“जाति के बजाय, आर्थिक कारकों, “जीवन स्तर”, व्यवसाय, उपलब्ध सुविधाओं आदि के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षण एक परिवार में केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिए। यदि किसी पीढ़ी ने कोटा लाभ का लाभ उठाया है तो अगली पीढ़ी को आरक्षण उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए।“
गुरूवार 1 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण और SC लिस्ट को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया। भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने बहुमत के फैसले में 2004 के ई.वी. चिन्नैया फैसले को खारिज कर दिया। जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि राज्य विधानसभाएं प्रवेश और सार्वजनिक नौकरियों में आरक्षण देने के लिए अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत नहीं कर सकती हैं।
मामले पर सुवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि, “अनुसूचित जातियां एक एकीकृत या समरूप समूह नहीं हैं।“ राज्य सरकारें Sc, St में मौजूद उन जातियों को लाभ पहुंचाने के लिए जो बड़े स्तर पर भेदभाव और पिछड़ेपन का समाना कर रही है उन्हें Sc, ST लिस्ट से उप-वर्गीकृत कर सकती है। उन्होंने कहा, “राज्य भेदभाव या पिछड़ेपन की विभिन्न डिग्री की पहचान कर सकते हैं और अनुसूचित जातियों के उप-वर्गों को अधिक लाभ पहुंचाने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। इससे राष्ट्रपति को अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जातियों की पहचान करने के विशेष अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा। राज्यों की उप-वर्गीकरण करने की शक्ति न्यायिक समीक्षा के अधीन है।“
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि, “राज्य इस शक्ति का इस्तेमाल केवल अपनी मर्जी से नहीं कर सकता। इसके लिए अनुभवजन्य डेटा होना चाहिए। सात न्यायाधीशों की पीठ के फैसले ने तमिलनाडु विधानसभा की विधायी क्षमता को अरुंथथियार आरक्षण अधिनियम लागू करने के लिए भी हरी झंडी दे दी है। हालांकि इस मामले पर फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने अपनी अलग राय रखी और कहा कि इस मामले में न्यायालय असमानों के बीच समानता के प्रश्न पर विचार कर रहा है।
उन्होंने कहा कि, “पिछड़े वर्गों को कोटा का लाभ देना आरक्षण के मूल उद्देश्य को ही नष्ट कर देता है। आरक्षण के लाभ पर सवार होकर संपन्नता की स्थिति में पहुंचे लोगों को अब राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित नहीं माना जा सकता। वे पहले ही उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां उन्हें आरक्षण के प्रावधानों से बाहर निकलकर एससी/एसटी की अधिक योग्य श्रेणियों को रास्ता देना चाहिए।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि उनका विचार है कि राज्य को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के भीतर भी क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए ताकि उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के दायरे से बाहर रखा जा सके। न्यायमूर्ति गवई ने अपनी राय पढ़ते हुए कहा, “मेरे विचार से, केवल यही, और केवल यही, संविधान में निहित वास्तविक समानता तक पहुंचने में मदद करेगा।”
उन्होंने ई.वी. चिन्नैया मामले में दिए गए फैसले को खारिज करने के मुख्य न्यायाधीश के मत से सहमति जताते हुए कहा कि राज्य सरकारें अनुभवजन्य आंकड़ों के आधार पर आरक्षण देने के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत कर सकती हैं। बता दें कि शीर्ष अदालत ने 8 फरवरी को अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमण, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अन्य की दलीलें सुनने के बाद अपना आदेश सुरक्षित रख लिया था।
वरिष्ठ अधिवक्ताओं द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए राज्यों ने ई.वी. चिन्नैया निर्णय की समीक्षा की मांग की है। जिसमें 2004 में निर्णय दिया गया था कि सभी अनुसूचित जाति समुदाय, जो सदियों से बहिष्कार, भेदभाव और अपमान झेल रहे हैं। एक समरूप वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें उप-वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
इस खंडपीठ में न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र मिश्रा भी शामिल थे। पीठ ने 23 याचिकाओं पर सुनवाई की जिनमें पंजाब सरकार द्वारा पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली प्रमुख याचिका भी शामिल थी।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति गवई की बात पर सहमती जताई कि, ई.वी. चिन्नैया के फैसले को खारिज कर दिया जाना चाहिए। वे न्यायमूर्ति गवई से सहमत थे कि एससी/एसटी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने के लिए एक नीति होनी चाहिए। वहीं न्यायमूर्ति सतीश चन्द्र शर्मा ने बहुमत की इस राय से सहमति व्यक्त की कि राज्यों के लिए आरक्षण के प्रयोजनार्थ अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करना संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है, बशर्ते कि इसका समर्थन अनुभवजन्य आंकड़ों से हो।
एससी/एसटी के लिए क्रीमी लेयर सिद्धांत के अनुप्रयोग पर न्यायमूर्ति शर्मा ने जे. गवई से सहमति व्यक्त की कि “एससी/एसटी के भीतर मूलभूत समानता की पूर्ण प्राप्ति के लिए एससी/एसटी समुदायों के बीच क्रीमी लेयर की पहचान एक संवैधानिक अनिवार्यता होनी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने भी यही राय व्यक्त की। न्यायमूर्ति गवई, नाथ, मिथल और शर्मा ने अनुभवजन्य आंकड़ों के आधार पर अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत करने के राज्यों के अधिकार के मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीश से सहमति जताई। उन्होंने कहा कि क्रीमी लेयर सिद्धांत को एससी/एसटी पर लागू किया जाना चाहिए।
हालांकि अकेली न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने सात न्यायाधीशों वाली पीठ में इस मामले को लेकर असहमति जताई। न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी ने अपने असहमति नोट में कहा कि “राज्य अनुसूचित जाति सूची में केवल अनुसूचित जाति के भीतर कुछ समूहों की पहचान करके और उन्हें वरीयता कोटा देकर “छेड़छाड़” नहीं कर सकते। कोटा पूरे अनुसूचित जाति समुदाय के लिए है। राज्य इस आधार पर राष्ट्रपति सूची में फेरबदल नहीं कर सकता कि वह अनुसूचित जाति समुदाय के कुछ समूहों को ऊपर उठाने की कोशिश कर रहा था जो बाकी लोगों से बदतर स्थिति में हैं।“ उन्होंने आगे कहा, “अनुसूचित जाति समुदाय एक समरूप समूह है जिसे राष्ट्रपति की अधिसूचना द्वारा अस्तित्व में लाया गया है। अनुसूचित जातियों को एक विशेष दर्जा प्राप्त है। यह विभिन्न समूहों का एक मिश्रण है। आरक्षण देने में कोई भी बदलाव केवल राष्ट्रपति की अधिसूचना के माध्यम से ही किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि राजनीतिक कारणों से अनुसूचित जाति सूची के साथ छेड़छाड़ से बचने के लिए राज्य की शक्ति को सीमित कर दिया गया है।
पीठ की चौथी पृथक राय में न्यायमूर्ति पंकज मिथल ने बहुमत की राय से सहमति जताते हुए आरक्षण नीति में व्यापक बदलाव का सुझाव दिया। उन्होंने कहा, “जाति के बजाय, आर्थिक कारकों, “जीवन स्तर”, व्यवसाय, उपलब्ध सुविधाओं आदि के आधार पर आरक्षण दिया जाना चाहिए। आरक्षण एक परिवार में केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित होना चाहिए। यदि किसी पीढ़ी ने कोटा लाभ का लाभ उठाया है तो अगली पीढ़ी को आरक्षण उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए।“
शीर्ष अदालत ने ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के मामले में 2004 के पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार करने के संदर्भ में सुनवाई की। जिसमें यह माना गया था कि एससी और एसटी समरूप समूह हैं और इसलिए राज्य इन समूहों में अधिक वंचित और कमजोर जातियों के लिए कोटा के अंदर कोटा देने के लिए उन्हें आगे उप-वर्गीकृत नहीं कर सकते हैं।
चिन्नैया मामले में दिए गए निर्णय में कहा गया था कि अनुसूचित जातियों का कोई भी उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन होगा। 2004 के फैसले में कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत केवल संसद ही अनुसूचित जातियों को राष्ट्रपति सूची से बाहर कर सकती है न कि राज्य विधानसभाएं। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को यह अनुमति दे दी है कि वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में भी वर्गीकरण कर सकती है।