Category Archives: पारिस्थितिकी

खेती और वृक्ष-खेती के संरक्षण में मल्च है अत्यंत महत्वपूर्ण

October 11, 2024 | By Suresh Nautiyal
खेती और वृक्ष-खेती के संरक्षण में मल्च है अत्यंत महत्वपूर्ण

भारत में पारंपरिक खेतीबाड़ी में मल्च अर्थात सूखे खर-पतवार का महत्व अधिक नहीं है. जब धान की फसल काटने के बाद लाखों-लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि में पराली (धान की सूखी पतवार) जलाई जाती है तब हमारा यह अज्ञान सामने आता है. पराली जलने से वायु प्रदूषण होता है, वह अलग. और इस प्रदूषण से लोगों को सांस की भी बीमारियां और दिक्कतें होती हैं. और यह तब होता है जब प्रत्येक किसान को मालूम है कि मल्च स्वत: जैविक खाद में बदल जाता है जो फसलों और पेड़-पौधों के लिए पोषक होता है.

सिंगापुर में  पूर्व 165 वर्ष से अधिक पुराने ट्रॉपिकल सिंगापुर बॉटैनिक गार्डेन्स का वह हिस्सा देखने को मिला जो यूएन हेरिटेज बफर जोन में आता है. वहां पेड़ों और वनस्पतियों की देखभाल इस प्रकार की जाती है जिस प्रकार हम छोटे बच्चे को पालते हैं. हर पेड़ के नीचे मालियों ने गोल घेरे बना रखे हैं जिनमें मल्च अर्थात सूखी खर-पतवार को करीने से सजा रखा है. छोटे-छोटे पेड़ों और अन्य वनस्पतियों के चारों ओर भी मल्च सजा कर रखा है.

ऐसे ही एक पेड़ के नीच रखे मल्च में एक तख्ती लगी थी जिसपर पर्यटकों और आगंतुकों की सूचनार्थ लिखा था कि पेड़ों और वनस्पतियों की जड़ों के आस-पास मल्च बिछाया जाना आवश्यक होता है क्योंकि यह पेड़ों और वनस्पतियों के शीघ्र बढ़ने में सहायक होता है. वस्तुत: मल्च प्राकृतिक इंसुलेशन का काम करता है तथा फसल के अंकुरों, वनस्पतियों और पेड़ों की पौध को तेज धूप से बचाने का काम करता है. भूमि में नमी बनाए रखने का काम तो मल्च बहुत ही खूबी के साथ करता है. आपने जंगलों में देखा होगा कि प्राकृतिक रूप से एकत्रित होने वाला मल्च किस प्रकार वनस्पतियों, पेड़-पौधों और घास को नमी प्रदान कर उन्हें कड़ी धूप से बचाने का काम भी करता है.

ट्रॉपिकल सिंगापुरबॉटैनिक गार्डेन्स के एक पेड़ के नीचे जो तख्ती लगी थी उसपर यह भी स्पष्ट लिखा था कि मल्च में बहुत कुछ लाभदायक माइक्रो-आर्गेनिज्म होते हैं जो मल्च के जैविक तत्वों को डीकम्पोज करने में सहायक होते हैं. इस प्रकार से मल्च पेड़ों और वनस्पतियों को पोषक तत्व भी उपलब्ध कराते हैं.

इसलिए हमें चाहिए कि पेड़ों और वनस्पतियों या खेतों में पड़े मल्च को हटाने के बजाय उसका इस प्रकार से उपयोग करें.एक अच्छी बात यह है कि यह जो सब-कुछ सिंगापुर बॉटैनिक गार्डेन्स की इस तख्ती पर लिखा है वह मैंने स्वयं टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) में प्रयोग होते हुए देखा है. वहां खाड़ी के पास जाजल गांव में परमाकल्चर (सतत कृषि) कर रही तरुणा जैन तारुण्या फार्म्स के अंतर्गत तथा रजाखेत के पास भौन्याड़ा गांव में अनौपचारिक विद्यालय — आनंद वाटिका ग्रीन गुरुकुलम (एवीजीजी) — की सह-संस्थापिका और प्रिंसिपल अनीता नौटियाल आनंद वाटिका ऑर्गनिक के नाम से अपने-अपने खेतों में मल्च का खूब सदुपयोग कर रही हैं.दोनों ने बताया कि मल्च उपयोग करने से उन्होंने उत्साहजनक परिणाम देखे हैं.

नर्सरियों में भी मल्च का उपयोग बड़े स्तर पर होता है लेकिन पारंपरिक किसान आज भी खर-पतवार को जलाकर या एक ओर फेंककर कृषि करने में आस्था रखता है. यह दुखद ही है कि देश के अनेक भागों में अनेक जगह पराल/पराली नामक मल्च को लोग कृषि और वनस्पतियों के भरण-पोषण में उपयोग करने के बदले आज भी जला रहे हैं. इस प्रकार से वे फसलों और वनस्पतियोंको पोषक तत्वों और तेज धूप से सुरक्षा देने वाली चीज को नष्ट ही नहीं करते, बल्कि वायु प्रदूषण भी बढ़ाते हैं.

अंत में इतना ही कि इस पुरातन सोच को हमें बदलना होगा. विज्ञान आज बहुत आगे बढ़ गया है. उसने हमें जो ज्ञान दिया है, उसे नकारने से काम चलने वाला है नहीं. काम तो उसे अपनाने से चलेगा. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पेड़ों, वनस्पतियों और फसलों को स्वाभाविक और प्राकृतिक रूप से खर-पतवार (मल्चिंग) की आवश्यकता होती है. लिहाजा, आज इस बारे में जागरूकता की आवश्यकता है. तरुणा और अनीता से भी कुछ सीखें जो इस महत्वपूर्ण बात को जान चुकी हैं. वैसे भी हमारे किसानों के पास ढेर सारा कृषि-ज्ञान है. उसे और आगे बढ़ाने और उससे एक-दूसरे को दीक्षित करने की आवश्यकता है.

मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों का खतरा

March 08, 2024 | By Maati Maajra
मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों का खतरा

मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों (zoonotic diseases) का खतरा बढ़ गया है। ज़ूनोटिक रोग वे रोग हैं जो पशुओं से मानवों में बैक्टीरिया, वायरस या अन्य परजीवियों या रोगवाहकों के माध्यम से फैलते हैं…

मार्च 2023 में जारी अपनी नवीनतम रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) ने एक गंभीर चेतावनी से आगाह कराया है। IPCC ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन से संक्रामक रोगों का वैश्विक खतरा बढ़ गया है।उदाहरण के लिये, मच्छर-जनित रोगों के फैलने की संभावना बढ़ गई है।

डेंगू अब किसी ख़ास मौसम में नहीं बल्कि सालों भर प्रकट होता है। तापमान, वर्षा और आर्द्रता में बदलाव रोगों के फैलने के चक्र(disease transmission cycles) को बाधित कर रहे हैं।ये परजीवी को आश्रय देने वाले रोगवाहकों (vectors) और एनिमल रेज़र्वोयर (animal reservoirs) के वितरण को भी बदल देते हैं। इससे स्वास्थ्य पर होने वाला व्यय बहुत बढ़ जाता है।यह वर्ष 2030 तक सालाना 2-4 बिलियन डॉलर के बीच होने का अनुमान है।

जलवायु परिवर्तन का रोगों के प्रकोप से संबंध

ज़ूनोटिक रोग: चूँकि जलवायु परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र को बदलता है, पर्यावास की क्षति अधिक होने लगती है। यह रोग फैलाने वाले पशुओं को उपयुक्त पर्यावास और संसाधनों की तलाश में मानव क्षेत्रों पर अतिक्रमण करने के लिये विवश करता है। मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच इस बढ़ती अंतःक्रिया से ज़ूनोटिक रोगों (zoonotic diseases) का खतरा बढ़ गया है। ज़ूनोटिक रोग वे रोग हैं जो पशुओं से मानवों में बैक्टीरिया, वायरस या अन्य परजीवियों या रोगवाहकों के माध्यम से फैलते हैं।

निपाह वायरस (Nipah virus): इसका एक प्रमुख उदाहरण निपाह है, जो इस तरह की घटनाओं के कारण केरल में प्रकोप का ज़िम्मेदार है।

तापमान और रोग संचरण: बढ़ता तापमान मच्छरों और किलनी (ticks) जैसे रोगवाहकों के वितरण और व्यवहार को प्रभावित कर सकता है। ये रोगवाहक मलेरिया, डेंगू बुखार और लाइम डिजीज जैसी बीमारियों के संचरण/संक्रमण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गर्म तापमान इन रोगवाहकों की भौगोलिक सीमा का विस्तार कर सकता है, जिससे उन्हें उन क्षेत्रों में पनपने की अनुमति मिलती है जो पहले उनके लिये अत्यंत ठंडे होते थे।

वर्षा के बदलते पैटर्न: जलवायु परिवर्तन वर्षा के पैटर्न को बदल सकता है, जिससे कुछ क्षेत्रों में अधिक तीव्र और लंबे समय तक वर्षा हो सकती है, जबकि अन्य किसी क्षेत्र में सूखा पड़ सकता है। ये परिवर्तन रोगवाहकों के लिये उपयुक्त प्रजनन वातावरण का निर्माण कर सकते हैं।

बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि जल स्रोतों को सीवेज और रोगजनकों से दूषित कर सकती है, जिससे हैजा और पेचिश जैसी जलजनित बीमारियों का प्रकोप हो सकता है। भारी वर्षा जलजमाव की स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं जो मलेरिया और ज़ीका वायरस (Zika virus) रोग जैसी बीमारियों को फैलाने वाले मच्छरों के लिये आदर्श प्रजनन स्थल होते हैं।

रोगवाहकों में व्यवहार परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन रोगवाहकों के व्यवहार को प्रभावित कर सकता है।गर्म तापमान रोगवाहकों के भीतर रोगजनकों के विकास को तीव्र कर सकता है, जिससे उनकी ऊष्मायन अवधि (incubation period) कम हो जाती है और बीमारियों का तेज़ी से संचरण होता है।

खाद्य सुरक्षा: जलवायु परिवर्तन कृषि प्रणालियों को बाधित कर सकता है, जिससे खाद्य उत्पादन और वितरण में बदलाव आ सकता है। ये व्यवधान कुपोषण में योगदान कर सकते हैं और प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर कर सकते हैं, जिससे आबादी बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती है।

चरम मौसमी घटनाएँ: जलवायु परिवर्तन चक्रवात, हीटवेव (heatwaves) और वनाग्नि (wildfires) जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता से संबद्ध है। इन घटनाओं से आघातों, विस्थापन और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों में व्यवधान की स्थिति बन सकती है, जिससे रोगों के प्रसार के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा हो सकती हैं।

बदलता रोग परिदृश्य: जलवायु परिवर्तन ने मानवों को खतरे में डालने वाले संक्रामक एजेंटों का दायरा बढ़ा दिया है। मानवों को प्रभावित करने वाली सभी ज्ञात संक्रामक बीमारियों में से आधे से अधिक जलवायु पैटर्न में बदलाव के साथ बदतर हो जाती हैं। (हील इनिशियेटिव)

(Source: Dalit Times)