Category Archives: राजनीति

अनिच्छा से सांसद बने नर्दयी वामपंथी सीताराम यचूरी का निधन राजीव रंजन नाग

September 29, 2024 | By Maati Maajra
अनिच्छा से सांसद बने नर्दयी वामपंथी सीताराम यचूरी का निधन राजीव रंजन नाग

नई दिल्ली।  बहुभाषाविद, मिलनसार और एक उदार वक्ता जो राजनीति के साथ-साथ फिल्मी गानों पर भी अपनी बात रख सकते थे, सीपीआई-एम के पांचवें महासचिव सीताराम येचुरी एक व्यावहारिक नेता थे जिनके दोस्त सभी राजनीतिक दलों में थे। तीन बार पार्टी प्रमुख रहे सीताराम येचुरी का गुरुवार को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया।

उन्होंने पार्टी की कमान उस समय संभाली थी जब वामपंथी दल का भाग्य ढलान पर था। वे 72 वर्ष के थे। अपने पूर्ववर्ती प्रकाश करात से बिल्कुल अलग जिनसे उन्होंने अप्रैल 2015 में पदभार संभाला था और जो कट्टर रुख के लिए जाने जाते थे। श्री येचुरी गठबंधन राजनीति की चुनौतियों का सामना करने में सफल रहे। इस तरह, वे अपने गुरु दिवंगत पार्टी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत से अधिक मिलते-जुलते थे। सुरजीत 1989 में गठित वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार और 1996-97 की संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान गठबंधन युग में एक प्रमुख खिलाड़ी थे। दोनों को सी.पी.आई.एम. द्वारा बाहर से समर्थन दिया गया था। श्री येचुरी 2004-2014 तक के यू.पी.ए. वर्षों में जाने-माने व्यक्ति थे।

चेन्नई में पैदा हुए येचुरी दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़े। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के 10 वर्षों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के एक विश्वसनीय सहयोगी थे। वह पहले गैर-कांग्रेसी नेता थे जिन्हें सोनिया गांधी ने 2004 में तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम से मिलने के बाद फोन किया था। इससे पहले सोनिया गांधी प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया चुकीं थी ।इससे पहले, वामपंथ के सबसे चर्चित चेहरों में से एक श्री येचुरी ने संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए साझा न्यूनतम कार्यक्रम का मसौदा तैयार करने के लिए कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम के साथ काम किया था। यह एक ऐसा समीकरण था जो 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर यूपीए से वाम दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद भी कायम रहा। इस मुद्दे पर यूपीए सरकार के साथ चर्चा में श्री येचुरी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने उन्हें “एक व्यावहारिक प्रवृत्ति वाले निर्दयी मार्क्सवादी, सीपीआई (एम) के एक स्तंभ और एक बेहतरीन सांसद” के रूप में वर्णित किया। जबकि उनके राजनीतिक सहयोगियों ने श्री येचुरी को राजनेता के रूप में याद किया। पुराने दोस्तों ने फ़िल्म देखने के लिए रफ़ी मार्ग से चाणक्य तक की अपनी सैर को याद किया।

श्री येचुरी, जिन्हें पुराने हिंदी फ़िल्मी गाने, किताबें और राजनीति पर अंतहीन बातचीत का शौक था वह 2017 तक 12 साल तक राज्यसभा के सांसद रहे और विपक्ष की एक शक्तिशाली आवाज़ बने रहे। अपने कार्यकाल के अंत में  उन्होंने एक और कार्यकाल लेने से इनकार कर दिया और उच्च सदन में अपने विदाई भाषण में कहा कि वे “अनिच्छा से” संसद आए। उन्होंने कहा कि वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में, वे कहते थे कि “गोल इमारत” (गोल इमारत) से दूर रहना बेहतर है।

श्री येचुरी 19 अप्रैल 2015 को विशाखापत्तनम में 21वीं पार्टी कांग्रेस में माकपा के महासचिव बने और उस समय करात से पदभार संभाला जब पार्टी 2004 में 43 सांसदों से घटकर 2014 में नौ रह गई थी। इसके बाद उन्हें 2018 और 2022 में फिर से इस पद के लिए चुना गया। पार्टी महासचिव का पद संभालने के बाद 2015 में एक न्यूज एजेंसी के साथ एक साक्षात्कार में श्री येचुरी ने कहा था कि उन्हें मूल्य वृद्धि जैसे मुद्दों पर समर्थन वापस ले लेना चाहिए था क्योंकि 2009 के आम चुनावों में लोगों को परमाणु सौदे के मुद्दे पर लामबंद नहीं किया जा सका था। उन्हें किसानों और मजदूर वर्ग की दुर्दशा से लेकर सरकार की आर्थिक और विदेश नीतियों और सांप्रदायिकता के बढ़ते खतरे तक के मुद्दों पर राज्यसभा में उनके मजबूत और स्पष्ट भाषणों के लिए जाना जाता था।

माकपा नेता हिंदी, तेलुगु, तमिल, बांग्ला और मलयालम में भी धाराप्रवाह थे। वह हिंदू पौराणिक कथाओं के भी अच्छे जानकार थे और अक्सर अपने भाषणों में उन संदर्भों का इस्तेमाल करते थे, खासकर भाजपा पर हमला करने के लिए। श्री येचुरी नरेंद्र मोदी सरकार और उसकी उदार आर्थिक नीतियों के सबसे मुखर आलोचकों में से एक रहे।

2024 के आम चुनावों से पहले वामपंथियों के लिए उनके गठबंधन बनाने के कौशल का फिर से उपयोग किया गया। 2018 में, 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले, माकपा की केंद्रीय समिति ने कांग्रेस के साथ किसी भी तरह की समझ या गठबंधन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। श्री येचुरी ने तब महासचिव के पद से इस्तीफा देने की पेशकश की थी। हालांकि, 2024 के चुनावों से पहले, जब एकजुट विपक्षी समूह के लिए बातचीत शुरू हुई और विपक्षी दलों ने मिलकर इंडिया ब्लॉक बनाया तो माकपा इसका हिस्सा बन गई। श्री येचुरी गठबंधन के प्रमुख चेहरों में से एक रहे।

हाल के लोकसभा चुनावों में माकपा इंडिया ब्लॉक का हिस्सा थी, लेकिन केरल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, जो आखिरी बचा वामपंथी गढ़ था जहां माकपा ने केवल एक सीट जीती थी। हालांकि, ब्लॉक का हिस्सा होने से माकपा को मदद मिली और उसने 2024 के लोकसभा चुनावों में एक सीट जीती। सीताराम येचुरी के परिवार ने वामपंथी परंपरा का सम्मान करते हिए विज्ञान के लिए शरीर दान किया ।

लेटरल एंट्री पर मोदी सरकार ने लिया यू टर्न! लेकिन फिर सुना दिया नया आरक्षण विरोधी फ़रमान

August 31, 2024 | By Maati Maajra
लेटरल एंट्री पर मोदी सरकार ने लिया यू टर्न! लेकिन फिर सुना दिया नया आरक्षण विरोधी फ़रमान

लेटरल एंट्री पर सरकार ने यूटर्न ले लिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर केंद्र सरकार में लेटरल एंट्री पर रोक लगा दी गई है। यूपीएससी से कहा गया है कि वो लेटरल एंट्री से नियुक्ति न करे। वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देश पर संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) को निर्देश दिया गया है कि वो 17 अगस्त, 2024 को जारी विज्ञापन वापस ले ले। बता दें, केंद्र सरकार ने 45 पदों को लेटरल एंट्री के जरिये भरने के लिए यूपीएससी ने विज्ञापन दिया था.

BJP के सहयोगी दल भी सहमत नहीं

विपक्षी दल सरकार के इस फैसले का विरोध कर रहे थे और एनडीए में बीजेपी के सहयोगी दल भी इससे सहमत नहीं थे। उनका कहना है कि लेटेरल एंट्री से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को नौकरी मिलने में परेशानी होगी। साथ ही ग़रीब और पिछड़े वर्ग के लोगों को सरकार में बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा।

विपक्ष ने उठाए थे सवाल

दरअसल, ये लेटरल एंट्री में आरक्षण का मुद्दा कांग्रेस पार्टी ने उठाया था . बाद में मोदी सरकार में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और जनता दल (यूनाइटेड) जैसी पार्टियां भी इसके विरोध में उतर आईं. लोकसभा चुनावों में आरक्षण के मुद्दे पर तगड़ा झटका खा चुकी BJp ने इस मुद्दे पर राजनीति गरमाने से पहले कदम वापस ले लिए।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर पोस्ट कर इसका विरोध किया था.उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार लेटरल एंट्री के जरिए दलितों, पिछड़ा वर्ग और आदिवासियों से उनका आरक्षण छीनने की कोशिश कर रही है, जो कि बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है. साथ ही कांग्रेस नेता ने आरोप लगाया कि मोदी सरकार आरएसएस (RSS) के लोगों को सरकारी पदों पर भर्ती कर रही है। नतीजा ये हुआ कि अब सरकार ने यूपीएससी चेयरपर्सन को पत्र लिखकर लेटरल एंट्री के विज्ञापन को रद्द करने के लिए कहा है.

लेटरल एंट्री पर सरकार ने लिया यूटर्न

इस भर्ती पर विपक्ष ने सवाल उठाए थे और अब इसी विवाद के बाद मोदी सरकार ने ये फैसला लिया है। और केंद्रीय कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने यूपीएसस की अध्यक्ष प्रीति सूदन को पत्र लिखकर विज्ञापन रद्द करने को कहा ‘ताकि कमजोर वर्गों को सरकारी सेवाओं में उनका सही प्रतिनिधित्व मिल सके।’

नेताओं ने किया जबरदस्त विरोध

लेटरल एंट्री को लेकर मोदी सरकार घिरती जा रही है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी, बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सरकार पर जोरदार हमला बोला है। अब आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद ने सरकार पर निशाना साधा है। चंद्रशेखर ने कहा कि लेटरल एंट्री से भर्ती सीधे-सीधे पिछड़ों और दलितों के साथ अन्याय है। इसके अलावा चंद्रशेखर ने लिखा हैं कि लैटरल एंट्री को वापस लेने कब बाद एक नया फरमान सुनाया गया है। जो कृषि अनुसंधान से जुड़ा है। तो आइये जानते हैं कि अन्य नेता और राजनैतिक पार्टियां इसे लेकर क्या कह रही हैं .

केंद्र के लेटरल एंट्री पर मायावती

बहुजन समाज पार्टी मुखिया और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने संघ लोक सेवा आयोग द्वारा लेटरेल एंट्री की विज्ञापन भर्ती को रद्द करने पर पहली प्रतिक्रिया दी है. साथ ही मायावती के भतीजे ने भी इस फैसले का विरोध किया है .इसके अलावा बसपा चीफ ने दावा किया कि यह बसपा के कड़े विरोध का नतीजा है. इसके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री ने मोदी सरकार से अहम मांग भी की.

UPSC की लेटरल एंट्री रोक पर अखिलेश का तंज

इस आरक्षण विवाद के बीच सपा चीफ अखिलेश यादव का ताजा बयान सामने आया है.अखिलेश ने X (पूर्व में ट्विटर) पर कहा, “यूपीएससी में लेटरल एन्ट्री के पिछले दरवाजे से आरक्षण को नकारते हुए इस 45 नियुक्तियों की साजिश आखिरकार PDAकी एकता के आगे झुक गई है. और सरकार को अब अपना ये फैसला भी वापस लेना पड़ा है.

लेटरल एंट्री को लेकर मोदी सरकार पर बरसे खरगे

मल्लिकार्जुन खरगे ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर पोस्ट किया, ‘संविधान जयते। हमारे दलित, आदिवासी, पिछड़े और कमज़ोर वर्गों के सामाजिक न्याय के लिए कांग्रेस पार्टी की लड़ाई ने आरक्षण छीनने के भाजपा के मंसूबों पर पानी फेरा है। लेटरल एंट्री पर मोदी सरकार की चिट्ठी ये दर्शाती है कि तानाशाही सत्ता के अहंकार को संविधान की ताकत ही हरा सकती है।’

दिलीप मंडल मोदी के बहुत बड़े भक्त बनें

जहाँ कुछ लोग इस फैसले के खिलाफ है तो कुछ ने पीएम मोदी का समर्थन किया हैं . जैसे लेटरल एंट्री को जायज ठहराते हुए प्रो.दिलीप मंडल इसे नए युग की शुरुआत करार दे रहे हैं। उन्होंने अपने एक्स हैंडल पर नेहरू का, इंदिरा का, राजीव का, मनमोहन का और वाजपेयी का, सबका…पेंडिंग काम मोदी जी कर रहे हैं लिखा है । देखिये ….

जानें क्‍या है पूरा मामला

बता दें मोदी सरकार के आदेश पर 17 अगस्त को यूपीएससी ने 45 बड़े पदों पर लेटेरल एंट्री की मदद से भर्ती निकाली थी। इन पदों पर काम करने वाले अफसर ही ज्यादातर फैसले लेते हैं। सरकार का कहना है कि इन पदों पर आरक्षण लागू नहीं होगा क्योंकि ये सिंगल पोस्ट हैं। यानी हर पद के लिए सिर्फ एक ही सीट है।

लेटरल एंट्री क्या है?

आप सोच रहे होंगे कि ये सरकारी लेटरल एंट्री क्या होती है? साधारण शब्दो में कहें तो लेटरल एंट्री का मतलब है कि सरकारी नौकरियों में बड़े पदों पर बाहर के लोगों को भर्ती करना। अब तक तो यही होता था कि सरकारी विभागों में नीचे के पदों से नौकरी शुरू होती थी और धीरे-धीरे तरक्की पाकर बड़े पदों पर पहुंचते थे। लेकिन अब सरकार चाहती है कि कुछ खास पदों के लिए बाहर के लोग भी आवेदन करें जिनके पास अनुभव और ज्ञान ज्यादा हो। हालांकि विरोध और एनडीए के सहयोगी दलों के सुझाव के बाद मोदी सरकार ने फैसला वापस ले लिया है। बता दें , शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने भी उपस्क से ये विज्ञापन हटा लेने को कहा है।

क्या मोहन ’समाज धर्म’ और मोदी ‘गठबंधन धर्म’ का पालन करेंगे?

June 15, 2024 | By Ramsharan Joshi
क्या मोहन ’समाज धर्म’ और मोदी ‘गठबंधन धर्म’ का पालन करेंगे?

आसमान साफ़ हो चुका है. भारत के इतिहास में 10 जून,24 का दिन संघ परिवार के विलक्षण विरोधाभासों के रूप में दर्ज़ होगा; 1. दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने  अपने मंत्रिमंडल के विभागों के बंटवारे में  स्वेच्छाचारिता  का प्रदर्शन किया; 2. राजधानी से करीब एक हज़ार किलोमीटर दूर नागपुर में संघ परिवार  सुप्रीमो मोहन भागवत परोक्ष रूप से मोदी+शाह जोड़ी को  मर्यादा का पालन करने  व अहंकार नहीं करने के उपदेश दे रहे थे और मणिपुर के लिए चिंता व्यक्त कर रहे थे! राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ परिवार की असंख्य भुजाएं  और मुंह हैं . कौनसी भुजा और मुंह कब चैतन्य हो जाएं, इसका समय व स्थान संघ स्वयं तय करता है. क्या भागवत जी को आज ही अचानक  ‘अहंकार, विपक्ष को शत्रु समझना, मणिपुर की हिंसा’ दिखाई दी है ? क्या प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री शाह संघ में दीक्षित नहीं हुए हैं? क्या पिछले एक दशक से मोदी+शाह जोड़ी की दंभभरी कार्यशैली दिखाई नहीं दी है  ? एक वर्ष से मणिपुर जल रहा है और मोदी जी बराये नाम भी वहां नहीं जा सके. क्या इसका ज्ञान  भागवत जी को अब ही हुआ ?  विपक्ष को किस किस अशोभनीय तमगों से नवाज़ा गया, क्या संघ प्रमुख को दिखाई नहीं दिया ? पिछले एक दशक में देश की  राजनीति कितनी मर्यादाहीन व निर्लज्ज बन चुकी है शिखर नेतृत्व ‘शर्म निरपेक्ष’ हो चुका  है, क्या भागवत जी को दिखाई नहीं दे रहा था? इस तरह के सवाल संघ की विरोधाभासी, विडंबनापूर्ण और अवसरानुकूल कार्यशैली को उजागर करते हैं. आज जब भाजपा अल्पमत में है और अपनी सत्ता के अस्तित्व के लिए दूसरों की बैसाखियों पर टिकी हुई है, तब संघ सुप्रीमों को परोक्ष रूप से देश के शिखर नेतृत्व के चाल+चलन+ चेहरे में दोष दिखाई दे रहे हैं? विचित्र स्थिति है. वस्तुस्थिति यह है की मोदी+शाह जोड़ी की कार्यशैली से संघ की साख को आघात लगता जा रहा है. उसकी सार्थकता पर भी सवालिया निशान लगने लगे हैं. इसके बाद ही संघ अपनी निद्रा से जागा है. खैर, देर  आये, दुरुस्त आये. संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किये गए   विभागों के बंटवारे से बिल्कुल   साफ़ है कि वे अपनी चौबीस साल पुरानी ( 2001 -24 ) हुकूमत की फितरत को कतई बदलने वाले नहीं हैं;गुजरात में  मुख्यमंत्री  काल से दिल्ली में प्रधानमंत्री काल तक अपनी आत्मकेंद्रित व निरंकुश शासन शैली को बनाये रखेंगे. भाजपा के अल्पमत ( 303 से 240 )  में खिसकने और गठबंधन के सहयोगी  घटकों की बैसाखियों पर टिके होने के बावज़ूद प्रधानमंत्री मोदी ने प्रमुख व संवेदनशील  मंत्रालयों के वितरण के मामले में अपने सहयोगी दलों के प्रति किसी भी प्रकार की उदारता नहीं दिखलाई है.  उन्होंने  सबसे विवादास्पद गृहमंत्रालय को अपने लंगोटिया यार अमित शाह को ही सौंपा है. ऐसा करके उन्होंने संकेत दे दिये  हैं कि उनपर किसी का दबाव नहीं चलेगा. 4 जून को चुनाव परिणामों के आने के बाद समझा जा रहा था कि गृहमंत्रालय और वित्त मंत्रालय सहयोगी घटकों को दे दिए जायेंगे. क्योंकि पिछले पांच सालों में  दोनों ही मंत्रालयों की कारगुज़ारियां काफी विवादास्पद रहती रही हैं. दोनों की कार्यशैलियों को आतंकी और डरावनी के रूप में देखा गया है; विपक्ष के खिलाफ  सीबीआई, ईडी, इन्कम  टैक्स एजेंसी और अन्य एजेंसियों का थोक के भाव इस्तेमाल किया गया; विपक्षी नेताओं को जेलों में डाला गया; छापे आदि से डरा-धमकाकर नेताओं को भाजपा में शामिल होने के लिए मज़बूर किया गया; शामिल होने के बाद उनके ख़िलाफ़ मुक़द्द्में वापस ले लिए गए, क्लीन चिट  दी गई और कुड़की सम्पति को वापस कर दी गई. वित्तमंत्रालय द्वारा समय समय पर ज़ारी  घरेलु सकल उत्पाद (जीडीपी ) से सम्बंधित आंकड़े हमेशा विवादास्पद बने रहे.हैं.  वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण विवादों में घिरी रहीं. उन्हें एक ‘मुखौटा’ के रूप में देखा  गया। गृहमंत्री अमित शाह भी विवादों के कटघरे में खड़े रहे हैं. विपक्ष की सरकारों को गिराने और भाजपा समर्थित सरकार बनाने में उन्हें सिद्धहस्त माना  जाता है; मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार रही हो या महाराष्ट्र में शिवसेना की, शाह जी को दोनों प्रदेशों की सरकारों  के पतन की पटकथा के  लेखक के रूप में देखा जाता है. विभिन्न प्रदेशों में पार्टी के टिकिट वितरण  और प्रतिकूल नेताओं के हाशियाकरण में भी शाह जी की महत्वपूर्ण भूमिका मानी  जाती है.  उत्तर प्रदेश में भाजपा के भूधसान के लिए अमित जी को ज़िम्मेदार माना  जा रहा है. जब अमित शाह का ट्रैक- रिकॉर्ड गांधीनगर से दिल्ली तक विवादास्पद  रहा हो, तब   प्रधानमंत्री द्वारा उन्हें फिरसे शक्तिशाली मंत्रालय की कमान सौंपा जाना किस बात के संकेत देता है ? निश्चित ही, प्रतिपक्ष  और लोकतंत्र, दोनों के लिए सुखद संकेत तो नहीं मिलेंगे. अमित शाह के गृहमंत्री बनने से ऐसी शक्तियां मज़बूत होंगी जोकि भारतीय समाज का  और भी गहराई से ध्रुवीकरण करना चाहती हैं. हिंदुत्व के अजेंडे को सख्ती के साथ लागू करना चाहती हैं. अगले वर्ष राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने जन्म के सौ वर्ष पूरे करेगा. ज़ाहिर है,   मोदी+शाह जोड़ी   अपनी मातृ संस्था को कुछ नायाब उपहार देना चाहेगी।  लेकिन,यह निर्विवाद है कि अब  ब्रांड मोदी+शाह भाजपा संविधान तो बिलकुल नहीं बदल सकेगी और भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित  नहीं किया जा सकेगा. लेकिन, आनेवाले महीनों में सब कुछ सुचारू रूपसे चलता रहेगा, इसकी सम्भावना धूमिल दिखाई देती हैं. इस निर्मम जोड़ी की आँखों में गैर- भाजपाई सरकारें ( हिमाचल, तेलंगाना, कर्णाटक, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि ) मोतियाबिंद की तरह चुभती  हैं. . चूंकि अमित शाह फिर से गृहमंत्री बन गये हैं, तो वे भाजपा विजय -अभियान की तैयारी में जुट जायेंगे. हाल ही में संपन्न चुनावों में मोदी+शाह जोड़ी ने विकास के स्थान पर हिन्दू – मुसलमान के मुद्दे पर अपना वक़्त ज़्यादा खर्च किया था. कई अशोभनीय जुमले-फिकरे फेंके गए. अल्पसंख्यकों को ‘घुसपैठिया ‘ तक बताया गया और प्रतिपक्ष की  गतिविधियों को ‘मुज़रा’ से जोड़ा गया. यह सिलसिला अब बंद हो जायेगा,  यह निष्कर्ष सरासर गलत होगा. बल्कि, समाज में नफरत फ़ैलाने का सिलसिला नए ढंग से शुरू हो भी चुका है.

भारीभरकम मोदी -मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम सदस्य नहीं है. देश की 140 करोड़ की आबादी में मुसलमाओं की आबादी करीब 20 करोड़ समझी जाती है. केंद्रीय सरकार में  एक भी मुसलमान का न होना अस्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक है. इनदिनों व्हाट्सएप्प पर एक वीडियो चल रहा है. यह वीडियो बेहद अफ़सोसनाक, नफ़रती और आतंकी है. नारा दिया गया है : जागो हिन्दुओ जागो…. इस वीडियो के अनुसार पांच राज्यों से 98 मुस्लिम नेता सांसद के रूप में निर्वाचित हुए हैं. 98 लोगों के नाम भी दिये  गए हैं. हिन्दुओं को डराया गया है कि आप लोगों की ‘ आत्मा काँप जाएगी’. इन राज्यों में शामिल हैं : पश्चिम बंगाल, असम,तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी। इसके विपरीत असलियत यह है कि  सिर्फ 24 मुस्लिम ही निर्वाचित हो कर 18 वीं लोकसभा में पहुँच सके हैं. जहाँ से चुने गए हैं वे राज्य हैं: उत्तर प्रदेश, तेलंगाना,लदाख,जम्मू-कश्मीर, लक्षद्वीप, तमिलनाडु,केरल, बिहार और असम. कुल संख्या है चौबीस जिसकी पुष्टि चुनाव आयोग की वेबसाइट से की जा सकती है. हक़ीक़त में, मुस्लिम सांसदों की संख्या लगातार घटती जा रही है. उनकी आबादी के अनुपात में तो संसद और विधानसभा में प्रतिनिधित्व कतई नहीं हो रहा है. फिर भी दुर्भावनापूर्ण प्रचार किया जा रहा है कि 98 मुस्लिम सांसद चुने गए हैं और हिन्दुओं को जागने का आह्वान किया जा रहा है! क्या यह समाज में नफरत फ़ैलाने और ध्रुवीकरण की कोशिश नहीं है ? क्या भागवत  जी और मोदी+शाह सत्ता इस घिनौने प्रचार की रोकथाम करेंगे? क्या फेक न्यूज़ और अफ़वाहों के कारख़ानों  की तालाबंदी की दिशा में ठोस  कार्रवाई करेंगे ? क्या मोदी जी अपनी  आत्मरति और आत्मदंभ को त्याग कर अटलजी और मनमोहन सिंह के  समान ‘गठबंधन धर्म’ का पालन करते हुए अपना कार्यकाल पूरा करना पसंद करेंगे ? क्या भागवत और मोदी अपनी कार्यशैली में पारदर्शिता लाएंगे और सत्यनिष्ठा से देश के साथ व्यवहार करेंगे ?  चुनौती बन कर ये तमाम  सवाल मोहन +मोदी -सत्ता को ललकारते रहेंगे.

अंतिम चरण की पूर्व संध्या पर

June 04, 2024 | By Ramsharan Joshi
अंतिम चरण की पूर्व संध्या पर

आम चुनाव :  मर्यादा मुक्त, करो या मरो का चुनाव; मोदी+शाह ब्रांड एक्सपायर्ड !

एक जून की शाम से एक्जिट पोल के परिणाम आने लगेंगे। उस दिन  कुछ अंदाज़ लग सकता है चुनाव परिणामों का। वैसे आसमान साफ होगा 4 जून की मतगणना के बाद ही।

लेकिन,पूर्व संध्या पर यह निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि अठाहरवीं लोकसभा लिए आम चुनाव अपनी अनेक विलक्षणताओं के लिए इतिहास में दर्ज़ होगा। सर्वप्रथम, सातों चरण के चुनाव सत्ता पक्ष और विपक्ष ने ’करो या मरो ’ की आक्रामक भावना से लड़ा। कांग्रेस नेता और  स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने आरंभ से ही कहना शुरू कर दिया था: यह विचारधाराओं के बीच जंग है। उनका यह नारा नया नहीं था; भारत जोड़ों और भारत न्याय यात्रा में भी इसकी अनुगूंजें होती रही हैं। आम चुनाव अभियान में यह अपनी पूरी शिद्दत के साथ गूंजा है।दूसरी तरफ भाजपा के सुपर स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अपनी सर्वसत्तावादी व सर्वव्यापी विचारधारा की जीत के लिए हर मुमकिन शस्त्र का निम्नतम स्तर पर प्रयोग  किया।दोनों पक्षों के बीच यह स्पष्ट विभाजक रेखा अंतिम दौर तक बनी रही है और चुनाव चाल भी प्रभावित होती रही है; 400 पार की  मनोवैज्ञानिक जंग लड़ी गई; गोदी मीडिया ने मोदी व भाजपा का प्रचण्डता से  साथ दिया;चुनाव आयोग का चरित्र विवादों में घिरा रहा;  हार-जीत के आंकड़ों का खेल रचा गया; और अंत में प्रधानमंत्री ने स्वयं को परमात्मा या ईश्वर का दूत ही घोषित कर भारत सहित विश्व को चकित कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने 29 मई को कह दिया कि 1982 में गांधी फिल्म के बनने के बाद ही दुनिया महात्मा गांधी जानने लगी. उससे पहले वे अनजान थे. अब मोदी जी की इस  अनभिज्ञता को मासूमियत समझें या मक्कारी या ईर्ष्या या घृणा  कहें  या कुछ और ?  उत्तर समझ से परे है. यह लेखक तो निरुत्तर है.  सो  मोदी जी मनोरोगी हैं या नहीं, इसका निर्णय तो मनोचिकित्सक ही कर सकते हैं.उन्हें चाहिए कि वे मनोचिकितसक से अविलम्ब सलाह लें. 140 करोड़ आत्माओं के राष्ट्र पर ‘रहम’ करें.  वास्तव में, , प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी ने भाषा मर्यादा और आदर्श आचार संहिता  की धज्जियां ज़रूर उड़ाई है; नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक किसी भी प्रधानमंत्री ने अमर्यादित भाषा और अभिव्यक्ति का प्रयोग नहीं किया था.  और न ही असत्य को देश पर थोपा। जबसे  देश में मोदी राज शुरू हुआ है तब से  उत्तर सत्य राजनीति और उत्तर सत्य मीडिया- संस्कृति फैलती जा रही है. संक्षेप में, यह सत्य का असत्य और असत्य का सत्य में सुविधानुसार रूपांतरण है. इसका कारोबार ज़म  कर होता रहा है. इस चुनाव में तो यह अपने चरम पर रहा है. लेकिन एक बात तय है, ‘मोदी ब्रांड’ चुक चुका  है. संघ, भाजपा और कॉर्पोरेट हाउस  तीनों के   लिए मोदी ब्रांड अब ‘ एक्सपायरी’ में तब्दील हो गया है. ज़ाहिर है, यही हालत अमित शाह की होगी, क्योंकि पिछले बीस सालों से गुजरात और बाद में दिल्ली में  ‘मोदी+ शाह ब्रांड भाजपा ‘ ही सियासी मार्किट में प्रचलित रहा है. महात्मा गांधी के सम्बन्ध मेंमोदी जी ने  अपने ज्ञान का प्रदर्शन करके  स्वयं  और  अधिक ‘उपहास पात्र’ बना डाला है. 29 मई को मोदी जी ने मीडिया से कह दिया कि 1982 में ‘गांधी’ फिल्म बनने के बाद ही दुनिया महात्मा गांधी को जानने लगी है. कितनी मूर्खतापूर्ण टिप्पणी है. मोदी को  मालूम होना चाहिए कि गांधी जी का   20 वीं सदी के महानायकों ( लेनिन , माओ,गांधी , अल्बर्ट  आइंस्टीन ,नेहरू , सुभाष, हो ची मिन्ह,  नेल्सन मंडेला आदि ) में विशिष्ट स्थान है. ऐसा अज्ञानी व्यक्ति देश का ‘शिखर एग्जीक्यूटिव’ कैसे बन जाता है, इसे महाआश्चर्य  या अविश्वसनीय ही कहा जायेगा! बलिहारी है जनता और संघ परिवार की!

19 अप्रैल से 1 जून तक सात चरणों में सम्पन्न होनेवाला यह आम चुनाव मूलतः

  1. बहुलतावाद बनाम एकरंगवाद;
  2. धर्मनिरपेक्षता बनाम हिन्दुत्ववाद;
  3. लोकतंत्र बनाम एकतंत्र;
  4. संविधान बनाम संविधान परिवर्तन;
  5. उदार पूंजीवादी लोकतंत्र  बनाम निरंकुश कॉर्पोरेटी लोकतंत्र;
  6. ध्रुवीकरण बनाम सब रंगी समाज;
  7.  मध्ययुगीन मानस बनाम  आधुनिक मानस;
  8. अंधविश्वास बनाम वैज्ञानिक दृष्टि;
  9. संघीय ढांचा बनाम एकतंत्रीय ढांचा;
  10. एक देश -एक चुनाव बनाम सामान्य वर्तमान चुनाव प्रणाली ;
  11. जातिगत सर्वेक्षण बनाम यथास्थिति;
  12. बेरोज़गारी + निम्न जीवन स्तर बनाम राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण;
  13. किसान +श्रमिक समस्या बनाम धनिक वर्ग  हित  पोषण;
  14. मर्यादित भाषा बनाम अमर्यादित भाषा प्रयोग;
  15. प्रधानमंत्री गरिमा का अधोपतन बनाम प्रधानमंत्री गरिमा की रक्षा;
  16. जैविक अस्तित्व बनाम  दैविक शक्ति;
  17. संवैधानिक संस्थाओं का अवसानीकरण बनाम संस्थाओं की पुनर्स्थापनाकरण ;
  18.  गोदी मीडिया  बनाम आज़ाद सोशल मीडिया ;
  19. असमान खेल मैदान बनाम अकूत  साधन समृद्ध   खेल मैदान ;
  20. असत्य  का प्लावन   बनाम सत्य का बांध ;
  21. अंतिम चुनाव की आशंका बनाम भविष्य का सुनहरा लोकतंत्र  जैसी द्विविभाजक  प्रवृत्तियों के बीच घनघोर ढंग से लड़ा  गया.

बेशक़, मोदी +शाह नेतृत्व में  सत्ताधारी भाजपा हर मोर्चे पर आक्रामक रही है. चुनाव विजय के लिए एक नई तकनीक ईज़ाद की. एक समय था जब भारत ‘मतपेटी लूट’ के लिए कुख्यात रहा था. परन्तु, अब भाजपा ने इसमें नायाब आयाम जोड़ दिया; मतपेटी के स्थान पर विपक्ष के ‘प्रत्याशी – लूट’ शुरू करदी.  इसका सफल प्रयोग सूरत और इंदौर में करके दिखा दिया. ऐन  मौक़े  पर ही कांग्रेस प्रत्याशियों को  चुनाव मैदान से हटवाकर भाजपा में शामिल कर लिया. इससे पहले  खजुराहो में भी भाजपा ने समाजवादी प्रत्याशी के साथ यही किया था. निश्चित ही  भाजपा ने  चमत्कारिक फार्मूले को विकसित किया. इसकी जड़ें विरोधी दलों की सरकारों को गिराने में भी फैली हुई हैं; इसी फार्मूले के तहत  मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, अरुणाचल, उत्तराखण्ड  जैसे  प्रदेशों में गैर-भाजपाई सरकारों का पतन  हुआ था. सारांश में, सर्वत्र ‘ भाजपा का राज’ रहे.  यह आम चुनाव भी इसी मंसूबे से लड़ा गया।  साम+दाम+दंड+ भेद का भरपूर प्रयोग किया गया. मोदी+शाह जोड़ी देश भर में छाई रही. भाजपा अध्यक्ष नड्डा जी बराये नाम  बीच बीच में नमूदार होते रहे. लेकिन, चुनाव कमान  जोड़ी के निरंकुश हाथों में रही. पहले ‘मोदी की गारंटी’ गूंजी, फिर मोदी -सरकार की गारंटी आई और अंत में भाजपा सरकार की गारंटी सामने आई. एक ही नारे के तीन तीन रूप दिखाई दिए. साफ़ शब्दों,  जोड़ी का क़द  भाजपा से बड़ा दिखाई दिया. मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किनारे पर ही खड़ा दिखाई दिया. भाजपा अध्यक्ष ने तो घोषणा कर भी दी कि  अबउन्हें  संघ की ज़रुरत नहीं है. दोनों अपने अपने क्षेत्र में स्वतंत्र व सक्षम हैं. इस घोषणा ने सभी को चौंका दिया. लेकिन, क्या  संबंध विच्छेद की यह घोषणा अंतिम है या किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा,  अभी यह एक पहेली है. चुनाव परिणामों के बाद ही

इस घोषणा पर से रहस्य का पर्दा उठ सकता है.

उत्तर चुनाव परिणाम के संभावी  परिदृश्य को लेकर क़यासी घोड़े ज़रूर दौड़ रहे हैं. राजधानी दिल्ली में  सियासी पर्यवेक्षकों के बीच एक सवाल प्रमुखता से ज़रूर उठ रहा है और वह है ‘सत्ता का शांतिपूर्वक हस्तांतरण’. यदि  भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो क्या निवर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वेच्छापूर्वक अपना पद छोड़ देंगे ? ऐसी आशंका मोदी जी की फितरत और कार्यशैली के सन्दर्भ में व्यक्त की जा रही है. सभी जानते हैं कि  मोदी जी  अपने मुख्यमंत्री काल ( गुजरात 2001 -2014 ) से लेकर अपने प्रधानमन्त्री  काल ( 2014 -2024 ) तक आत्मकेंद्रित शैली के अभ्यस्त रहे हैं. सत्ता में बने रहने के लिए वे किसी भी सीमा तक जाने से कतराएंगे नहीं.  उनकी आत्मनिष्ठ कार्यशैली और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की कार्यशैली के बीच काफी समानता है. ट्रम्प के समान यह ज़रूरी नहीं है कि वे भी आसानी से  अपनी पराजय को स्वीकार करते हुए फ़क़ीरी  चोला धारण कर पहाड़ों की तरफ चले जाएं! वैसे वे कन्याकुमारी ज़रूर जा रहे हैं और विवेकानंद की मूर्ति के चरणों  में बैठ कर आत्मदर्शन करने का उनका विचार है. अपनी हार को जीत में बदलने के लिए वे कोई भी स्वांग रच सकते हैं. दूसरा दृश्य यह है कि यदि चन्द सीटें कम रहती हैं तो कॉर्पोरेट घराने उनके लिए थैलियां बिछा  सकते हैं. बड़े पैमाने पर नवनिर्वाचित सांसदों की खरीद-फ़रोख़्त हो सकती हैं. मोदी जी को कॉर्पोरेट घरानों का भरोसेमंद दोस्त माना  जाता है. यह बात दीगर है कि चुनाव के दौरान उन्होंने अपने भाषण में अम्बानी + अडानी के नामों का खुलासा करके अपनी विश्वसनीयता को संदेहास्पद बना लिया हो! वैसे पूंजीपति का कोई स्थायी घोड़ा नहीं होता है. वह मुनाफ़े के उतार-चढ़ाव को ध्यान में रख कर अपना घोड़ा बदलता रहता है. अक़्सर वह  एक साथ कई घोड़ों की सवारी भी करता रहता है. इस दृष्टि से कोर्पोरेटपति अम्बानी और अडानी भी  अपवाद नहीं हैं. देखना यह होगा कि घोड़े किस दल से रहते हैं. कहा जा रहा है कि आंध्रप्रदेश, तेलंगाना,ओडिशा जैसे प्रदेशों में पर नज़र है. वैसे शिकार के खेल में  गृहमंत्री अमित शाह बेजोड़ शिकारी  हैं. अभी से ही  उन्होंने कई विकल्पों पर एक साथ काम करना शुरू कर दिया होगा! सारांश यह है कि यह सत्ता जोड़ी  अपनी सत्ता-सवारी  को आसानी से छोड़नेवाली नहीं है. इस जोड़ी ने अपनी पार्टी को हर स्थिति के लिए तैयार रहने के लिए कह भी दिया होगा.  वैसे  प्रधानमंत्री मोदी ने  स्वयं भी चुनावों के बाद बड़े निर्णय के संकेत दे दिए हैं. इसकी बिसात उन्होंने अभी से बिछानी  शुरू कर दी है. यह महज़ इत्तफ़ाक़ नहीं है कि चुनाव के दौरान मोदी सरकार ने कतिपय वरिष्ठ अधिकारियों की स्थिति में परिवर्तन कर डाला है. अपने मनवांछित अधिकारियों  को मन भावन -मोर्चों पर तैनात कर दिया है. इसी क्रम में  निवर्तमान सेना प्रमुख को एक माह की  सेवा वृद्धि भी दे दी है. वे 31 मई को सेवानिवृत होने वाले थे, अब 30 जून को होंगे. ऐसा उन्होंने क्यों किया है, यह भी रहस्य्पूर्ण है. अतः इस पृष्ठभूमि में सत्ता हस्तांतरण को लेकर आशंकाएं पैदा होती हैं तो  यह स्वाभाविक ही  है. यदि सुविधाजनक पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो दृश्य दूसरा होगा. यह जोड़ी और अधिक निरंकुश हो सकती है! पार्टी का पहले से अधिक हाशियाकरण हो सकता है. ऐसी स्थिति में आशंकाएं बिल्कुल आधारहीन नहीं लगती हैं. यह भी भय है कि यदि मोदी तीसरी दफे प्रधानमंत्री बनते हैं तो सोशल मीडिया के पर कतर  दिए जायेंगे। क्योंकि, सोशल मीडिया ने काफी हद तक स्वतंत्र भूमिका निभाई है और इस जोड़ी की अच्छी खासी खबर ली है. यह जोड़ी प्रतिशोध के लिए जानी जाती  है. ज़ाहिर है, जोड़ी के निशाने पर सोशल मीडिया  रहेगा. ऐसी स्थिति में मीडिया के गोदीकरण का विस्तार ही होगा और रही -सही आज़ादी जाती रहेगी.

दूसरा दृश्य यह भी हो सकता है कि  इंडिया महागठबंधन  272 का जादूई आंकड़ा पार कर सकता है  या उसके समीप आ सकता है. ऐसी स्थिति में इंडिया के नेतृत्व से परिपक्व निर्णय की  अपेक्षा की जाती है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले इस गठबंधन को चाहिए कि वह अभी से ही इंडिया की सरकार का नेतृत्व कौन करेगा, अभी से इसकी क़वायद शुरू करदे.  क्योंकि उसके पास नेतृत्व के लिए कोई सर्वसम्मत चेहरा नहीं है. इसे उसकी बड़ी खामी के रूप में देखा जा रहा है.विपक्ष की आलोचना के लिए उसे चेहराविहीन  बताया जाता है.  इसलिए ज़रूरी है कि वह चुनाव परिणाम से पहले ही किसी एक नाम पर सहमति पैदा करे. माना  जा रहा है कि  नेतृत्व की दृष्टि से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम सबसे आगे है. वे अनुभवी,  दलित पृष्ठभूमि   और दक्षिण भारत से हैं. कन्नड़, हिंदी और इंग्लिश पर उनका समान  अधिकार है. यानी  उनके पास आवश्यक राजनैतिक नेतृत्व  पात्रता है. संयोग से देश की राष्ट्रपति आदिवासी समाज से है. ऐसे में प्रधानमंत्री दलित समाज से रहता है तो शिखर सत्ता का अनूठा समीकरण बनेगा और स्वतंत्र भारत के इतिहास में नया आयाम जुड़ेगा. भाजपा इसे आसानी से चुनौती नहीं दे सकेगी। सुना जा रहा है कि गठबंधन में संतुलन बनाये रखने के लिए दो उपप्रधानमंत्री भी हो सकते हैं. जनता पार्टी की  सरकार ( 1977 -79 )में  दो उपप्रधानमंत्री ( बाबू जगजीवन राम और चरण सिंह ) थे. मेरी दृष्टि में राहुल गाँधी पद की दौड़ से बाहर रहेंगे. उन्हें फिरसे  पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. क्योंकि आनेवाले समय में संगठन की दृष्टि से कांग्रेस  को मज़बूत करना पड़ेगा. दिल्ली समेत  कई राज्यों में इसकी हालत लचर है. शरद पवार को इंडिया का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. यह भी माना जा रहा है कि  ममता बनर्जी इंडिया महागठबंधन से रिश्ता नहीं तोड़ेंगी. सक्रिय समर्थन देती रहेंगी. चार जून के बाद इंडिया महा गठबंधन को बनाये रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी. यदि यह सत्ता में नहीं आता है तो इसके घटक सदस्य इधर-उधर भटक सकते हैं. शिकारी पहले से ही टोह में रहेंगे. यदि इंडिया की सरकार बनती है तो दल-बदल कानून को और सख्त बनाये जाने की ज़रूरत होगी. उन गलियों को बंद करना होगा जिससे  हो कर निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप निकल कर पाला बदल लेते हैं. सरकारों का पतन होता रहता है. लोकतंत्र कमज़ोर होता जाता है. मतदाता ठगे जाते हैं. अतः इस दिशा में अविलम्ब क़दम उठाने की ज़रूरत है.

आपातकाल : तब और अब

April 23, 2024 | By Ramsharan Joshi
आपातकाल : तब और अब

जंग है घोषित इमरजेंसी बनाम अघोषित इमरजेंसी ?

18 वीं लोकसभा के लिए चुनावों का पहला चरण हो चुका है; 62 प्रतिशत  से अधिक मतदान के साथ मतदाताओं ने  ईवीएम  के द्वारा 102 सीटों के भाग्य का फैसला दे दिया  है. शेष सीटों के लिए चुनाव प्रक्रिया 1 जून तक ज़ारी रहेगी. चुनावों के शोर के बीच मोदी -भक्त और भाजपा समर्थक अक़्सर इंदिरा गांधी के शासन काल की इमरजेंसी या आपातकाल का तल्ख़ी के साथ याद दिलाने से चूकते नहीं हैं. 25 जून, 24 आनेवाला है.  25 जून 1975 में  लगी  इमरजेंसी को उस रोज़ आपातकाल के 49 वर्ष पूरे हो जाएंगे. बेशक़, लोकतांत्रिक  व्यवस्था  में किसी भी दल की इमरजेंसी ‘ नामंज़ूर’ है.  25  जून 1975 से 21 मार्च 1977 के इक्कीस मासी  कालखंड को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की   चुनौतीपूर्ण  लोकतांत्रिक यात्रा का ‘अंधकारग्रस्त पड़ाव’ ही कहा जायेगा. किसी को इससे इंकार नहीं है.

इस एक वर्ष कम आधी सदी के कालखंड में भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था और शासन शैलियों में अनेक बदलाव आये हैं. लेकिन, विगत एक दशक के मोदी- शासन शैली ने कई प्रकार के संदेह, आशंकाएं, भय , अनिश्चितता, राज्य के चरित्र में परिवर्तन जैसी संभावनाएं पैदा करदी हैं.  क्यों समाज के कतिपय क्षेत्रों  में ऐसी आशंका है कि  2024 के आम चुनाव अंतिम है ?; यदि मोदी -नेतृत्व को प्रचंड बहुमत मिलता है तो संविधान में आमूलचूल परिवर्तन हो जायेगा ?; क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारत को हिन्दू राष्ट्र की घोषणा का तोहफ़ा उनकी मातृ संस्था  राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को उसकी अगले वर्ष जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर देंगे ? क्या भाजपा के लिए  वर्तमान चुनाव   ‘ करो या मरो ‘ का अनुष्ठान बन गया है ? क्या मोदी -शाह शासन देश को’ विपक्ष व प्रतिरोध मुक्त भारत’ बना कर रहेंगे ?

भययुक्त आशंकाओं के अलावा बहस इस पर भी है कि  क्या भारत में अघोषित इमरजेंसी का माहौल है? क्या देश में बहुसंख्यकवाद पर सवार तानाशाही है; क्या चुनावी अधिनायकवादी सत्ता का शासन है ? क्या मोदी हुकूमत को 21 वीं सदी का फासीवादी संस्करण कहा जाना चाहिए?; क्या अल्पसंख्यक समुदायों में विभिन्न हथकण्डों- नारों  से  ‘ दोयम दर्ज़ा   या सेकंड क्लास सिटीजन’ के भाव भरे जा रहे हैं?  क्या  मुख्यधारा का मीडिया अघोषित सेंसरशिप  का क़ैदी है?; क्या लोकतंत्र का अघोषित पटाक्षेप हो चुका है ? क्या भाजपा या मोदी विरोधियों को राष्ट्र या राज्य द्रोही  और गद्दार की नज़र से देखा जा रहा है ? क्या वाक़ई भारत 1975 में लौट रहा है ? ऐसे सवालों और आशंकाओं के बादल  देश के सामाजिक -राजनीतिक परिवेश पर छाए हुए हैं।

सबसे पहले इंदिरा- इमरजेंसी की पड़ताल करते हैं. जून, 1975 में इमरजेंसी की घोषणा से पहले देश का वातावरण बेहद आंदोलित था; इंदिरा शासन के ख़िलाफ़  समाजवादी -गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण उर्फ़ जे.पी.  के नेतृत्व में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का बिगुल बज  चुका था; मुशहरी आंदोलन, भारत नव निर्माण जैसे आन्दोलनों ने देश के सामाजिक – राजनीतिक तापमान को बहुत बढ़ा दिया था.इससे पहले, जनवरी  1971 के आमचुनावों में शानदार जीत और दिसंबर में पाकिस्तान  -विभाजन व बांग्लादेश के जन्म में भारत के निर्णायक रोल ने इंदिरा गांधी को राष्ट्रीय राजनीति के शिखर पर पहुंचाने के साथ साथ अंतराष्ट्रीय मंच का एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी के रूप में भी  स्थापित कर दिया था. यह वह समय था जब दुनिया ‘दो ध्रुवीय ‘ थी और सोवियत संघ व अमेरिकी शिविरों में बंटी हुई थी. लेकिन, इंदिरा गांधी ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के परचम तले भारत को चमकाये रखा था. ज़ाहिर है, अमेरिकी शिविर बेहद उखड़ा हुआ था. शीत  युद्ध का दौर और  सी.आई. ए.( अमेरिकी गुप्तचर संस्था) और के. ज़ी. बी. ( रूसी गुप्तचर संस्था) के माध्यम से भी प्रॉक्सी जंग लड़ी जा रही थी. भारत भी इसका अपवाद नहीं था. . देश में ज़बर्दस्त रेल कर्मचारियों की हड़ताल हुई ,विभाजित होने के बावज़ूद  नक्सलबाड़ी आंदोलन ने शासक वर्ग के चूलें हिला कर रखी हुई थीं.देश की विभिन्न जेलों में बंद करीब 32 हज़ार राजनीतिककर्मियों का भी मुद्दा उभर रहा था.   भ्रष्टाचार का  मुद्दा भी केंद्र में आता जा रहा था. इंदिरा जी का ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा खोखला लगने लगा था. इस राष्ट्रव्यापी, विशेषतः हिंदी प्रदेश, असंतोष की पृष्ठभूमि में 1975 में समाजवादी नेता राजनारायण की एक चुनाव याचिका  की सुनवाई में इलाहबाद  उच्च न्यायालय ने प्रधानमंत्री गांधी के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे दिया था. उत्तरप्रदेश की राय बरैली सीट से निर्वाचित इंदिरा जी का प्रधानमंत्री पद संकटों से घिर गया था.यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक यह प्रकरण पहुंच गया था. इसी बीच दिल्ली में आयोजित विपक्षी नेताओं की  एक सार्वजनिक सभा में  सम्पूर्ण क्रांति के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण ने अत्यंत गंभीर व संवेदनशील भाषण दिया था. इंदिरा गांधी से त्यागपत्र की मांग करने के साथ साथ  उन्होंने सेना, पुलिस और सरकारी अधिकारियों  -कर्मचारियों से भी अपील कर डाली  कि वे इंदिरा  सरकार के अवैध और अनैतिक आदेशों का पालन न करें. उन्होंने देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश  ए.एन. रे  से भी कहा कि वे इलाहबाद  उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध  इंदिरा गांधी की याचिका को मत सुने. जयप्रकाश जी की इस अपील के बाद तो पारा तक़रीबन अपने शिखर पर था. इस बढ़ते खतरे से  निपटने के लिए प्रधानमंत्री गाँधी ने  25 जून को संविधान सम्मत ‘आंतरिक इमरजेंसी’ को लागू कर दिया। उस समय राष्ट्रपति थे फखरुद्दीनअली अहमद। चंद्रशेखर सहित सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए. जे. पी. भी. मेरी दृष्टि में संपूर्ण क्रांति बिल्कुल भी क्रांति नहीं थी। एक प्रकार से 2012_ 13का भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हज़ारे आंदोलन का मूल रूप था। जे पी आंदोलन से ही राष्ट्रीय राजनीति में संघ और जनसंघ की अस्पृश्यता दूर होने लगी थी। जयप्रकाश जी सरल राजनीतिक प्रकृति के राजनेता थे।उन्होंने संघ परिवार के असली मंसूबों पर शंका नहीं की थी।फलस्वरूप वे जे पी आंदोलन में घुलमिल गए थे। संघ परिवार की विस्तारित भूमिका को अन्ना आंदोलन में देखा जा सकता है।इस भूमिका का क्लाइमैक्स है मोदी सत्ता का उदय ।

अब एक काल्पनिक दृश्य. यदि वर्तमान दौर में जय प्रकाश जी के स्वरों में  विपक्ष के शिखर नेता( शरद पवार, खड़गे, ममता बनर्जी, राहुल गांधी, अखिलेश यादव, स्टालिन, सीताराम येचूरी, लालू यादव, फारुख अब्दुल्ला आदि )  प्रधानमंत्री मोदी से इस्तीफ़े की मांग के साथ साथ राष्ट्र के आधारभूत बलों (फोर्सेज) से   कहें कि वे सरकार के अवैध व अनैतिक आदेशों का पालन न करें, तो मोदी-शाह सत्ता प्रतिष्ठान की प्रतिक्रिया कैसी  रहेगी ? क्या वह सेना, पुलिस और अधिकारीयों से की गई अपील को सहन कर सकेगी? क्या वह उन्हें तुरंत ही जेल की सलाखों के पीछे नहीं डाल देगी ? यह सवाल इसलिए पैदा हो रहा है कि सरकार या मोदी जी की आलोचना को देश-राष्ट्र की आलोचना का पर्याय बनाया जा रहा है. राष्ट्र द्रोह का केस लगा कर गिरफ्तार किया जाता है. जे. पी. की तर्ज़ में सेना और पुलिस को नाफ़रमानी  के लिए कहना स्वयं में संगीन मामला है. एक प्रकार से  देश की निर्वाचित सरकार व व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत करने  का आह्वान  जैसा है. इसे कोई भी संविधान सम्मत सरकार सहन कैसे कर सकती है? अगर, मौज़ूदा दौर में ऐसी स्थिति पैदा होती है तो दिल्ली का सत्ता प्रतिष्ठान पल भर के लिए सहन नहीं कर सकेगा.वह  विपक्ष को राष्ट्र विरोधी के साथ साथ हिन्दू विरोधी, मुस्लिम व पाकिस्तान परस्त, विदेशी ताक़तों का दलाल जैसे तमगों से जड़ देगा.

जयप्रकाश जी ने अपने भाषण में इंदिरा गांधी के फासीवाद के ख़िलाफ़ खड़े होने की बात कही थी. क्या आज़ का  सत्ता तंत्र स्वस्थ लोकतान्त्रिक  व उदारवादी है? क्या यह फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध खड़ा है ?  क्या यह लोकतंत्र के नाम पर समाज का ध्रुवीकरण कर नहीं रहा है ? क्या यह हर विरोधी आवाज़ को धर्म और हिंदुत्व के चश्में से नहीं देख रहा है ?  क्या चुनाव के दौर में  ई.डी., सी.बी. आई. जैसी सरकारी  एजेंसियों का दुरूपयोग नहीं  हो

किया जा रहा है?  क्या मुख्यमंत्री और मंत्रियों को जेलों में नहीं डाला गया है ? क्या बैंकों में विपक्ष के खातों पर पाबंदी नहीं लगाई है? क्या विभिन्न कारनामों से  विपक्ष को अपंग नहीं बना दिया गया है ? क्या चुनाव में ‘लेवल प्लेइंग फील्ड ‘ रह गया है ? क्या विपक्ष के लिए ‘ऊबड़-खाबड़ मैदान ‘ बना नहीं दिया गया है ? यह किस इमरजेंसी से कम है? क्या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में धर्म-मज़हब का इस्तेमाल हुआ था ? क्या 1977 के आम चुनावों में विपक्षी दलों के बैंक खातों पर पाबन्दी लगी थी ? क्या जेल में बंद जॉर्ज फर्नाडीज़ सहित अन्य विपक्षी नेताओं को  चुनाव लड़ने से रोका गया था ? क्या उनके यहां इन्कम  टैक्स जैसी संस्थाओं के छापे पड़े थे ? 1977 में चुनाव हारने के बाद इंदिरा जी ने शालीनता के साथ अपनी पराजय को स्वीकार किया था. सारांश में, उन्होंने जो कुछ किया, घोषित ढंग से किया था. क्या वर्तमान में ऐसा किया जा रहा है ?  आज निवर्तमान मोदी -मंत्रिमंडल में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है. इतना ही नहीं, एक भी सांसद नहीं है. क्या यह देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध  परोक्ष सामाजिक+सांस्कृतिक + राजनैतिक इमरजेंसी नहीं है ? इंदिरा -इमरजेंसी  में ऐसा नहीं था. यदि भाजपा को 303या370सीटें नहीं मिलेगी तो क्या मोदी जी शालीनता के साथ सत्ता छोड़ देंगे? यह सवाल भी उठ रहा है। मोदी जी विनम्रतापूर्वक कुर्सी त्याग नहीं करने वाले हैं।लोगों में ऐसी आशंकाएं हैं।

बेशक, इंदिरा इमरजेंसी ने प्रेस पर  सेंसरशिप लगाई गई थी. कुलदीप नैयर जैसे कई वरिष्ठ पत्रकार गिरफ्तार भी हुए थे. इण्डियन एक्सप्रेस पर शिकंजा कैसा था. लेकिन, 26 व 27 जून, 75 को ऐसे भी दैनिक थे जिन्होनें सरकारी पाबंदियों के खिलाफ लिखा था. मुझे याद है, इंदौर से प्रकाशित प्रसिद्ध नई दुनिया के तत्कालीन संपादक राजेंद्र माथुर उर्फ़ रज्जू बाबू ने इमरजेंसी के विरुद्ध सात लेख लिख कर सत्ता तंत्र को हिला दिया था. उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया था . इमरजेंसी के दौरान मैंने स्वयं दिनमान, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, लिंक, इकनोमिक पोलिटिकल वीकली में लेख लिखे थे. नई दुनिया में मेरा इंटरव्यू छपा था. मुझे याद नहीं, मेरे लेखों पर रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे चिंतक-लेखक सम्पादकों ने सेंसरशिप की कैंची चलाई हो! ऐसा भी समय आया था जब मेनस्ट्रीम के सम्पादक  निखिल चक्रवर्ती सहित कई सम्पादकों व पत्रकारों ने इमरजेंसी व सेंसरशिप का खुल कर विरोध करना शुरू कर दिया था. संपादकीय स्पेस को खाली छोड़ना शुरू कर दिया था. क्या  आज के मोदी -शाह दौर में  गोदी मीडिया का कोई स्वामी, सम्पादक, एंकर  सामने आ कर खुला विरोध करेगा ? क्या गोदी मीडिया ( टीवी+ प्रिंट ) मोदी जी के भाषण पर कैंची चला सकता है? क्या गोदी मीडिया में वित्त मंत्री के पति व विख्यात अर्थशास्त्री डॉ. प्रभाकर की चेतावनियों पर चर्चा की गई है ? क्या सीए जी (comptroller and auditor general of india) की रिपोर्टों में उजागर प्रकरणों को लेकर गोदी मीडिया में बहस हुई है ?  क्या चीन की कारस्तानियों को लेकर चर्चा करवाई गई ? क्या गोदी मीडिया के पत्रकारों ने प्रधानमंत्री से कभी पूछा है कि वे प्रेस वार्ता क्यों नहीं बुलाते हैं ? क्या गोदी मीडिया ने मोदी जी और शाह जी पूछा है कि वे चुनाव आयोग की आचार संहिता का यथावत पालन करते हैं? क्या गोदी मीडिया ने  चुनाव आयोग की कार्य शैली पर सवालिया निशान लगाया है ? गोदी मीडिया की यह कार्य शैली क्या दर्शाती है ? क्या यह आज़ाद मीडिया की प्रतीक है ? क्या इसे अघोषित सेंसरशिप नहीं कहा जाना चाहिए ? क्या कभी गोदी मीडिया ने पत्नोन्मुख लोकतंत्र और उभरती अधिनायकवादी प्रवृतियों पर चर्चा आयोजित की है ? प्रायः चैनलों पर भारत व पाकिस्तान और हिन्दू व मुसलमान  की लज़ीजदार बहसों को परोस दिया जाता है. मीडिया में ‘उत्तर सत्य मीडिया और उत्तर सत्य राजनीति ‘ की अपसंस्कृति का प्रभुत्व छाया हुआ है। दूसरे  शब्दों में,  ‘सत्य का  असत्य  और असत्य का  सत्य’ में सुविधानुसार मनभावन रूपांतरण की अपसंस्कृति की सत्ता फैली हुई है.सार तत्व यह है कि मौज़ूदा दौर में घोषित इमरजेंसी या आपातकाल नगण्य प्रतीत होते हैं. जंग में इंदिरा इमरजेंसी परास्त हो चुकी है.  तब क्यों  न मोदी -शाह दौर की   इमरजेंसी के काल खण्ड को घोषित इमरजेंसी से अधिक भयावह और विजेता घोषित किया जाए?

कहां से कहां आ गए हम! जीवंत लोकतंत्र और प्रधानमंत्री: ‘आइये नरेंद्र मोदी जी, प्रेस कांफ्रेंस करिये!’

April 19, 2024 | By Ramsharan Joshi
कहां  से कहां आ गए  हम! जीवंत लोकतंत्र और  प्रधानमंत्री: ‘आइये  नरेंद्र मोदी जी, प्रेस कांफ्रेंस करिये!’

“एक छोटा-सा मोड़ जवाहरलाल को तानाशाह बना सकता है, जो धीमी गति से चलने वाले लोकतंत्र के विरोधाभास को भी पार कर सकता है. वह अभी भी लोकतंत्र, समाजवाद की भाषा और नारे का उपयोग कर सकता है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि इस भाषा की आड़ में फासीवाद कितना फ़ैल चुका है… ”

( नेहरू ने  कोलकता  से प्रकाशित मॉडर्न रिव्यु  के   नवंबर 1937 के अंक  में  छद्म नाम चाणक्य  से स्वयं का मूल्यांकन किया था और लोगों को चेतावनी दी थी कि उनमें सीज़र ( तानाशाह ) की सभी प्रवृत्तियां हैं. अतः उन्हें लगातार तीसरी दफे  कांग्रेस का अध्यक्ष न चुनें और अपने नेताओं से लगातार सवाल करते रहें. )

देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की चेतावनी और स्वयं का मूल्यांकन आज़ के आज़ाद भारत में भी  उतना ही प्रासंगिक है जितना कि 15 अगस्त,1947 के पूर्व ग़ुलाम भारत में था. तब नेहरू भावी सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे और आज़ाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री भी बने. इस पद पर वे  27 मई, 1964 को निधन तक रहे. प्रधानमंत्री नेहरू अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस या प्रेस सम्मेलन  या वार्ता के लिए हमेशा  चर्चित रहे हैं.देश-विदेश के पत्रकारों को प्रधानमंत्री की  प्रेस वार्ता का इंतज़ार रहा करता था.  उनकी  प्रेस वार्ता में उपस्थित रहने के लिए अक्सर विदेश से भी पत्रकार आया करते थे. वे प्रेस वार्ता और इंटरव्यू के प्रति सजग व गंभीर रहते थे. इस संबंध में तत्कालीन भारत  के बहुचर्चित व बहुभाषी साप्ताहिक अख़बार ‘ब्लिट्ज’ के विख्यात  संपादक आर. के. करंजिया ने बेहद दिलचस्प अनुभव मुझे सुनाया था. किस्सा 1985 का है. तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की प्रेस पार्टी के हम दोनों भी सदस्य थे. क्यूबा की राजधानी हवाना की एक होटल में रुके हुए थे. करंजिया साहब ने  नेहरू जी के साथ अपने  प्रेस अनुभवों को शेयर करते हुए बताया कि  उनकी  प्रधानमंत्री के साथ भेंटवार्ता पहले से तय थी. लेकिन, इसी बीच अगले दिन ही संसद की मानहानी के प्रकरण में उन्हें सदन में फटकार और दंड सुनने  के लिए उपस्थित भी रहना था. फोन पर उन्होंने प्रधानमंत्री को नई परिस्थिति से अवगत कराया और पूछा,”क्या अब भी मुझे आप  इंटरव्यू देना चाहेंगे? तपाक से उत्तर मिला ‘ बिल्कुल। तुम्हारे अखबार में प्रकाशित  संसद की अवमानना और मेरा  इंटरव्यू,  दोनों का परस्पर कोई संबंध नहीं है. दोनों अलग अलग बातें हैं. निश्चित समय पर पहुँच जाना  जाना और बेहिचक  सवाल करना’, ऐसे थे  प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू.” मैंने नेहरू जी को  किशोरावस्था तक देखा है, लेकिन उन्हें पत्रकार के रूप में कवर करने का अवसर नहीं मिला. उत्तर नेहरू काल से अब तक ग्यारह प्रधानमंत्री ( लालबहादुर शास्त्री , इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव , एच. डी. देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटलबिहारी वाजपेयी, डा. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी ) हो चुके हैं. इनमें से नेहरूजी, इंदिरा जी, अटल जी, मोदी जी   एक से तीन दफ़े प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं. गुलज़ारीलाल नंदा भी दो दफ़े कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे थे.यह जानना दिलचस्प है कि  वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी को छोड़ कर शेष सभी प्रधानमंत्री धमाकेदार प्रेस वार्ता करते रहे हैं, इंटरव्यू देते रहे हैं और अपनी  देश -विदेश यात्राओं में बारी बारी से पत्रकारों को  अपने साथ ले जाते रहे हैं. यहां तक कि विमान यात्रा में भी हवाई प्रेस वार्ता करते रहे हैं, ज़रुरत पड़ने पर इंटरव्यू भी दिया करते थे. मुझे दोनों का पुख्ता अनुभव है. एक जानकारी बतलाती है कि मोदीजी ने दक्षिण भारत में एक प्रेस वार्ता की थी. लेकिन, दिल्ली समेत किसी भी महानगर और नगर में औपचारिक प्रेस वार्ता की जानकारी नहीं है. अलबत्ता अभिनेता अक्षय कुमार सहित कतिपय चहेते पत्रकारों को मनभावन इंटरव्यू ज़रूर दिए हैं. सारांश में, इस क्षेत्र में उनकी ‘उपलब्धि शून्य’ ही मानी जाएगी.

इस लेख में कुछ अवसरों का उल्लेख मौज़ूं रहेगा. 1968 से 1971 का कालखंड इंदिरा जी के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण था. कांग्रेस का विभाजन हुआ और इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई थी. लेकिन, वामपंथी और समाजवादी सांसदों के समर्थन से सरकार चलती रही. इंदिरा जी के साथ पत्रकारों की नियमित मुठभेड़ें होती रहती थीं. औरंगज़ेब रोड स्थित तत्कालीन प्रधानमंत्री निवास के सामने चौराहे पर अनौपचारिक प्रेसवार्ता हुआ करती थीं. 1971 के भारत -पाक युद्ध के दौरान पत्रकार-मुठभेड़ों की गति बढ़ गयी थी. एक दफ़ा अगरतला दौरे के समय सर्किट हाउस में आयोजित खचाखच भरे प्रेस कॉन्फ्रेंस में इंदिरा जी ने सवालों के हमलों का सहजता के साथ सामना किया था.मैं भी एक  प्रश्नकर्त्ता  था. अल्पतम अवधि के लिए ही सही, चरण सिंह जी भी प्रेस से परहेज़ नहीं किया करते थे. 1980 में सत्ता में  पुनर्वापसी  के  बाद भी इंदिरा जी ने प्रेस के साथ मुठभेड़ों को जारी रखा. प्रेस वार्ता के आयोजन होते रहे.

दिल्ली में ही 31 अक्टूबर , 1984 को इंदिरा जी की हत्या के बाद उनके बड़े पुत्र राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी.  उन्होंने भी अपने नाना  नेहरू और मां इंदिरा गांधी की प्रेस वार्ता परंपरा को जारी रखा था. यहां तक कि  वे अपने निवास स्थान पर पत्रकारों के साथ साथ आम जनता से भी उत्साह के साथ मिला करते थे।  मैंने ऐसे अवसरों को खूब कवर किया है. उनके साथ मुझे  देश-विदेश की कई यात्राओं में शामिल होने का अवसर भी  मिला था. वे बेहिचक पत्रकारों से मिला करते थे. इतना ही नहीं, 1987 में श्रीलंका यात्रा के दौरान राजधानी कोलम्बो में परेड का निरीक्षण करने के दौरान श्रीलंका के  एक सैनिक ने उन पर हमला कर दिया था. वातावरण में तनाव भर गया था. वे बड़ी सहजता से एयरपोर्ट लौटे और भारतीय विमान में अंदर आ कर पत्रकारों से सुविधापूर्वक बतियाते रहे और निश्च्छल भाव से राइफल के बट से   गले पर उभरी  खरौंच को दिखाते  रहे. वे विज्ञान भवन में विदेशी शासनाध्यक्षों के साथ भी धड़ल्ले से प्रेस वार्ता किया करते थे. जम कर सवालों के मार सहते और ज़वाब भी देते.एक बार तो उन्होंने बड़ी मासूमियत के साथ विज्ञानभवन की  प्रेसवार्ता में विदेश सचिव को बदलने की घोषणा तक कर डाली थी. नौकरशाही ने इस घोषणा शैली को पसंद नहीं किया था. कई दिनों तक विवाद बना रहा था.  राव, गौड़ा, गुजराल और वाजपेयी के साथ भी ऐसे ही अनुभव हुए हैं; इंदिरा जी के ज़वाब पैने, नपे-तुले पर तेज़ हुआ करते थे; राजीव के सहज -सुबोध -मासूम से थे; राव के गंभीर व परिपक्व थे; गुजराल के बौद्धिक और अटलजी के मिश्रित भाव के थे. एक दफ़ा तो उनके निवासस्थान पर आयोजित रात्रिभोज प्रेस वार्ता में मेरी झड़प हो गयी थी. उनदिनों कालाहांडी में भूख से मौतें हो गयी थीं और कई टन गेहूं गोदामों में सड़ गया था. मुझसे रहा नहीं गया और सवाल दाग दिया। अटल जी बोले,” कुपोषण से हुई हैं, भूख से नहीं.”  मैंने आक्रामक तर्ज़ के साथ पूरक प्रश्न किया,”जब आप विपक्ष में हुआ करते थे तब आप ही ऐसी मौतों को भूख से जोड़ा करते थे. आज कांग्रेस विपक्ष और आप सत्तापक्ष में, क्या भूख की परिभाषा भी पक्ष की अदला-बदली के साथ बदल जाती है ?” ज़ोर का ठहाका  लगा।  अटलजी भी हंसे. जब मैं खाने की तरफ बढ़ रहा था तब अटलजी ने रोक कर  हँसते हुए कहा  ,”पत्रकार महोदय, आज तो आप बड़े बरस रहे थे?” मैंने भी तपाक से ज़वाब दिया,” अटल जी, मैं तो आपकी ही भूमिका निभा रहा था जोकि पीछे छूट  गयी है.”  “अच्छा किया, याद दिला दिया. चलो, भोजन करो” अटलजी  स्नेही लहज़े में बोले. अटलजी पूर्णकालिक नेता बनने से पहले पत्रकार रह चुके थे. अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी गाहे-बगाहे प्रेसवार्ता को सम्बोधित कर लिया करते थे. विपक्ष ने एक व्यंग्यभरा जुमला उछाला था,’मनमोहन सिंह जी बाथरूम में भी छाता तान कर नहाते हैं.” यही मौनी सिंह जी  मीडिया से पलायन नहीं करते थे. साल में एक-दो प्रेसवार्ता कर लिया करते थे. एक दफा मैंने क्रोनी पूंजीवाद और न्यायसंगत समता को लेकर सवाल किया था. वे कुछ अचकचा गए, लेकिन बाद में अपने उत्तर में उन्होंने कुछ बिंदुओं पर सहमति भी जताई थी.

वास्तव में, प्रेसवार्ता एक ऐसा मंच है जिस पर राजनेता के आत्मविश्वास, योग्यता, राजनीतिक  व कूटनीतिक कौशल,   शासन व राष्ट्र पर पकड़ और दूरदृष्टि का परीक्षण हो जाता है. इस मंच पर शासनाध्यक्षों, प्रमुखों और मुख्यमंत्रियों को एक ऐसा सुनहरा अवसर मिलता है जहां वे स्वयं में एकमेव अस्तित्व होते हैं और जनता के साथ कनेक्ट करने के लिए प्रेस या मीडिया को एक माध्यम बनाते हैं. इस मंच से शासन का वास्तविक चरित्र सामने आता है और योजना- नीति को प्रचारित भी किया जाता है. इसके साथ ही  मीडिया को जनता और सरकार के बीच सेतु की भूमिका को निभाने का अवसर भी मिलता है. सवालों के माध्यम से पत्रकार ज्वलंत मुद्दों को उठाता  है और शासन प्रमुख की प्रतिक्रिया को सामने लाने की कोशिश करता है. चतुर नेता प्रेसवार्ता की प्रभावशीलता को जानते-समझते हैं. इसका भरपूर फायदा भी उठाते हैं।  सवाल-ज़वाब प्रक्रिया से लोकतंत्र मज़बूत और गतिशील बनता है. आख़िर, प्रेस या मीडिया को राज्य का चौथा स्तम्भ क्यों कहा जाता है ?कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बाद इसका स्थान क्यों आता है ? सिर्फ इसलिए कि मीडिया  राज्य और सरकार के ‘होने या न होने’ के अस्तित्व को जनता तक पहुंचाता  है. इस प्रक्रिया से जनता राज्य और सरकार में भरोसा करने लगती है।  उसे विश्वास होने लगता है कि संविधानसम्मत कार्य हो रहा है. यदि मीडिया सुप्त रहेगा या उसे विलुप्त किया जायेगा तो नेहरू जी की आशंका में ‘ रोमन तानाशाह सीज़र ‘ के जन्म लेने के खतरे बढ़ जायेंगे.

इस दौर में कुछ ऐसा ही हो रहा है. मोदी जी एक दशक से प्रधानमंत्री हैं. 2014 से लेकर 2024 तक उन्होंने किसी औपचारिक प्रेसवार्ता का सामना किया है, मुझे ज्ञात नहीं है. मैं इतना जानता  हूँ कि वे गोदी पत्रकारों को छोड़ स्वतंत्र चेतनासम्पन्न पत्रकारों से पलायन ही करते आ रहे हैं. वाशिंगटन में आयोजित एक प्रेसवार्ता  वे  महिला पत्रकार के सवाल का जवाब नहीं दे सके थे. भारत में ही विख्यात टीवी एंकर कर्ण थापर के इंटरव्यू को बीच में छोड़ कर चल दिए थे. तब वे गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते  थे. विदेश यात्राओं में अनुकूल या अनुकूलित  पत्रकार साथ जाते हैं. इसके विपरीत पूर्व के प्रधानमंत्रियों की मीडिया पार्टी का चरित्र मिश्रित हुआ करता था. किसी एक मीडिया घराने पर केंद्रित नहीं था. प्रेस पार्टी का प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो द्वारा  लोकतान्त्रिक तरीके से चयन किया जाता था. खुलकर प्रधानमंत्री से सवाल ज़वाब हुआ करते थे।  एक दफा तो अमेरिका की   गुजराल- यात्रा के दौरान मेरी  न्यूयोर्क में विदेश सचिव से झड़प हो गई थी. किसी मुद्दे पर मामला गरमा गया था. प्रधानमंत्री गुजराल ने इस घटना को अन्यथा नहीं लिया।

यदि  आज विज्ञानभवन या अन्यत्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रेसवार्ता को सम्बोधित करते हैं तो उन्हें स्वतंत्र पत्रकारों के निम्न  सम्भावी सवालों की बौछार का सामना करना पड़ सकता है : 1. आप कब से एक देश-एक चुनाव प्रणाली को लागू  करना चाहेंगे?;2.  क्या आप भारतीय लोकतंत्र को विपक्षमुक्त बना रहे हैं?;3. क्यों चुनाव आयोग  सत्ता समर्थक बनता जा रहा है?;4.देश में  ईवीएम को लेकर अविश्वास क्यों है और बैलट पेपर से चुनाव कराने में क्या समस्या है ?; 5. क्या सरकारी एजेंसियों का दुरूपयोग नहीं हो रहा है?;6. क्या भाजपा के सभी नेता और दूसरे  दलों से शामिल होने वाले नेता बेदाग़ी हैं?; 7.बैंकों के  हज़ारों करोड़ रूपये  लेकर विदेश जानेवाले  भगोड़ों के ख़िलाफ़ कार्रवाई ?; 8. दलबदल रोकने के लिए सख्त कानून; 9. वित्तमंत्री के पति अर्थशास्त्री प्रभाकर ने चुनाव बांड को विश्व का सबसे बड़ा घोटाला बताया है. आपकी प्रतिक्रिया ?;10. विपक्षी नेताओं पर छापेमारी और दलों के बैंक खातों को बंद कर उन्हें प्रचार की दृष्टि से पंगु बना देना न्यायसंगत और लेवल प्लेइंग फील्ड है ?; 11. क्या आप प्रचार के लिए मणिपुर जाना चाहेंगे और अब तक क्यों नहीं गए?; 12. क्या फिर से दो करोड़ नौकरियां देने की मोदी- गारंटी देंगे?; 13. क्या आप देश को आश्वस्त कर सकते हैं कि संविधान का वर्तमान रूप यथावत बना रहेगा?;14. क्या आप भारत माता की शपथ के साथ कह सकते हैं कि चीन के कब्जे में भारत की एक इंच भूमि भी नहीं है, और यदि है तो उसे कब तक वापस लेंगे ?; ;15.चुनाव के बाद विकास का रोड मैप क्या है?; 16. दिल्ली के मुख्यमंत्री जेल में हैं।क्या राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगेगा?और 17. कुछ क्षेत्रों की धारणा है कि देश में अघोषित इमरजेंसी और सेंसरशिप का राज है। आपकी प्रतिक्रिया?;18.पिछले बीस सालों में मीडिया का विस्तार हुआ है. क्या बहु आयामी मीडिया आयोग का गठन  करेंगे?;19. हमास -इजराइल जंग के प्रति भारत की दृष्टि स्पष्ट  नहीं रही है.ऐसा क्यों? और 20.  विपक्षी नेताओं  की धड़पकड़ कब रुकेगी? क्या इसके पीछे प्रतिशोध की राजनीति है. इस आरोप में कितनी सच्चाई है ?

निश्चित ही मोदी जी के लिए सभी सवालों का ज़वाब देना आसान नहीं रहेगा। मोदी जी आत्मकथ्य या सोलीलोक में निष्णात हैं। सवालों के ज़वाब के लिए उन्हें नेपथ्य से प्रॉम्पटर की सहायता की आवश्यकता रहेगी।सभी जानते हैं कि जब पिछले वर्ष मोदीजी के सामने रखा  टेलीप्रॉम्प्टर अचानक कुछ मिनटों के लिए ठप हो गया था तब वे भी कातर दृष्टि से इधर उधर देखते रहे।उन्होंने भी मौन रखा। वे स्वयं से कुछ नहीं बोल सके। इसके विपरीत कांग्रेस नेता राहुल गांधी अक्सर औपचारिक या औचक प्रेसवार्ता करते रहते हैं।इस चिंतनीय स्थिति से किस बात के संकेत मिलते हैं? यदि  मोदी जी की ‘मन की बात’के अलावा किसी छद्म नाम से उनकी   ‘आत्ममंथन’   की बात  प्रकाशित हुई है तो यह पत्रकार अपना ज्ञानवर्धन करने के लिए तत्पर है.

जन मानस का मनोविज्ञान – क्या मोदी सत्ता को चाहिए गूंगी जनता, सवाल और विपक्ष मुक्त भारत?

April 02, 2024 | By Ramsharan Joshi
जन मानस का मनोविज्ञान – क्या मोदी सत्ता को चाहिए  गूंगी जनता, सवाल और विपक्ष मुक्त भारत?

“चुनावी बांड का करोड़ों रुपयों का घपला हो गया. कोईभी नेता  जेल नहीं गया है!.” यह तंज था एक ऑटोचालक का. किस्सा यह है कि मुझे किसी स्थान के लिए ऑटो लेना था. चालक मीटर से चलने से इंकार कर रहा था. मनमाना किराया मांग रहा था. जिस स्थान तक मुझे जाना था वहां का किराया 120 रु. तक देता रहा हूं।  फिरभी मैं 150 रु. तक देने के लिए तैयार था.लेकिन  चालक   200 रु.पर अड़ा हुआ था. और भी ऑटोचालक थे. टस -से-मस नहीं हो रहे थे. सभी के चेहरों पर घपलाकांड के भाव थे. बल्कि,उनके चेहरों पर  व्यंग्यभरी हंसी थी.एक चालक ने  व्यंग्यकसा, “ अंकल आप मेट्रो से चले जाएं। हमारे मीटर सो रहे हैं. उन डकैतों को तो कुछ कहते नहीं हैं?” यह सुन कर मैं मेट्रो स्टेशन की तरफ मुड़ गया।

ऐसी घटना आम है और इसके किरदार भी अज़नबी नहीं  हैं. लेकिन, जिस दौर में यह घटना घट रही है, वह महत्वपूर्ण है. कोई भी घटना शून्य में नहीं घटती है. उसके ठोस भौतिक आधार होते हैं।  ये आधार जन मानस या मनोविज्ञान को गढ़ते हैं. उदाहरण के लिए,चालक के वाक्य का  जन्म हवा में नहीं हुआ है. इसका सीधा संबंध खरबों रु. के चुनावीं  बांड  के महाशैतानी घोटालों से हैं।  यदि घोटाला की घटना नहीं होती तो चालक के ज़ेहन में चुनावी बांड और सज़ा की बात नहीं उठती।  और न ही तंज कसने का मौक़ा मिलता. चूंकि, इसका सीधा संबंध देश की  राजनीति के कर्णधारों से है , इसलिए इससे  जनमानस  प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता. शिखर से ही पानी नीचे की ओर बहता है।  शिखर नेता -मंडली का आचार-विचार-व्यवहार जनमानस की संरचना में काफी हद तक निर्णायक भूमिका निभाता है. इस भूमिका का प्रभाव प्रजा मानसिकता से ग्रस्त समाजों में अधिक दिखाई देता है; राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जैसे पदों पर आसीन व्यक्ति ‘रोल मॉडल’के रूप में देखे जाते हैं. इन व्यक्तियों के कथनों को गंभीरता से लिया जाता है. इस समय के रोल मॉडल प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी हैं.  मोदी जी के मुखारविंद से निकले किसी भी कथन को अकाट्य माना  जाता है. परम्परागत शब्दों में ‘ब्रह्मवाक्य ‘ के रूप में लिया जाता है.पिछली सदी में  हिटलर और मुसोलिनी के लिए भी ऐसी ही अगाध श्रद्धा थी. जब कोई नेता इस अवस्था को प्राप्त  कर लेता है  तब वह स्वेच्छानुसार ‘सत्य को असत्य, असत्य को सत्य’ में रूपांतरित कर देता है. मिसाल के तौर पर, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ और ‘मोदी की गारंटी’ जैसे अहंकारी भाव से लिप्त शब्द हिंदी भारत में ‘ब्रह्मवाक्य’ से कम हैसीयत नहीं रखते हैं. जनता इन वाक्यों  के प्रभाव-परिणाम के  प्रति विवेचनात्मक दृष्टि नहीं अपनाना चाहती है. जनता इसकी भी पड़ताल नहीं करना चाहती है कि विगत में किये गए मोदी-वायदों का क्या हुआ?; 1. क्या कालाधन वापस आया और प्रत्येक के अकाउंट में 15 लाख जमा हुए हैं?;2.  क्या प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का सृजन हुआ है ?;3.  क्या किसानों की आय दुगनी हुई है?;4.  क्या पेट्रोल व गैस सिलेण्डर के दाम घाटे?;5. क्या बैंकों के हज़ारों करोड़ रु. लेकर भागनेवालों को पकड़ कर वापस देश लाया जा सका; 6. कितने आर्धिक अपराधियों को ज़ैल भेजा गया है?; 7.  कितने पंडित परिवारों को वापस श्रीनगर घाटी में बसाया गया है ?; 8. वायदा करने के बावजूद किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य क़ानून क्यों नहीं बना?; 9. अमीर और अमीर,  ग़रीब और ग़रीब क्यों हो रहे हैं ?; 10. क्यों 81 करोड़ भारतियों को खैरात पर ज़िंदा रखने के लिए मोदी सरकारी को मज़बूर होना पड़ा है ?; 11. क्यों शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार नहीं हुआ है और  इन्हें निजीपूंजी खिलाड़ियों के हाथों में सौंपा जा रहा है ?; 12.  क्यों  निजीकरण और विनिवेशीकरण को जंगली रफ़्तार से बढ़ाया जा रहा है ?; 13.  किसलिए  विज्ञापनों से नगरों -महानगरों -मेट्रों को पाटा जा रहा है?; 14. अब भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं, क्यों?. ऐसे ही हज़ार सवाल हैं. लेकिन, मोदी-जुमलेबाज़ी व फेंकूबाज़ी -बड़बोलेपन ने हिंदी पट्टी में  जन मानस को गहनता-सघनता से अनुकूलित कर रखा है.शासक दल के इस अभियान में  शिखर सत्ता से संरक्षित मुख्यधारा के मीडिया ने निर्णायक भूमिका निभाई है. प्रसिद्ध मीडिया दार्शनिक मार्शल मैकलुहान  का मानना है कि कॉर्पोरेट द्वारा संचालित-नियंत्रित मीडिया का पहला काम जनता की चिंतन इन्द्रियों पर कब्ज़ा करना रहता है. मैकलुहान कहते हैं कि यदि आपने  एक दफ़ा   निजी लोगों के हथकंडों के हवाले स्वयं को कर दिया तब आपका नर्वस सिस्टम यानि आँख-कान पर उनका कब्ज़ा हो जायेगा. वे व्यापारिक फायदा उठाएंगे।  आपके नर्वस सिस्टम पर उनका एकाधिकार हो जायेगा. आप एक दास की  भांति काम करने लगेंगे ( पु. अंडरस्टैंडिंग मीडिया )

देश में आज यही हो रहा है. सत्ताधीशों, विशेषतः प्रधानमंत्री मोदी,  के इर्द-गिर्द दैव्य शक्ति का मिथ गढ़ दिया गया है.उन्हें ‘अवतार’के रूप में मंडित करने के प्रयास किये जाते हैं.  मोदी और उनकी मंडली कैसे भी  कर्म करें, वे सवालों के कठघरे से बाहर ही रहेंगे. जनता प्रधामंत्री, रक्षा मंत्री और गृहमंत्री से  यह कभी नहीं जानना  चाहेगी कि पुलवामा त्रासदी के असली सूत्रधार कौन हैं? आज तक  जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सतपाल मालिक द्वारा उठाये गए सवाल और आशंकाओं का समाधान नहीं हुआ है। इस मुद्दे पर  प्रधानमंत्री और उनके कार्यालय ने ख़ामोशी धारण कर रखी है. आख़िर क्यों ?  जनता यह भी नहीं पूछ रही है कि मोदी जी चीन का नाम लेने से क्यों संकोच करते हैं ? क्या चीन ने हमारी भूमि दबा रखी है? क्यों आज़ लद्दाख की जनता इस मुद्दे पर आंदोलित है ? क्यों लद्दाखियों के मनों में अनेक शंकाएं हैं? शंकाओं के  निराकरण के लिए क्या किया जा रहा है ?  बेशक़, प्रधानमंत्री की भाषण कला बेजोड़ है।  लेकिन, भाषण की अदायगी में दंभ की अंतर्धारा बहती रहती है. उनका लहजा जनता को  उपकृत करनेवाला प्रतीत होता है. ऐसा लगता है कि भारत का जन्म और अंत मोदी -अस्तित्व से जुड़ा हुआ है. ‘मोदी नहीं तो भारत नहीं’, जनता के मानस को इस सांचे में ढालने की कोशिशें चल रही हैं. इसकी परिणति ‘निर्वाचित अधिनायकवाद’ में ही होती है. अब गोदी मीडिया के पंखों पर सवार होकर अधिनायकवाद आया है.

वास्तव में, मीडिया द्वारा देश की जनता को  इतना अनुकूलित किया जा चुका  है कि वह यह भी नहीं सोचना चाहती है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि  धड़ल्ले से दल-बदल क्यों और किसके लिए कर रहे हैं ? क्या विपक्ष के दागी नेता भाजपा में शामिल होते ही  ‘राजा हरिश्चंद्र ‘ बन जाते हैं? ईडी +सीबीई +आयकर विभाग जैसी संस्थाएं सत्तारूढ़ दल के नेताओं पर छापा क्यों नहीं मारती हैं ? क्या सत्ता पक्ष के सभी नेता निर्विवादरूप से ‘पवित्र’ हैं? क्यों विपक्ष की सरकारों का पतन होता है? क्या इस क्रीड़ा के पीछे पूंजी का तो हाथ नहीं है ? जनता यह भी सोचना नहीं चाहती है कि दल-बदल से जहां लोकतंत्र कमज़ोर होता है, वहीं  जनता की पॉकेट भी लुटती है. वज़ह साफ़ है, चुनाव और उपचुनाव में जनता का पैसा ही लगता है.क्यों सरकारी एजेंसियों पर  विपक्षी नेताओं -मंत्रियों को  भाजपा में शामिल होने के लिए दबाव डालने के लिए आरोप लगाए जा रहे हैं? क्यों गिरफ्तारी का आतंक पैदा किया जा रहा है?आज़ ही दिल्ली के सत्तारूढ़  आप पार्टी के नेताओं ने  आरोप जड़े हैं ?शिक्षा मंत्री  आतिशी सहित अन्य नेताओं ने अपनी गिरफ़्तारी की  आशंकाएं व्यक्त  की हैं. दिल्ली की जनता ने आप पार्टी को बहुमत दिलाया है. मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल सहित चार मंत्री तिहाड़ में हैं. सांसद संजय सिंह भी जेल में हैं. एक प्रकार से पूरी सरकार को ही ‘अपंग’ बनाने की साजिशें  जारी हैं. क्या जनता को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा से सवाल नहीं करना चाहिए. क्या प्रधानमंत्री मोदी से नहीं पूछा जाना चाहिए ? पिछले दस सालों में  प्रधानमन्त्री  पद पर आसीन होते हुए भी मोदी जी एक भी प्रेस कांफ्रेंस को सम्बोधित करने का  आत्मविश्वास नहीं जुटा पाये! क्या जनता को पूछना नहीं चाहिए? जब सड़क पर होते हुए भी  राहुल गांधी प्रेस को सम्बोधित कर सकते हैं, तब लाड़ले मोदी जी क्यों नहीं कर सकते ?    क्या जनता दलबदलुओं  और पलटूरामों का  सामाजिक  बहिष्कार नहीं कर सकती है ? लेकिन करेगी नहीं. उसकी चेतना का हरण हो गया है. उसकी मानसिक संरचना को मोदी-मूल्य सांचे में ढाल दिया गया है; सवाल मत करो,सिर्फ़ पालन करो; अच्छे -बुरे -सही या ग़लत का मुद्दा न उठाओ, सिर्फ येन-केन -प्रकारेण काम निकालो; पूंजी के रंग -रूप पर मत जाओ, उसके परिणाम पर जाओ और कॉर्पोरेट घरानों के प्रति आंखें मूंदे रहो; ग्राहक और उपभोक्ता की भूमिका से संतुष्ट  रहो. संक्षेप में, देश में सवाल और विपक्ष मुक्त सामाजिक  + राजनैतिक संस्कृति प्रसारित की जा रही है. उदारवादी लोकतंत्र और संविधान का अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है।

न हिन्दू राष्ट्र चाहिए, न निरंकुश सत्ता. ज़रूरत है सबरंगी समाज और उदारवादी लोकतंत्र की!

April 01, 2024 | By Ramsharan Joshi
न हिन्दू राष्ट्र चाहिए, न निरंकुश सत्ता. ज़रूरत है सबरंगी  समाज और उदारवादी लोकतंत्र की!

पिछले दिनों देश के मुख्यन्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ की रोचक टिप्पणी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी. टिप्पणी हिन्दू राष्ट्र से सम्बंधित थी. माननीय न्यायाधीश  का कथन था कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात छोड़िये,’ हिन्दू गांव’नहीं बनाया जा सकता. इसकी वज़ह यह है  कि  देश विविधताओं से भरपूर है. किसी एक धार्मिक समुदाय का आधिपत्य नहीं है. बाद में ज्ञात हुआ कि यह कथन ‘फेक वीडियो’ है. श्री चंद्रचूड़ ने ऐसा कभी नहीं कहा. फेक कथन ही सही, लेकिन अनायास ही इसके माध्यम से इंद्रधनुषी भारतीय  आत्मा का सनातन यथार्थ प्रकट हो गया; देश के करीब  6 लाख 40 हज़ार गावों की धार्मिक व जाति  संरचना इंद्रधनुषी रहती रही है. सारांश में, लोकतांत्रिक व्यवस्था में  कोई  एक धार्मिक समुदाय या  जाति यह दावा  नहीं कर सकती है कि उसका क़स्बा या गांव में सम्पूर्णरूप से ‘एकाधिकार’ है. समुदाय या जाति विशेष के लोग बहुसंख्यक हो सकते हैं, लेकिन फिर भी अल्पसंख्यक वर्ग की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता. यही बात देश के करीब 4000 हज़ार शहरों पर लागू होती हैं.यही बात  दिल्ली, कोलकता, मुंबई,बैंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, अहमदाबाद जैसे महानगरों के संबंध में कही जा सकती है. इनकी सामाजिक -सांस्कृतिक-आर्थिक -राजनैतिक संरचना रंगबिरंगी ही है. इस इंद्रधनुषी आत्मा के विखण्डन के प्रयास का अर्थ होगा देश के मूलभूत अस्तित्व को संकट में झौंकना।

इंग्लैंड के भारतीयमूल के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक  ने इसी 14 मार्च को ही अपने देशवासियों को देश में बढ़ रही   इस्लामी और अति-दक्षिणपंथी अतिवादी गतिविधियों के विरुद्ध चेताया है. सुनक का कहना है कि  ऐसी गतिविधियों से देश के बहु-नस्ली लोकतंत्र को खतरा पैदा हो रहा है. याद रहे, हमास- इजराइल जंग के कारण इंग्लैंड में स्थानीय यहूदियों और इजराइल के खिलाफ जन-भावना भड़क  रही हैं; यहूदियों के विरुद्ध 147  और मुस्लिम विरोधी घृणा 335  प्रतिशत बढ़ी है.  सुनक -सरकार के समुदाय मंत्री माइकल गोवे ने इतना तक कह दिया,” हमारा लोकतंत्र और समावेशी व सहिषुणता को अतिवादी गुटों से चुनौतियां मिल रही हैं, जिसकी वज़ह से हमारे नौजवान कट्टर बनते जा रहे हैं और अति ध्रुवीकरण की तरफ झुक रहे हैं.” इस स्थल मैं पाठकों को यह याद दिलाना जरूरी समझता हूं कि इस स्थिति के लिए प्रधामंत्री स्वयं भी कम जिम्मेदार  नहीं हैं। हमास इसराइल जंग शुरू होने के तुरंत बाद ही वे तेल अवीव गए और इसराइल के प्रधानमंत्री की पीठ थपथपा कर आए थे।उन्होंने प्रधानमंत्री नेतन न्याहू को कोई ठोस चेतावनी नहीं दी थी। अमेरिका के पि छलग्गू बने रहे। इंग्लैंड में इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। सुनक ने खुद भी अपने यहां ध्रुवीकरण का कार्ड खेला है। गत वर्ष अगस्त में कैंब्रिज में आयोजित एक हिंदू  समुदाय के समारोह में उन्होंने तीन चार बार ’जय श्रीराम ’ के नारे लगाए थे।इस अवसर पर गुजरात से पहुंचे प्रसिद्ध मुरारी बापू भी मौजूद थे। सुनक ने उत्साह के साथ यह भी बताया था कि उनके सरकारी निवास में रखी मेज़ पर हनुमान चालीसा और गणेश जी की मूर्ति रखी हुई हैं। धार्मिक समुदाय की दृष्टि से इंग्लैंड में ईसाई समुदाय के बाद मुस्लिम हैं। तीसरे स्थान पर हिंदू समुदाय है। क्या इस तरह के धार्मिक पहचानवाले उवाचों से ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बल नहीं मिलता है? अन्य समुदाय संगठित होने लगेंगे। I वर्ष के अंत में इंग्लैंड में आम चुनाव भी होगें।सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी की स्थिति कमजोर मानी जा रही है।विपक्षी लेबर पार्टी सत्ता में आ सकती है। संयोग से, मैं गत  अगस्त में लंदन में ही था। समाज में ध्रुवीकरण की प्रवृत्तियां उभरती हुई दिखाई दे रही थीं।

भारत के वर्तमान दौर में भी  ऐसी चेतावनी और स्थिति के प्रति उपेक्षाभाव नहीं अपनाया जा सकता. यदि  ऐसी प्रवृत्तियों को नज़रअंदाज़ किया जाता है तो देश का सामाजिक व लोकतान्त्रिक ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो सकता है. क्योंकि, विगत एक दशक से धार्मिक ध्रुवीकरण की प्रवृत्तियां तेजी से उभरी हैं; मुसलमानों के प्रति नफरत, लवजिहाद, गोरक्षक आतंक, हिज़ाब विरोधी घटनाएं; आर्थिक बहिष्कार की धमकियां; मुस्लिम सामाजिक एक्टिविस्टों के खिलाफ कारवाईयाँ, अल्पसंख्यकों के मकानों पर बुलडोज़र चलाना,इस्लामी फोबिया का माहौल बनाना आदि. आज  मोदी-सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है और निवर्तमान लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है. यहां तक कि भाजपा शासित प्रदेशों ( राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात,गोवा, असम, बिहार , हरियाणा आदि ) की सरकारों में भी  लगभग यही स्थिति दिखाई देती है। भाजपा का कहना है कि वह किसी विशेष समुदाय के तुष्टिकरण के पक्ष में नहीं है। लेकिन, क्या अल्पसंख्यकों के प्रति राजनैतिक उदासीनता की नीति अपना कर बहुसंख्यक समुदाय का तुष्टिकरण नहीं किया जा रहा है?वास्तव में,तुष्टिकरण समुदाय विशेष सापेक्ष नहीं होना चाहिए। इसका चरित्र समावेशी रहना चाहिए।लेकिन, आजादी के अमृत काल में  ठीक इसके विपरीत ही हो रहा है।क्या इसे स्वस्थ, समतावादी और समावेशी लोकतंत्र कहा जा सकता है ? क्या सत्तारूढ़ भाजपा के शासन में तुष्टिकरण के नाम पर देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के साथ इन्साफ हो  रहा है ? क्या ऐसी राजनीति से  देश में नफ़रत नहीं बढ़ेगी ? क्या इस  स्थिति से अतिवादों की फसल तैयार नहीं होगी? कालांतर में ये अतिवादी ताक़तें  ‘मिलिटेंसी’ में तब्दील हो  सकती  हैं! फिर विभिन्नरूपी संकटों से घिर सकता है हमारा उदार लोकतंत्र।हमारा लोकतंत्र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ , मोदी+अमित राज और चरम दक्षिण पथियों की उपलब्धि नहीं है. यह समर्पित उदारवादी देशभक्तों, राष्ट्रवादियों, समता-समरस – बहुलता वादियों  और संविधानवादियों की ऐतिहासिक उपलब्धि है. शहादत और कुर्बानियों के अथक कारवां के बाद 15 अगस्त, 1947 को यह आज़ादी मिली है. तब क्या 37 -38 प्रतिशत वोट से लैस दल को बलिदानों की श्रृंखला से समृद्ध लोकतंत्र को निर्वाचित निरंकुशता में तब्दील करने की छूट दी जानी चाहिए ? तब क्या हिंदुत्व के नाम पर  इस सवाल के प्रति उदासीन होना ‘राष्ट्रीय समझदारी’ होगी ? जब यह सवाल मस्तिष्क में कौंधता है तब पाकिस्तान के सम्बन्ध में  मौलाना अब्दुल क़लाम आज़ाद की   चेतावनियां याद आने लग जाती हैं. उन्होंने अप्रैल  1946 में दिए गए अपने एक  लम्बे इंटरव्यू में मुसलमानों को चेतावनी दी थी कि एक दिन  मज़हबी झगड़े  प्रस्तावित पाकिस्तान के टुकड़े करके रहेगा.भविष्य में  इसका पूर्वी हिस्सा( तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और वर्तमान बांग्लादेश )   मूल पाकिस्तान (वर्तमान  पश्चिमी  पाकिस्तान ) से अलग हो जायेगा. कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर रहते हुए आज़ाद साहब ने  यह भी चेतावनी दी कि पाकिस्तान के  सम्भावी शासक अयोग्य हैं, जिसकी वज़ह से फौज़ी हुक़ूमत का रास्ता साफ़ हो जायेगा. स्वतंत्र  भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद ने  उक्त इंटरव्यू लाहौर से प्रकाशित  चट्टान पत्रिका को दिया था और इंटरव्यू लेनेवाले थे  शोरिश कश्मीरी। दिलचस्प यह है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री और वर्तमान में केरल के राज्यपाल आरिफ  मोहम्मद खान  के कठिन परिश्रम से     इस इंटरव्यू  का पता चला. इसके बाद   उर्दू से अंग्रेजी में इसका तर्ज़ुमा किया गया. उन्होंने यह भी कहा था कि  नफरत पर आधारित देश का विभाजन भारत और पाकिस्तान के आपसी रिश्तों को कभी भी सामान्य नहीं होने देगा. दोनों कभी दोस्त नहीं बन सकेंगे. इसके साथ ही पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के लोगों का   समान मज़हब होने के बावजूद, दोनों हिस्से लम्बे समय तक एक साथ नहीं रह सकेंगे. इस इंटरव्यू के एक साल बाद 1947 में भी जामामस्जिद    पर मुसलमानों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए आज़ाद साहब ने  अपने विचारों को फिर से बुलंद आवाज़ में दोहराया और धर्म-मज़हब के आधार पर देश के  विभाजन तथा  पाकिस्तान  के निर्माण को   मुसलमानों के दूरगामी व्यापक  हितों के ख़िलाफ़ बताया था. उनका यह भाषण यूट्यूब पर सुना जा सकता है.

मैं वापस लेख के शुरूआती पैरे की ओर लौटता हूं. इस लेख में मौलाना आज़ाद और ऋषि सुनक के विचारों का उल्लेख अकारण नहीं किया गया है. मक़सद से किया है. दोनों के कथनों का निचौड़ है कि आधुनिक युग में धार्मिक और नस्ली अतिवाद मूलतः मानवता और प्रगतिशील सभ्यता विरोधी है. अतिवादी धार्मिकता और कट्टरवाद से नफ़रत का जन्म और विस्तार होता रहता, जोकि मानव विकास में बाधक बनते हैं. दोनों कारक मानव की कल्पनाशीलता को संकीर्ण और कुंद बनाते हैं. क्या हिन्दू राष्ट्र बन जाने से मूलभूत समस्याओं का निराकरण हो जायेगा; क्या जातिवाद का विनाश होगा और जाति -दंगे ख़त्म हो जायेंगे ?; क्या समतावादी ओर विषमतामुक्त हिन्दू समाज होगा?;  क्या धर्मप्रधान राष्ट्र से बेरोज़गारी दूर होगी और रोज़गार पैदा होंगे?;  क्या हिन्दू राष्ट्र बनजाने के बाद पाकिस्तान और चीन के साथ दो-चार हाथ करके सीमा विवाद का समाधान कर सकेंगे ?; क्या भारत को  हिन्दू राष्ट्र बनाने के बाद हम आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस में निष्णात हो जाएंगे और  चांद व मंगल ग्रह पर बस्तियां बना लेंगे ? ऐसे ही और भी अनेक सवाल हैं जो इस सदी के मस्तिष्क को आंदोलित करते हैं.एक छत्र  सत्ता प्राप्ति के लिए हिन्दू राष्ट्र और विश्व गुरु का नारा ब्रह्मास्त्र सिद्ध होगा, यह नितांत अतार्किक और असम्भव है.   वैचारिक और भौतिक क्षेत्रों में हुई  मानव की अभूतपूर्व उपलब्धियां तभी संभव हो सकी  हैं जब उसकी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को निर्बाध परिवेश मिला है. क्या इस बात को भुलाया जा सकता है कि किस प्रकार चर्च ने वैज्ञानिकों के अन्वेषण मार्ग में कितनी बाधाएं खड़ी की थीं और मौत की सजा भी दी थी. यह भी  सच  हैं कि चर्च ने ढाई सौ बरस बाद वैज्ञानिक गैलोलियो से माफ़ी भी मांगी थी. धार्मिक सत्ताएं मानव की बहु आयामी गतिशीलता में रुकावटें पैदा करती हैं. बंद समाजों में मानव ऊर्जा को वांछित गतिशीलता नहीं मिल पाती है.पर  यह भी एक यथार्थ है कि बंद समाज और निरंकुश व्यवस्था में प्रतिरोध के बीज भी निहित रहते हैं।  अवसर पाते ही  वे पौधे व वृक्ष में बदल जाते हैं.इसके अंतिम  परिणाम विभिन्न  आविष्कार और क्रांतियां हैं. सारांश में,   उदारवादी सामाजिक-सांस्कृतिक -राजनैतिक परिवेश में ही अधिकाधिक अनुसंधान और आविष्कार होते रहे हैं. इस दृष्टि से, पश्चिम के उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की बहु-आयामी उपलब्धियों से कुछ तो सीखा जा सकता है.  इस यथार्थ का गवाह है मानव विकास यात्रा का इतिहास. अतः किसी भी देश में धार्मिक -मज़हबी कट्टरता  प्रतिगामी शक्तियों को ही जन्म देती हैं. क्या हम पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान तथा अन्य मुस्लिम देशों की चिंताजनक दशाओं से सबक़ नहीं लेना चाहेंगे ? इस्लामी राष्ट्र बनने से पाकिस्तान तरक्की कर सका है? क्या अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत कायम होने से वहां की भुखमरी दूर हो गई है? आज भी वहां   स्त्रियों की हालत नारकीय बनी हुई है।ईरान में भी स्त्री वर्ग की दुर्दशा से सभी परिचित हैं।वहां भी सत्ता पर काबिज़  मज़हबी तानाशाही के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही हैं. युवा वर्ग कफ़न बांधे सड़कों पर उतर रहा है।  यह सिलसिला पिछले दशक से ही शुरू हो चुका  था. अफगानिस्तान में भी कट्टरपंथी तालिबानों का सत्ता दुर्ग लम्बे समय तक सुरक्षित रह सकेगा, इसकी सम्भावना कम है. लोकतंत्र के लिए वहां भी प्रतिरोध की आवाज़ें उठने लगी हैं.

मुख्तसर से, वर्तमान दौर की महती आवश्यकता  है कि हम समतावादी + उदारवादी + बहुलतावादी + संविधान सम्मत लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत करें और निरंकुश सत्ता परिवेश से निज़ात लें.

पढ़ेंगे लिखेंगे तो भाग खुल जायेंगे की गायिका सीमा भारती से वरिष्ठ पत्रकार अजय प्रकाश की बातचीत

March 08, 2024 | By Ajay Prakash
पढ़ेंगे लिखेंगे तो भाग खुल जायेंगे की गायिका सीमा भारती से वरिष्ठ पत्रकार अजय प्रकाश की बातचीत

झारखंड की रहने वाली सीमा भारती ने राम आयेंगे तो अंगना सजाऊंगी… के जवाब में पढ़ेंगे लिखेंगे तो भाग खुल जायेंगे… गाना गाया और यह गाना अब सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। यह गाना किसने गाया है इसको लेकर भ्रम बना हुआ था, अब इसकी असली गायिका को दलित टाइम्स ने खोज निकाला है। दलित जाति से ताल्लुक रखने वाली झारखंड की लोकगायिका सीमा भारती ने इस गाने को रचा है और गाया है। वरिष्ठ पत्रकार अजय प्रकाश से हुई बातचीत में सीमा भारती ने दलित समाज की शिक्षा-दीक्षा समेत तमाम मसलों पर चर्चा की….

सीमा जी जब आपने ‘पढ़ेंगे लिखेंगे तो भाग खुल जायेंगे…’ गाना लिखा तो उस समय आपके दिमाग में क्या चल रहा था? देश जानना चाहेगा कि आपको ये गाना लिखने की प्रेरणा कहां से मिली ?

जब मेरे दिमाग में ये गाना लिखने की बात आयी तो चारों तरफ स्वाति मिश्रा का गाना राम आयेंगे… बज रहा था। मैं एक साधारण लोकगायिका हूं और संगीत से शुरू से जुड़ी हुई हूं। संगीत से मैं बहुत प्यार करती हूं संगीत तो उसी में थोड़ा बहुत हारमोनियम भी प्ले करती हूं। हम सुनते थे गाना “राम आयेंगे…”, क्योंकि अच्छा लगता था। भजन है सुनने में तो अच्छा लग ही रहा था और हम ये गाना बजाते भी थे। फिर मैंने सोचा कि सबको जहां देखना तहां राम भजन ठीक है। धार्मिक है अच्छा है, आस्था है किसी की आस्था को हम ठेस नहीं पहुंचाते हैं। मैं ज्यादातर जागरुकता वाले गीत गाती हूं और लिखती भी हूं। सोशल मीडिया पर मेरे जागरुकता वाले गीत ही रहते हैं। ज्यादातर मेरे गीत महापुरुषों के लिए हैं। फिर मेरे दिमाग में आया कि मैं क्यों न राम आयेंगे गाना थोड़ा सा हटके बनाऊं शिक्षा के लिए, ताकि यह हर किसी के मन मस्तिष्क पर छा जाये। ऐसा ही हुआ भी, क्योंकि हर घर में हर बच्चे राम आयेंगे राम आयेंगे… सुन रहे हैं और गा भी रहे हैं और तो इसी बीच जेहन में बात आयी। मात्र 10 मिनट के अंदर शिक्षा शब्द को जैसे भी कहिए मैंने जोड़ दिया कि जब “हम पढ़ेंगे लिखेंगे तो किस्मत के द्वार खुल जाएंगे” क्योंकि ये चीज खुद अपने आपसे जो साक्षर हैं, वो समझ सकते हैं और आस्था अलग चीज है। वो अपनी जगह पर जो गाया है, वो अच्छी बात है। मैंने किसी को नहीं कहा कि खराब गया या मैंने अच्छा किया, वैसी कोई बात नहीं है। मेरा उद्देश्य था कि हम शिक्षा को आगे बढ़ाएं। बचपन से ही मैं शिक्षा से जुड़ी हूं। जो भी सभी लोग धीरे—धीरे इस गाने को जान रहे हैं, जरूर सुन रहे हैं।

सोशल मीडिया पर एक स्कूली बच्चे ने ये गाना गाया है, जेा वायरल हो रहा है। जब आपको पता लगा तो कैसा लगा? क्या आपपर ये तोहमत लगी कि आपने उसका गाना चुरा लिया है और आप दावा कर कर रहीं हैं, क्या ऐसे सवालों का भी सामना करना पड़ा?

बहुत सारे लोग कमेंट्स में ये बात कह रहे थे और अब भी कमेंट्स कर देते हैं। लगभग 20 जनवरी को मैंने ये गाना सोशल मीडिया पर अपलोड किया था मोबाइल से। मेरे पास इतनी व्यवस्था नहीं है तो ऐसे ही शब्द बनाए दिन में और शाम को गाकर शेयर भी कर दिया। सोचा देखते हैं कि कितने लोग इसको पसंद करते हैं। मैंने देखा 20 जनवरी की रात को मैंने अपने पेज पर गाना डाला और 23 तारीख तक मेरे गाने पर मिलियन पार व्यूवरशिप हो चुकी थी। उस समय मेरे 12,000 फ्लोवर्स थे, जो लगातार बढ़े इस गाने के बाद। भारत के कोने से लोग फोन करने लगे और कहने लगे कि दीदी आपने ये गीत बनाया है, बहुत अच्छा है। हमें ये सुनकर अच्छा लगा। जब कमेंट्स देखे तो कई लोग अभद्र टिप्पणियां कर रहे थे, गाना हटाने की धमकी दे रहे थे।

बताइए हमने किसी जाति, धर्म और आस्था का विरोध ही नहीं किया, केवल शिक्षा का प्रचार किया फिर भी लोगों ने बहुत सोशल लिंचिंग की। ट्रोलर्स के ट्रोल करने के बावजूद वीडियो लगातार शेयर होता रहा और जनवरी अंत तक कुछ रफ्तार कुछ कम हो गयी। फिर 21 फरवरी को मेरे पास एक रील आई, जिसमें एक बच्चा गा रहा था। देखा तो ये मेरा ही गाना है। फिर ये जब वायरल हुआ तो कई शिक्षकों ने मुझे फोन किया और कमेंट में लिखा कि मैडम आपका ये गीत हमें बहुत अच्छा लगा, हम लोग इस गाने को स्कूल में बजा रहे हैं।

शिक्षकों की ऐसी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा। यह बात हमने अपने घर और पास-पड़ोस में भी बतायी कि देखो मेरा तो गाना बजने लगा और रील्स पर बच्चे आने लगे हैं। एक दिन पार होने के बाद वीडियो इतना वायरल हो गया कि सोशल मीडिया पर लोगों को पता ही नहीं चल पा रहा था कि इसे किसने लिखा है और किसने गाया है। सीनियर्स ने हमें बताया कि आपने गीत गाया वायरल भी हुआ। यह सब अच्छा है, लेकिन कोई बच्चा इस गाने को फिर से उठाएगा दूसरा कोई नाम दे देगा, आपका नाम ही नहीं रहेगा। हमने अगले दिन कमेंट्स में लिखा कि ये मेरा सॉन्ग है। उस स्कूल की टीचर ने मेरा नंबर मांगा, मुझे बधाई देने लगे और कहा कि मैडम जी आपका गीत हमें बहुत अच्छा लगा और फिर बच्चे से भी गाना गंवाया। मैंने शिक्षक से कहा कि आप मेरा नाम उसमें डाल दीजिए और एडिट कर दीजिए। उसके बाद गाने में मेरा नाम यानी सीमा भारती लिखा गया। उसके बाद लोग जान पाये कि यह मेरा गाना है। अब सच जानने के बाद सोशल मीडिया पर भी लोग जान गये हैं और लगातार मेरे पास साक्षात्कार के लिए फोन आ रहे हैं।

अगर हम भोजपुरी और हिंदी के गानों को देखें तो तमाम धार्मिक गानों पर अश्लील भोजपुरी और हिंदी गाने बन गए, लेकिन आपने जो गाना गाया वो बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के मूल्यों का गाना गाया। गरीब देश को वैज्ञानिक चिंतन की तरफ आप ले गईं, इस देश के 90 करोड़ लोगों की समस्या को उजागर किया है। पूरे समाज में चर्चा है आपकी बातों की तो आपको ये प्रेरणा कहां से मिली थोड़ा वो भी बताइए। आप भी तो औरों की तरह फिल्मी गाने गा सकती थीं या कुछ और गा सकती थीं, लेकिन आपने सामाजिक जागरुकता का ही गाना गाया, इसकी प्रेरणा आपको कैसे मिली?

मेरे पिताजी शिक्षक थे। अब वो हमारे बीच नहीं हैं। वो अक्सर बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की किताबें पढ़ा करते थे और हमारे घर पर बाबा साहेब की तस्वीर भी लगी रहती थी। उस समय हम दूसरी या तीसरी कक्षा में होंगे तो हम अपने पिताजी से पूछते थे कि ये कौन हैं? उन्होंने हमें बाबा साहेब के बारे में बताया, उनसे परिचित कराया। हमें बताया कि यही हमारे देश के संविधान के रचियता हैं। मैं बाबा साहेब अंबेडकर की जीवनी भी पढ़ती हूं।

मैं बचपन से ही बाबा साहेब को पढ़कर रो दिया करती थी कि उन्होंने कितना कष्ट सहन किया था। मुझे पढ़ने में बचपन से रुचि थी। मेरे जीवन में भी बेहद कठिन परिस्थितियां आयी हैं, किसी तरह से मैंने मैट्रिक पास किया। फिर BA करने के बाद शादी भी हो गई। शादी के बाद में भी काफी परेशानियां रहीं, जो चाहा वो नहीं कर पाए और फिर मेरे बच्चे पढ़ने-लिखने लगे। बच्चे बड़े हुए तो संगीत से मैंने प्रभाकर किया।

गाने बहुत हैं। श्रृंगार रस में भी हैं, देशभक्ति भी हैं, हर तरह के हैं, लेकिन मेरे जेहन में बस यही आता था कि हम महापुरुषों को किस तरह याद करें, उनकी बातों को अपने जीवन में किस तरह उतारें। मैंने इंटरनेट पर सारे महापुरुषों को सर्च करना-पढ़ना शुरू किया। इसी के बाद सोचा कि सोशल मीडिया के माध्यम से महापुरुषों की जीवनी और शिक्षा के बारे में अपने गानों के सहारे जागरुकता फैलाएंगे। हमारे बाबा साहेब अंबेडकर हमें इतना देकर गए तो हम क्यों नहीं पढ़ेंगे लिखेंगे, आगे बढ़ेंगे। अगर 10 बच्चों को मैं जागरुक कर पाती हूं और उसमें से एक बच्चा भी मेरी बात को समझ जाए—अपने जीवन में उतार ले तो यह बहुत बड़ी बात होगी। राम आयेंगे गाने को समाज का बहुतायत पसंद कर रहा था, इसीलिए इसी धुन पर गाना बनाया। मैंने सोचा जब इस धुन पर बने शिक्षाप्रद गाने को बच्चे गायेंगे तो आकर्षित हुए बिना नहीं रह पायेंगे। इस गाने में क्या कहा गया है, इस बात को हमारा समाज समझे, मेरा बस यही उद्देश्य था। मैं महापुरुषों की जीवनी को पढ़कर जेहन में उतारती हूं और गीत के माध्यम से लोगों तक भेजना चाहती हूं। लोग ज़्यादा समझे, क्योंकि बात की तुलना में गीत से लोग जल्दी समझते हैं।

आपकी इस सकारात्मक सोच में आपका परिवार कितना साथ देता है? आमतौर पर ऐसा कहा जाता है कि हर सफल पुरुष के पीछे औरत का हाथ होता है, मगर इसके उलट आपके आगे बढ़ने में परिवार खासकर पति आपका सहयोग करते हैं, क्या यहां एक सफल महिला के पीछे एक पुरुष का हाथ है?

मेरे पति हमेशा मेरे साथ हैं। वह मेरे बारे में जानते हैं। संगीत की तरफ लगाव तो शुरू से था, मगर इतना ज्यादा लोकगीतों या फिर इस तरह गाना गाने का माध्यम मेरे पति ही हैं। हमारे यहां पर संगीत का विद्यालय खुला तो मेरे पति ने ही मुझसे कहा कि तुम्हारा एडमिशन करा देते हैं। संगीत के ज़रिये लोगों के बीच मुझे एक पहचान मिली। बचपन से ही मुझे गाने का शौक रहा है, लेकिन वास्तविकता ये है कि मेरे पति का साथ रहता है और इन्हीं के सहयोग से ही मैं इतना कुछ कर पा रही हूं।

अयोध्या में राम के नाम पर राजनीतिक अनुष्ठान!

March 03, 2024 | By Jai Shankar Gupta
अयोध्या में राम के नाम पर राजनीतिक अनुष्ठान!

इस समय देश में दो तरह के राजनीतिक आयोजन हो रहे हैं। दोनों का ही राजनीतिक मकसद एक है, इस साल मार्च-अप्रैल में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अपने पक्ष में माहौल तैयार करना। पहले राजनीतिक आयोजन के रूप में 14 जनवरी को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष, सांसद राहुल गांधी ने मणिपुर से मुंबई तक की 6700 किमी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा शुरू की है। दूसरा राजनीतिक आयोजन या कहें अभियान उत्तर प्रदेश के अयोध्या में हो रहा है। यह राजनीतिक अभियान धार्मिक अनुष्ठान के रूप में किया जा रहा जिसमें मुख्य भूमिका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनका पार्टी भारतीय जनता पार्टी और उन्हें संचालित करने वाले आरएसएस और उसके विश्व हिंदू परिषद जैसे आमुख संगठनों की है। सामुदायिक कहें या फिर जातीय हिंसा और तनाव की आग में झुलसे मणिपुर में राहुल गांधी पहले भी जा चुके हैं। हालांकि मणिपुर के लोगों लोगों की सुध लेने और वहां फिर से शांति और भाई चारा कायम करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तक वहां नहीं गए।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी को अयोध्या जाएंगे जहां उनकी पार्टी भारतीय जनता पार्टी, इसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के आधिपत्य वाले ‘श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट’ की देख रेख में दूसरा राजनीतिक आयोजन हो रहा है। अयोध्या में 22 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी निर्माणाधीन राम जन्मभूमि मंदिर में मुख्य यजमान के रूप में प्राण प्रतिष्ठा करेंगे। लेकिन इस कार्यक्रम में राहुल गांधी की मां, कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी, कांग्रेस अध्यक्ष एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे, लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी तथा अन्य अधिकतर विपक्षी दलों के नेता भी नहीं जाएंगे। राहुल गाधी को तो निमंत्रण ही नहीं मिला है। हालांकि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भी साफ किया है कि वे लोग राम मंदिर में फिर कभी जाएंगे लेकिन भाजपा के राजनीतिक आयोजन में नहीं जाएंगे। निमंत्रण तो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भी नहीं मिला है। क्या इसलिए कि वे आदिवासी महिला और अनुसूचित जाति से हैं। और तो और संघ परिवार के विहिप और बजरंग दल के राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेनेवाले विनय कटियार और उमा भारती जैसे कुछ प्रमुख चेहरे भी प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में कहीं नजर नहीं आ रहे।

यही नहीं, सनातन हिंदू धर्म के चारों सर्वमान्य शंकराचार्य भी इस आयोजन में नहीं जाएंगे। ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद और गोवर्धन पीठ, पुरी के जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने साफ कहा है कि “अयोध्या में 22 जनवरी को धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि राजनीतिक आयोजन होने जा रहा है।” उनका तर्क है कि आधे अधूरे, निर्माणाधीन मंदिर जिसमें शिखर और उसमें कलश बनने से पहले वहां मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा शास्त्रोचित नहीं है। उनका कहना है कि “प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्रीराम के शीर्ष पर चढ़कर मजदूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा।” वह प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा प्राण प्रतिष्ठा पर भी सवाल उठाते हुए कह रहे हैं कि “प्रधानमंत्री मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा करेंगे तो हम क्या वहां ताली बजाएंगे।” दूसरी तरफ मंदिर निर्माण से जुड़े तमाम संत-महंथ और मंदिर निर्माण ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय भी शंकराचार्यों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उनके बारे में विवादित और  अभद्र टिप्प्पणियां भी कर रहे हैं। चंपत राय ने तो यह भी कहा है कि जहां प्राण प्रतिष्ठा हो रही है, वह मंदिर तो रामानंदाचार्य संप्रदाय का है जहां शंकराचार्य की कोई भूमिका नहीं। इस पर स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद तंज करते हुए कह रहे हैं कि अगर ऐसा है तो फिर चंपत राय वहां से हट जाएं और रामानंदाचार्य संप्रदाय के लोगों को ही धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने दें। इत तरह के काफी तर्क कुतर्क हो रहे हैं।

अयोध्या में राम मंदिर में मूर्ति स्थापना और प्राण प्रतिष्ठा के स्थान और समय को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। कहा जा रहा है कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी, और 6 दिसंबर 1992 को जिसे ध्वस्त कर रामलला विराजमान किए गए थे और जिसको लेकर हजारों लोग देश भर में हुए सांप्रदायिक दंगों के शिकार हुए थे, नया मंदिर वहां से कुछ दूर बन रहा है। अगर यही करना था तो फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के प्रस्ताव में क्या बुराई थी।