए?; क्या अल्पसंख्यक समुदायों में विभिन्न हथकण्डों- नारों  से  ‘ दोयम दर्ज़ा   या सेकंड क्लास सिटीजन’ के भाव भरे जा रहे हैं?  क्या  मुख्यधारा का मीडिया अघोषित सेंसरशिप  का क़ैदी है?; क्या लोकतंत्र का अघोषित पटाक्षेप हो चुका है ? क्या भाजपा या मोदी विरोधियों को राष्ट्र या राज्य द्रोही  और गद्दार की नज़र से देखा जा रहा है ? क्या वाक़ई भारत 1975 में लौट रहा है ? ऐसे सवालों और आशंकाओं के बादल  देश के सामाजिक -राजनीतिक परिवेश पर छाए हुए हैं।

सबसे पहले इंदिरा- इमरजेंसी की पड़ताल करते हैं. जून, 1975 में इमरजेंसी की घोषणा से पहले देश का वातावरण बेहद आंदोलित था; इंदिरा शासन के ख़िलाफ़  समाजवादी -गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण उर्फ़ जे.पी.  के नेतृत्व में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का बिगुल बज  चुका था; मुशहरी आंदोलन, भारत नव निर्माण जैसे आन्दोलनों ने देश के सामाजिक – राजनीतिक तापमान को बहुत बढ़ा दिया था.इससे पहले, जनवरी  1971 के आमचुनावों में शानदार जीत और दिसंबर में पाकिस्तान  -विभाजन व बांग्लादेश के जन्म में भारत के निर्णायक रोल ने इंदिरा गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर पहुंचाने के साथ साथ अंतराष्ट्रीय मंच का एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में भी  स्थापित कर दिया था. यह वह समय था जब दुनिया ‘दो ध्रुवीय ‘ थी और सोवियत संघ व अमेरिकी शिविरों में बंटी हुई थी. लेकिन, इंदिरा गांधी ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के परचम तले भारत को चमकाये रखा था. ज़ाहिर है, अमेरिकी शिविर बेहद उखड़ा हुआ था. शीत  युद्ध का दौर और  सी.आई. ए.( अमेरिकी गुप्तचर संस्था) और के. ज़ी. बी. ( रूसी गुप्तचर संस्था) के माध्यम से भी प्रॉक्सी जंग लड़ी जा रही थी. भारत भी इसका अपवाद नहीं था. . देश में ज़बर्दस्त रेल कर्मचारियों की हड़ताल हुई ,विभाजित होने के बावज़ूद  नक्सलबाड़ी आंदोलन ने शासक वर्ग के चूलें हिला कर रखी हुई थीं.देश की विभिन्न जेलों में बंद करीब 32 हज़ार राजनीतिककर्मियों का भी मुद्दा उभर रहा था.   भ्रष्टाचार का  मुद्दा भी केंद्र में आता जा रहा था. इंदिरा जी का ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा खोखला लगने लगा था. इस राष्ट्रव्यापी, विशेषतः हिंदी प्रदेश, असंतोष की पृष्ठभूमि में 1975 में समाजवादी नेता राजनारायण की एक चुनाव याचिका  की सुनवाई में इलाहबाद  उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री गांधी के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे दिया था. उत्तरप्रदेश की राय बरैली सीट से निर्वाचित इंदिरा जी का प्रधानमंत्री पद संकटों से घिर गया था.यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक यह प्रकरण पहुंच गया था. इसी बीच दिल्ली में आयोजित विपक्षी नेताओं की  एक सार्वजनिक सभा में  सम्पूर्ण क्रांति के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण ने अत्यंत गंभीर व संवेदनशील भाषण दिया था. इंदिरा गांधी से त्यागपत्र की मांग करने के साथ साथ  उन्होंने सेना, पुलिस और सरकारी अधिकारियों  -कर्मचारियों से भी अपील कर डाली  कि वे इंदिरा  सरकार के अवैध और अनैतिक आदेशों का पालन न करें. उन्होंने देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश  ए.एन. रे  से भी कहा कि वे इलाहबाद  उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध  इंदिरा गांधी की याचिका को मत सुने. जयप्रकाश जी की इस अपील के बाद तो पारा तक़रीबन अपने शिखर पर था. इस बढ़ते खतरे से  निपटने के लिए प्रधानमंत्री गाँधी ने  25 जून को संविधान सम्मत ‘आंतरिक इमरजेंसी’ को लागू कर दिया। उस समय राष्ट्रपति थे फखरुद्दीनअली अहमद। चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए. जे. पी. भी. मेरी दृष्टि में संपूर्ण क्रांति बिल्कुल भी क्रांति नहीं थी। एक प्रकार से 2012_ 13का भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हज़ारे आंदोलन का मूल रूप था। जे पी आंदोलन से ही राष्ट्रीय राजनीति में संघ और जनसंघ की अस्पृश्यता दूर होने लगी थी। जयप्रकाश जी सरल राजनीतिक प्रकृति के राजनेता थे।उन्होंने संघ परिवार के असली मंसूबों पर शंका नहीं की थी।फलस्वरूप वे जे पी आंदोलन में घुलमिल गए थे। संघ परिवार की विस्तारित भूमिका को अन्ना आंदोलन में देखा जा सकता है।इस भूमिका का क्लाइमैक्स है मोदी सत्ता का उदय ।

अब एक काल्पनिक दृश्य. यदि वर्तमान दौर में जय प्रकाश जी के स्वरों में  विपक्ष के शिखर नेता( शरद पवार, खड़गे, ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, स्टालिन, सीताराम येचूरी, लालू यादव, फारुख अब्दुल्ला आदि )  प्रधानमंत्री मोदी से इस्तीफ़े की मांग के साथ साथ राष्ट्र के आधारभूत बलों (फोर्सेज) से   कहें कि वे सरकार के अवैध व अनैतिक आदेशों का पालन न करें, तो मोदी-शाह सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिक्रिया कैसी  रहेगी ? क्या वह सेना, पुलिस और अधिकारीयों से की गई अपील को सहन कर सकेगी? क्या वह उन्हें तुरंत ही जेल की सलाखों के पीछे नहीं डाल देगी ? यह सवाल इसलिए पैदा हो रहा है कि सरकार या मोदी जी की आलोचना को देश-राष्ट्र की आलोचना का पर्याय बनाया जा रहा है. राष्ट्र द्रोह का केस लगा कर गिरफ्तार किया जाता है. जे. पी. की तर्ज़ में सेना और पुलिस को नाफ़रमानी  के लिए कहना स्वयं में संगीन मामला है. एक प्रकार से  देश की निर्वाचित सरकार व व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत करने  का आह्वान  जैसा है. इसे कोई भी संविधान सम्मत सरकार सहन कैसे कर सकती है? अगर, मौज़ूदा दौर में ऐसी स्थिति पैदा होती है तो दिल्ली का सत्ता प्रतिष्ठान पल भर के लिए सहन नहीं कर सकेगा.वह  विपक्ष को राष्ट्र विरोधी के साथ साथ हिन्दू विरोधी, मुस्लिम व पाकिस्तान परस्त, विदेशी ताक़तों का दलाल जैसे तमगों से जड़ देगा.

जयप्रकाश जी ने अपने भाषण में इंदिरा गांधी के फासीवाद के ख़िलाफ़ खड़े होने की बात कही थी. क्या आज़ का  सत्ता तंत्र स्वस्थ लोकतान्त्रिक  व उदारवादी है? क्या यह फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध खड़ा है ?  क्या यह लोकतंत्र के नाम पर समाज का ध्रुवीकरण कर नहीं रहा है ? क्या यह हर विरोधी आवाज़ को धर्म और हिंदुत्व के चश्में से नहीं देख रहा है ?  क्या चुनाव के दौर में  ई.डी., सी.बी. आई. जैसी सरकारी  एजेंसियों का दुरूपयोग नहीं  हो

किया जा रहा है?  क्या मुख्यमंत्री और मंत्रियों को जेलों में नहीं डाला गया है ? क्या बैंकों में विपक्ष के खातों पर पाबंदी नहीं लगाई है? क्या विभिन्न कारनामों से  विपक्ष को अपंग नहीं बना दिया गया है ? क्या चुनाव में ‘लेवल प्लेइंग फील्ड ‘ रह गया है ? क्या विपक्ष के लिए ‘ऊबड़-खाबड़ मैदान ‘ बना नहीं दिया गया है ? यह किस इमरजेंसी से कम है? क्या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में धर्म-मज़हब का इस्तेमाल हुआ था ? क्या 1977 के आम चुनावों में विपक्षी दलों के बैंक खातों पर पाबन्दी लगी थी ? क्या जेल में बंद जॉर्ज फर्नाडीज़ सहित अन्य विपक्षी नेताओं को  चुनाव लड़ने से रोका गया था ? क्या उनके यहां इन्कम  टैक्स जैसी संस्थाओं के छापे पड़े थे ? 1977 में चुनाव हारने के बाद इंदिरा जी ने शालीनता के साथ अपनी पराजय को स्वीकार किया था. सारांश में, उन्होंने जो कुछ किया, घोषित ढंग से किया था. क्या वर्तमान में ऐसा किया जा रहा है ?  आज निवर्तमान मोदी -मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है. इतना ही नहीं, एक भी सांसद नहीं है. क्या यह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध  परोक्ष सामाजिक+सांस्कृतिक + राजनैतिक इमरजेंसी नहीं है ? इंदिरा -इमरजेंसी  में ऐसा नहीं था. यदि भाजपा को 303या370सीटें नहीं मिलेगी तो क्या मोदी जी शालीनता के साथ सत्ता छोड़ देंगे? यह सवाल भी उठ रहा है। मोदी जी विनम्रतापूर्वक कुर्सी त्याग नहीं करने वाले हैं।लोगों में ऐसी आशंकाएं हैं।

बेशक, इंदिरा इमरजेंसी ने प्रेस पर  सेंसरशिप लगाई गई थी. कुलदीप नैयर जैसे कई वरिष्ठ पत्रकार गिरफ्तार भी हुए थे. इण्डियन एक्सप्रेस पर शिकंजा कैसा था. लेकिन, 26 व 27 जून, 75 को ऐसे भी दैनिक थे जिन्होनें सरकारी पाबंदियों के खिलाफ लिखा था. मुझे याद है, इंदौर से प्रकाशित प्रसिद्ध नई दुनिया के तत्कालीन संपादक राजेंद्र माथुर उर्फ़ रज्जू बाबू ने इमरजेंसी के विरुद्ध सात लेख लिख कर सत्ता तंत्र को हिला दिया था. उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया था . इमरजेंसी के दौरान मैंने स्वयं दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, लिंक, इकनोमिक पोलिटिकल वीकली में लेख लिखे थे. नई दुनिया में मेरा इंटरव्यू छपा था. मुझे याद नहीं, मेरे लेखों पर रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे चिंतक-लेखक सम्पादकों ने सेंसरशिप की कैंची चलाई हो! ऐसा भी समय आया था जब मेनस्ट्रीम के सम्पादक  निखिल चक्रवर्ती सहित कई सम्पादकों व पत्रकारों ने इमरजेंसी व सेंसरशिप का खुल कर विरोध करना शुरू कर दिया था. संपादकीय स्पेस को खाली छोड़ना शुरू कर दिया था. क्या  आज के मोदी -शाह दौर में  गोदी मीडिया का कोई स्वामी, सम्पादक, एंकर  सामने आ कर खुला विरोध करेगा ? क्या गोदी मीडिया ( टीवी+ प्रिंट ) मोदी जी के भाषण पर कैंची चला सकता है? क्या गोदी मीडिया में वित्त मंत्री के पति व विख्यात अर्थशास्त्री डॉ. प्रभाकर की चेतावनियों पर चर्चा की गई है ? क्या सीए जी (comptroller and auditor general of india) की रिपोर्टों में उजागर प्रकरणों को लेकर गोदी मीडिया में बहस हुई है ?  क्या चीन की कारस्तानियों को लेकर चर्चा करवाई गई ? क्या गोदी मीडिया के पत्रकारों ने प्रधानमंत्री से कभी पूछा है कि वे प्रेस वार्ता क्यों नहीं बुलाते हैं ? क्या गोदी मीडिया ने मोदी जी और शाह जी पूछा है कि वे चुनाव आयोग की आचार संहिता का यथावत पालन करते हैं? क्या गोदी मीडिया ने  चुनाव आयोग की कार्य शैली पर सवालिया निशान लगाया है ? गोदी मीडिया की यह कार्य शैली क्या दर्शाती है ? क्या यह आज़ाद मीडिया की प्रतीक है ? क्या इसे अघोषित सेंसरशिप नहीं कहा जाना चाहिए ? क्या कभी गोदी मीडिया ने पत्नोन्मुख लोकतंत्र और उभरती अधिनायकवादी प्रवृतियों पर चर्चा आयोजित की है ? प्रायः चैनलों पर भारत व पाकिस्तान और हिन्दू व मुसलमान  की लज़ीजदार बहसों को परोस दिया जाता है. मीडिया में ‘उत्तर सत्य मीडिया और उत्तर सत्य राजनीति ‘ की अपसंस्कृति का प्रभुत्व छाया हुआ है। दूसरे  शब्दों में,  ‘सत्य का  असत्य  और असत्य का  सत्य’ में सुविधानुसार मनभावन रूपांतरण की अपसंस्कृति की सत्ता फैली हुई है.सार तत्व यह है कि मौज़ूदा दौर में घोषित इमरजेंसी या आपातकाल नगण्य प्रतीत होते हैं. जंग में इंदिरा इमरजेंसी परास्त हो चुकी है.  तब क्यों  न मोदी -शाह दौर की   इमरजेंसी के काल खण्ड को घोषित इमरजेंसी से अधिक भयावह और विजेता घोषित किया जाए?

मीडिया कंपनी का नफरती अभियान और लोकतंत्र में चुनाव

March 06, 2024 | By Anil Chamadia
मीडिया कंपनी का नफरती अभियान और लोकतंत्र में चुनाव

“मीडिया महज नफरती संस्कृति का सौदा करने छोड़ दें तो लोग चुनाव कोलोकतंत्र का पर्व जैसा मानने लगेंगे।“

महात्मा गांधी अपने अखबार यंग इंडिया में लिखते हैं कि .. हमें वातावरण को नफरत मुक्त करना और हमें ऐसे अखबारों का वहिष्कार करना है जो कि नफरत फैलाते हैं और चीजों को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं..।

भारत में मीडिया कंपनियों के टीवी चैनलों द्वारा खुद से बनाई गई संस्था एनबीडीएसए ने 28 फरवरी 2024 को एक साथ तीन चैनलों के खिलाफ सात आदेश पारित किए हैं जिसमे यह कहा गया है कि इन चैनलों ने खबरों को तोड़ मरोड़ कर पेश किया और वे धर्म के आधार पर नफरत फैलाने के लिए दोषी है। यह संस्था नफरत फैलाने वाली खबरों के आरोप को सही पाकर हद से हद इनके खिलाफ जूर्माना कर सकती है। जबकि समाज में नफरत फैलाने की कोशिश के आरोप में मुकदमे और सजा का प्रावधान है। जूर्माना लगने के बावजूद क्या मीडिया कंपनियों के टीवी चैनल नफरत फैलाने से बाज आ सकते हैं और खास तौर से तब 2024 में लोकसभा का चुनाव की तैयारी चल रही है। खुद एनबीडीएसए ने यह माना है कि चैनलों द्वारा नफरत फैलाने की घटनाएं बढ़ती जा रही है। यह बात एनबीडीएसए ने 11 नवंबर 2022 को नफरती भाषण के विरुद्ध सावधान करते हुए अपने सदस्य चैनलों से कहा कि मीडिया का काम” लोगों को देश और समाज में जो कुछ घटित हो रहा है उसकी सही सही जानकारी देना है और लोगों को जागरुक करना है। एनबीडीएसए आगे लिखता है कि यह देखा जा रहा है कि चैनलो में धर्म, जाति ,लिंग के आधार पर नफरती भाषा का इस्तेमाल बढ़ा है।

एनबीडीएसए के बारे में

हिन्दी में इस संस्था को इस रुप में समझ सकते हैं कि यह टीवी चैनलों व डिडीटल चैनलों के द्वारा खुद की बनाई संस्था है जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ए. के सिकरी है और दूसरे महत्वपूर्ण पदों से सेवानिवृत अधिकारी है। स्वतंत्रता के बाद  जाति और धर्म के आधार पर नफरत फैलाना कानूनन अपराध की श्रेणी में आता है। इसके खिलाफ थाने में शिकायत की जाती है। न्यायालय में सुनवाई होती है। नफरत वाले भाषणों के आरोप में कई लोगों को सजा सुनाई गई है।लेकिन मीडिया कंपनियां इस तरह के अपराधों से मुक्त मानी जाती है। मीडिया कंपनियों के चैनल अपने खिलाफ पुलिसिया कारर्वाई को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मानते है। मीडिया  कंपनियां खुद के लिए आचार संहिता बनाने और उसका पालन करने के लिए भरोसा देती है। लेकिन मीडिया कंपनियों के खुद की आचार संहिता है कि वे किस तरह से लोगों को खबरें देंगी। वे अपनी कसौटी पर खरी उतर रही या नहीं इसकी निगरानी करने के लिए मीडिया कंपनियों ने ही संस्था  बनाई है जिसे एनडीएवीएस कहा जाता है।

नफरत के खिलाफ आदेश

28 फरवरी को जिन चैनलों के खिलाफ इस संस्था ने आदेश दिए हैं, वे टीवी टूडे ग्रुप का आज तक , अंबानी की कंपनी न्यूज 18  इंडिया और द टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप से जुड़ा टाइम्स नाऊ नवभारत है। न्यूज 18  इंडिया  ने “लव जेहाद बहाना, एक मज़हब निशाना? जैस चार हेडलाइन्स के साथ 16 नवंबर 2022 से 21 नंवबर 2022 तक कार्यक्रम चलाए।  नवभारत ने इसे लव तो बहाना हैहिन्दू बेटियां निशानाहै। यह श्रद्धा हत्या कांड को लेकर कार्यक्रम थे जिसमे एक उस युवक पर हत्या का आरोप था जिसका नाम आफताब है। आजा तक ने 30 मार्च 2023 को नालंदा में मुस्लिम समाज को निशाने पर रखा। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के  सीएनएन के साथ बातचीत के दौरान भारत के बारे में यह कहना चैनलों को उत्तेजित कर दिया कि भारत में धार्मिक समुदायों के हितों को संरक्षण देने से चूकता है तो उसके उल्टे नतीजे देखने को मिल सकते हैं।

इन सात आदेशों में एनडीएवीएस ने जो कहा है वह दरअसल मीडिया कंपनियों के चैनलों में आम बात हैं। दरअसल आदेश उन्हीं कार्यक्रमों को लेकर आते हैं जिनके विरुद्ध शिकायतें दर्ज की जाती है। लेकिन जहां नफरती भाषा संस्कृति के रुप स्वीकार कर ली गई है, उस स्थिति में शिकायत बेमानी हो जाती है। शिकायत तो अपवाद जैसी स्थिति में सतर्कता बरतने के लिए की जाती है।

राजनीति और मीडिया का गठबंधन

हिन्दी और भोजपुरी के कवि गोरख पांडे ने अपनी एक कविता में यह लिखा है कि साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं तो इसका मतलब है कि जितनी खून की बारिश होगी उतनी ही वोटो की भी बारिश होगी। वे राजनीति और साम्प्रदायिक दंगों के रिश्तों की पड़ताल करते हैं। लेकिन साम्प्रदायिक दंगे से पहले साम्प्रदायिक नफरत और तनाव की एक स्थिति तैयार की जाती है और वे लगातार बनी रहती है तो साम्प्रदायिक दंगे की जमीन पर अगुवाई करने वाली राजनीतिक- सामाजिक शक्तियां कामयाब हो जाती है।

साम्प्रदायिक तनाव और नफरत का मकसद राजनीतिक सत्ता हासिल करना है।क्या मीडिया कंपनियां भी इसी मकसद में सहायक होती है। दो बातों को यहां ध्यान में रखा जा सकता है। पहला यह प्रमाणित है कि साम्प्रदायिक दंगों में राजनीतिक संघों की भूमिका होती है। दूसरा महात्मा गांधी, भगत सिंह, डा. राम मनोहर लोहिया और डां. अम्बेडकर ने बहुत साफ साफ शब्दो में यह बताया है कि साम्प्रदिक दंगों में मीडिया की भूमिका होती है। इस समय यह देखा जाता है कि मीडिया और राजनीतिक संघ एक दूसरे के साथ गठबंधन में शामिल है। राजनीतिक संघों को सत्ता मिलती है और मीडिया को उसमें हिस्सेदारी मिलती है। यह हिस्सेदारी उनकी कमाई मेंभी जाहिर होती है। कहने के लिए सितंबर 2023 की स्थिति के अनुसार, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (एमआईबी) द्वारा 915 निजी सैटेलाइट टीवी चैनलों की अनुमति प्रदान की गई है। इसमें361 भुगतान वाले चैनल (भुगतान वाले 257 एसडी चैनल और भुगतान वाले 104 एचडीचैनल) और 543 फ्री टू एयर (एफटीए) चैनल शामिल हैं तथा लगभग 332 प्रसारक(भुगतान वाले42 प्रसारक और 290 एफटीए प्रसारकों सहित) हैं। लेकिन सच्चाई है कि मात्र बीसेक कंपनियों का टीवी चैनल के बाजार में वर्चस्व बना हुआ है। चैनलों  की कमाई का अंदाजा इससे लग सकता है कि वर्ष 2022 के दौरान, टीवी राजस्व 70,900 करोड़ रुपये का था, जिसमें से 31,800 करोइ रुपये विज्ञापन का राजस्व था।

मीडिया कंपनियां अपनी कमाई के लिए जगह बेचती है। मसलन अखबार विज्ञापन के लिए अखबार के पन्नों में जगह बेचते हैं तो टीवी चैनल समय बेचते हैं। राजनीतिक पार्टियां और उसके सहायक लालच और नफरत के लिए इन जगहों को खरीदते है और टीवी के जरिये के फैलाते हैं। मीडिया में एक शब्द बहुत प्रचलित हुआ था। वह पेड न्यूज था। पेड न्यूज का मतलब यह लगाया जाता था कि राजनीतिक पार्टियां मीडिया में जगह खरीद लेती है और मीडिया अपनी भाषा, डिजाईन और प्रस्तुति से उस जगह को राजनीतिक पार्टियों, व नेताओं के लिए इस्तेमाल करती रही है। वह लंबे समय तक चला और लोकतंत्र का डंका भी बजता रहा। अब मीडिया में जगह सत्ता की पना के लिए सुरक्षित कर लिया है। मीडिया का अपना कुछ नहीं दिखता है जो दिखता है वह खरीददारों की ही जगह दिखती है। अगर  मीडिया लोकसंभा के चुनाव के दौरान केवल ‘नफरती संस्कृति’ का सौदा करना छोड़ दे तो लोकतंत्र के लिए बड़ी बात होगी।

सरकारी और प्राइवेट नौकरी करने वालों को डॉ अम्बेडकर की ये बातें याद रखनी चाहिए

March 03, 2024 | By Maati Maajra
सरकारी और प्राइवेट नौकरी करने वालों को डॉ अम्बेडकर की ये बातें याद रखनी चाहिए

देश के भाग्य को आकार देने में श्रमिकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हर साल मई में श्रमिकों के सम्मान में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है। यह दिवस श्रमिक वर्गो का उत्सव है। जिसे अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक आंदोलनों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है। आज श्रमिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं उसका श्रेय डॉक्टर बाबा साहेब अंबेडकर को दिया जाता है।

‘इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी’ का गठन किया

बाबा साहेब अंबेडकर ने श्रमिकों के उत्थान और अधिकारों के लिए 1936 में “इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी” का गठन किया था। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाबा साहेब अंबेडकर मजदूर, गरीब, शोषित, पीड़ित हर हाशिये के व्यक्ति के प्रति कितने गंभीर थे। पहली बार अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस 1 मई 1886 को मनाया गया था। इस दिवस की मुख्य मांग का आधार था कि मजदूरों के लिए प्रति श्रम दिन केवल 8 घंटे होना चाहिए । इस प्रस्ताव को वाल्टीमेर (अमेरिका) के मजदूरो के कंवेंशन में पारित किया गया था ।

प्रति श्रम दिन केवल 8 घंटे होना चाहिए

भारत में पहली बार मज़दूर दिवस 1923 में मद्रास में मनाया गया था। श्रम विभाग की स्थापना नवंबर 1937 में हुई थी। बाबा साहेब अंबेडकर ने जुलाई 1942 में श्रम विभाग का कार्यभार संभाला था।  जब बाबा साहेब अंबेडकर ने श्रम विभाग सभाला था तब उस समय सिंचाई और बिजली के विकास के लिए योजना और नीति का निर्माण करना मुख्य चिंता थी।

1942 में जब बाबा साहेब अंबेडकर श्रम विभाग का कार्य संभाल रहे थे। तब उस समय बिजली प्रणाली विकास, हाइडल पावर स्टेशन साइटों, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक सर्वेक्षणों, बिजली उत्पादन और थर्मल पावर स्टेशन की समस्याओं की जाँच पड़ताल करने के लिए केंद्रीय तकनीकी पावर बोर्ड” (CTPB) का गठन करने का फैसला लिया गया था। इसके अलावा बाबा साहेब अंबेडकर ने वाल्टिमेर के कन्वेंशन की भांति फैक्ट्रियों में मजदूरों के 12 से 14 घंटे काम करने के नियम को बदल कर 8 घंटे  कर दिया था।

महिला श्रमिकों के लिए कानून बनाएं

महिला श्रमिकों के लिए भी बाबा साहेब अंबेडकर ने खान मातृत्व लाभ अधिनियम,  महिला श्रम कल्याण कोष, महिला और बाल श्रम संरक्षण अधिनियम, महिला श्रम के लिए मातृत्व लाभ और कोयला खदानों में भूमिगत कार्य पर महिलाओं के रोजगार पर प्रतिबंध की बहाली आदि जैसे कानून बनाए।

‘राइट टू स्ट्राइक’ को मान्यता दी

बाबा साहेब ने श्रम सदस्य के रुप में 1946 में केंद्रीय असेम्बली में न्यूनतम मजदूरी निर्धारण सम्बन्धी एक बिल पेश किया जो 1948 में जाकर देश का ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ बना। बाबा साहेब ने 1946 में “लेबर ब्यूरो” की स्थापना भी की। बाबा साहेब ने ही मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकार को स्वतंत्रता का अधिकार  माना और कहा कि “ मजदूरों को हड़ताल का अधिकार न देने का अर्थ है मजदूरों से उनकी इच्छा के विरुद्ध काम लेना और उन्हें गुलाम बना देना।“

मजदूरों का दुश्मन पूंजीवाद

लेकिन बम्बई प्रांत की सरकार मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के विरूद्ध थी। इसलिए बम्बई प्रांत की सरकार 1938 में मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के विरूद्ध “ट्रेड डिस्प्यूट बिल” पास करना चाहती थी। लेकिन बाबा साहेब “ ट्रेड यूनियन” के प्रबल समर्थक थे। बाबा साहेब का मानना था कि ट्रेड यूनियन भारत के मजदूरों के लिए जरुरी है। लेकिन वह यह बात भी अच्छे से जानते थे कि ट्रेड यूनियन भारत में अपना अस्तित्व खो चुका है। उनके अनुसार जब तक ट्रेड यूनियन सरकार पर कब्जा नहीं कर लेती तब तक वह मज़दूरों का भला कर पाने में अक्षम रहेंगी। और नेताओं की झगड़ेबाजी का अड्डा बनी रहेंगी। बाबा साहेब का मानना था कि भारत में मजदूरों का सबसे बडा दुश्मन पूंजीवाद है।

‘त्रिपक्षीय श्रम परिषद’ की स्थापना

डॉ अम्बेडकर ने श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा के उपायों को सुरक्षित रखने के लिए 1942 में ‘त्रिपक्षीय श्रम परिषद’ की स्थापना की। मजदूरों को रोजगार देने और और श्रमिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए श्रमिकों और नियोक्ताओं को समान अवसर दिया।  डॉ अंबेडकर ने बिजली क्षेत्र में ‘ग्रिड सिस्टम’ के महत्व और आवश्यकता पर जोर दिया, जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है। अगर आज बिजली इंजीनियर  ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहे हैं, तो इसका श्रेय डॉ अंबेडकर को जाता है। जिन्होंने श्रम विभाग के एक नेता के रूप में विदेशों में सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरों को प्रशिक्षित करने के लिए नीति तैयार की।