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जलवायु परिवर्तन गर्भधारण को करता है बुरी तरह प्रभावित, बढ़ता तापमान पहुंचा रहा DNA को नुकसान-बढ़ रही जन्मजात दिव्यांगता

April 01, 2024 | By Deepmala Pandey
जलवायु परिवर्तन गर्भधारण को करता है बुरी तरह प्रभावित, बढ़ता तापमान पहुंचा रहा DNA को नुकसान-बढ़ रही जन्मजात दिव्यांगता

बढ़ता वैश्विक तापमान विभिन्न तंत्रों के माध्यम से डीएनए को प्रभावित कर सकता है और संभावित रूप से अजन्मे और नवजात शिशुओं में विकलांगता में योगदान कर सकता है…. दीपमाला पाण्डेय की टिप्पणी

साल 2023 में पृथ्वी की औसत भूमि और महासागर की सतह का तापमान 20वीं सदी से 2.12 डिग्री फ़ारेनहाइट (1.18 डिग्री सेल्सियस) अधिक था। यह आंकड़ा साल 1850 से अब तक रिकॉर्ड किया गया उच्चतम वैश्विक तापमान है। इसने, इससे पहले अब तक के सबसे गर्म वर्ष, 2016 को 0.27 डिग्री फ़ारेनहाइट (0.15 डिग्री सेल्सियस) के अंतर से पीछे छोड़ दिया है। इस साल भी गर्मी बढ्ने की ही संभावना है।

डर लगता है ना ये पढ़कर? एसी, कूलर, पंखा, और पानी भी याद आ गया ना? लेकिन क्या गर्मी सिर्फ पसीना और थकान ही है? क्या आपने कभी सोचा है कि बढ़ता तापमान हमारे शरीर की संरचना तक को प्रभावित कर सकता है?

जी हाँ। बढ़ता तापमान सिर्फ गर्मी का बढ़ता एहसास ले कर नहीं आता। बढ़ता तापमान कुछ और भी बताता है। ऐसा कुछ बताता है जिसे सुनने और समझने के लिए हमें अपनी सोच को विस्तार देना होगा।
दूसरे शब्दों में कहें तो बढ़ते तापमान ने जहां एक ने न सिर्फ जैव विविधता को खतरे में डाल दिया है, वहीं इसने इंसानों के जीवन पर भी गहरा असर डाला है। इतना असर की हमारी सोच से भी परे इसके आयाम हैं।

आपको जान कर हैरानी होगी कि बढ़ता तापमान हमारे डीएनए को भी नुकसान पहुंचा रहा है! और यह नुकसान जन्मजात दोष और दिव्यांगता का खतरा बन रहा है।

बढ़ती गर्मी और दिव्यांगता

साल 2018 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि गर्मी के संपर्क में आने से गर्भपात, समय से पहले जन्म और कम जन्म वजन का खतरा बढ़ जाता है। वहीं साल 2020 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि गर्मी के संपर्क में आने से बच्चे में जन्मजात दोष, विकासात्मक देरी और सीखने में कठिनाई का खतरा बढ़ जाता है।

साल 2021 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि दिव्यांग लोग जलवायु परिवर्तन से होने वाले मानसिक स्वास्थ्य प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। इतना ही नहीं, साल 2019 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दिव्यांग लोग जलवायु परिवर्तन से होने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, जैसे कि आवास, भोजन, और स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में कमी।

हाल ही में, साल 2022 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन से दिव्यांग लोगों की सामाजिक समावेश और भागीदारी में बाधा आ सकती है।

जलवायु और जीन

जलवायु परिवर्तन का असर गर्भवती महिलाओं और उनके गर्भस्थ बच्चों के जेनेटिक स्वास्थ्य पर पड़ सकता है। गर्भवती महिलाओं को गर्मी से अधिक संघर्ष करना पड़ सकता है, क्योंकि उनका शरीर तापमान को अच्छी तरह से नियंत्रित नहीं कर पाता है। इससे गर्भपात, बच्चे का ठीक से विकास न होना, बहुत छोटा पैदा होना, बहुत जल्दी बच्चे का जन्म होना या जन्म के समय समस्याएं होना जैसी समस्याएं हो सकती हैं।

जब गर्भवती महिलाएं बहुत अधिक गर्मी के संपर्क में आती हैं, तो यह उनके और उनके बच्चों दोनों के लिए जन्मदोष और अन्य बुरे परिणाम पैदा कर सकता है। उदाहरण के लिए, इससे शिशु का विकास बहुत धीमी गति से हो सकता है, जन्म के समय उसे सांस लेने में परेशानी हो सकती है, उच्च रक्तचाप हो सकता है, या शिशु का जन्म बहुत जल्दी हो सकता है। गर्मी शिशु के मस्तिष्क के विकास को भी प्रभावित कर सकती है, जिससे संभवतः ऑटिज़्म जैसी स्थितियाँ हो सकती हैं।

जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़ी आनुवंशिक विविधता इस बात तक को प्रभावित कर सकती है कि किसी आबादी में कितने बच्चे पैदा होते हैं। इसलिए यह समझना वास्तव में महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन, आनुवंशिकी और गर्भावस्था कैसे जुड़े हुए हैं। हमें इन परिवर्तनों से निपटने के तरीके खोजने होंगे। हमें जलवायु परिवर्तन को बदतर बनाने वाली चीजों को कम करने पर काम करना चाहिए, डॉक्टरों और लोगों को इसके बारे में अधिक जानने में मदद करनी चाहिए, सुनिश्चित करना चाहिए कि हर किसी को अच्छी जानकारी हो, खासकर उन जगहों पर जहां संसाधन सीमित हैं, और यह समझने के लिए और अधिक शोध करना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन गर्भधारण को कैसे प्रभावित करता है।

बात विज्ञान की

वैज्ञानिक मानते हैं कि बढ़ते वैश्विक तापमान और हीटवेव जीवों में बांझपन और मनुष्यों सहित प्रजातियों के विकलांगता का खतरा बढ़ाने में योगदान दे सकते हैं। इसके अतिरिक्त, ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाली अत्यधिक गर्मी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ख़राब कर सकती है, मृत्यु दर में वृद्धि कर सकती है और हमारे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डाल सकती है।

इसके अलावा, आनुवांशिक अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण गर्मी कि बढ़ती तीव्रता सेल डेथ एपोप्टोसिस से संबंधित जीन में संभावित परिवर्तन हो सकते हैं। ये परिवर्तन न केवल वर्तमान पीढ़ियों को प्रभावित कर सकते हैं बल्कि भविष्य की संतानों पर भी प्रभाव डाल सकते हैं।
सरल शब्दों में कहें तो उपलब्ध वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर, इसमें कोई दो राय नहीं कि बढ़ता वैश्विक तापमान विभिन्न तंत्रों के माध्यम से डीएनए को प्रभावित कर सकता है और संभावित रूप से अजन्मे और नवजात शिशुओं में विकलांगता में योगदान कर सकता है।

(लेखिका बरेली के एक सरकारी विद्यालय में प्रधानाचार्या हैं और दिव्यांग बच्चों को शिक्षा और समाज की मुख्यधारा में लाने के अपने प्रयासों के चलते माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मन की बात कार्यक्रम में भी शामिल हो चुकी हैं।)

(Dalit Times)

भारत की पहली महिला शिक्षिका और नारी मुक्ति आंदोलन की नायिका माता सावित्रीबाई फुले, जीवन के अंतिम पल तक करती रहीं इंसानियत के लिए संघर्ष

March 10, 2024 | By Prema Negi
भारत की पहली महिला शिक्षिका और नारी मुक्ति आंदोलन की नायिका माता सावित्रीबाई फुले, जीवन के अंतिम पल तक करती रहीं इंसानियत के लिए संघर्ष

वर्ष 1897 में पूणे शहर में प्लेग की महामारी फैल गयी। जब अधिकांश लोग शहर छोड़कर भाग गये सावित्रीबाई और उनके पुत्र वहीं रहकर बीमार लोगों की सेवा करते रहे, प्लेग से संक्रमित एक व्यक्ति को कोई मदद न मिलने पर स्वयं सावित्री बाई अकेले ही उसे अपने कंधों पर उठाकर यशवंत के अस्पताल ले गयीं। उसी दौरान वे स्वयं भी संक्रमण की चपेट में आ गयीं और इसी कारण उनकी मृत्यु हो गयी। सावित्रीबाई अपने जीवन के अंतिम दिन 10 मार्च 1897 तक इंसानियत के लिए संघर्ष करती रहीं…..

देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले को उनके परिनिर्वाण दिवस पर याद कर रही हैं प्रेमा नेगी

Savitribai Phule Jayanti 2024:

आज 10 मार्च को हमारे देश की पहली महिला शिक्षिका माता सावित्रीबाई फुले जी का परिनिर्वाण दिवस है। सावित्रीबाई फुले शिक्षक के साथ ही भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थीं। इन्हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़े।

आज मौजूदा दौर में जब शिक्षा को बाजार के हवाले करने की ओर सरकार के कदम तेजी से बढ़ते जा रहे हैं, ऐसे में यह कहना कहीं से भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि संसाधनों की कमी व पिछड़ी मानसिकता के चलते बड़ी संख्या में महिलाएं आज भी शिक्षा से वंचित हो रही हैं, खासकर कोरोना के बाद से स्थितियां और ज्यादा बदतर हुयी हैं। लड़कियों को शिक्षित करने का सपना सबसे पहले सावित्रीबाई फुले ने देखा था, जिनके संघर्षों को आगे बढ़ाने में चुनौतियां और गहराने लगेंगी।

महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को सावित्रीबाई फुले का जन्म हुआ था। उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए हम सबका फर्ज बनता है कि उन्होेंने जिन संघर्षों की शुरूवात की उसे आगे बढ़ाने का संकल्प लें। ऐसे में नारी शिक्षा को लेकर उनके किए गए प्रयास को आगे बढ़ाने व आनेवाली चुनौतियों पर चर्चा करना जरूरी बन जाता है, जहां महिलाओं को सदियों से पितृसत्ता के किए गए जुल्मों से आज भी निजात नहीं मिली है। उन्हें बाजारीकरण के दौर में शिक्षा से कैसे लाभान्वित किया जा सकेगा। जब हम आधुनिक समाज के निर्माण की बात करेंगे तो प्रारंभिक शिक्षा से बात आगे बढ़कर उच्चशिक्षा की होगी, जिससे महिलाओं को अनिवार्य से जोड़े बीना देश आधूनिकता की बात नहीं कर सकता। ऐसे सवालों को हल करने के बजाए माहौल इसके विपरीत तैयार किए जा रहे हैं

सामाजिक-आर्थिक पिछड़े परिवारों की लड़कियों ने अभी-अभी उच्च शिक्षण संस्थानों में कदम रखने शुरू ही किए थे कि कोरोना के बाद से ऑनलाइन शिक्षा और अब इस नई शिक्षा नीति के जरिये इन सभी वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों को शिक्षा व्यवस्था से बाहर करने देने की क्रूर साजिश को अंजाम देने की पूरी तैयारी कर ली गई है। ऑनलाइन शिक्षा भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश में कोरी और खोखली परिकल्पना से अधिक कुछ भी नहीं है।

एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में मात्र 12.5 फीसद विद्यार्थी ऐसे हैं जिनके घरों में इंटरनेट सुविधा उपलब्ध है। अगर इसमें भी ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों को विभाजित कर देखा जाए तो तस्वीर और भी भयानक हो जाती है। जहां एक ओर शहरों के लिए यह आंकड़ा 27 फीसद से अधिक नहीं है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 5 फीसद छात्र ऐसे हैं जिनके घरों में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। इतने गहरे “डिजिटल डिवाइड” को ध्यान में रखे बिना ऑनलाइन पद्धति को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालयों पर दबाव बनाना कहां तक सही है? इसी बहस में यह भी जान लेना बेहद जरूरी है की जो बचे हुए 87.5 फीसद छात्र हैं, जिनके पास किसी प्रकार की इंटरनेट सुविधा नहीं है उनमें से अधिकांश सामाजिक-आर्थिक पिछड़े तबकों से आते हैं। जिनमें शामिल महिलाओं की शिक्षा की बात करना तो बड़ी बेईमानी हो जाएगी।

महिला साक्षरता भी अभी तक पुरुषों के बराबर पहुंचने में संघर्ष कर रही है, ऐसे में जब ऑनलाइन शिक्षा की बात आती है तो हमारा समाज किसी भी तरह एक लड़की को सामान्य परिस्थितियों में भी इतने संसाधन उपलब्ध नहीं करवाता कि वह अपनी शिक्षा पूरी कर सके। इंटरनेट और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण उनके हाथों में सौंपने की बात तो छोड़ ही दीजिए। आज भी देश की आधी से भी कम महिलाओं के पास मोबाइल फोन और इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। हमारा समाज आज भी इस सिद्धांत पर चलता है कि महिला को दुनिया भर से जुड़े होने की छूट देना उसके चारित्रिक पतन को न्यौता देना है। ऐसे में पढ़ने के लिए शायद ही कोई घर ऐसा हो जहां लड़कियों को मोबाइल फोन, लैपटॉप और इंटरनेट की सुविधा मुहैया करवाई जाएगी। इसकी बजाय सामान्य भारतीय परिवार अपने घर की लड़कियों की पढ़ाई छुड़वाना ज्यादा बेहतर समझेंगे।

महिलाओं पर घर के काम का बोझ एक पुरुष की तुलना में अधिक होता है। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के अंतर्गत साल 2019 में की गई एक स्टडी में पता चलता है कि भारत में जहां एक तरफ 15 फीसद सवर्ण किसी न किसी सोशल नेटवर्किंग साईट का इस्तेमाल करते हैं, वहीं दलितों और आदिवासियों के लिए यह आंकड़ा इसका आधा ही है (8 फीसद और 7 फीसद क्रमशः) और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए यह आंकड़ा 9 फीसद है। इनमें वंचित महिलाओं की संख्या सर्वाधिक है। इस सर्वे से यह साफ पता चलता है कि इंटरनेट कनेक्टिविटी, उपलब्धता और एक्सेसिबिलिटी के आंकड़े कितने भेदभावपूर्ण और निराशाजनक हैं।

इंडिया इंटरनेट रिपोर्ट 2019 के आंकड़े बताते हैं कि भारत में 258 मिलियन इंटरनेट उपभोक्ता पुरुष हैं और महिला उपभोक्ताओं की संख्या इससे आधी है। इन सभी तथ्यों को अगर सामने रखा जाए तो साफ तौर पर देखा जा सकता है कि ऑनलाइन शिक्षा किन सामाजिक तबकों को शिक्षा के अधिकार से वंचित किए जाने की साजशि करती है। ऑनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने वाली नीति निर्माताओं के पास वातानुकूलित सरकारी आवास हैं तो दूसरी ओर देश का मेहनतकश, निम्न मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग एक-दो कमरों के घरों में सामान्य से कमतर परिस्थितियों में अपना गुजारा कर रहे हैं। ऐसे में उनसे संसाधनों की उपलब्धता, कंप्यूटर और डिजिटल साक्षरता, ऑनलाइन परीक्षा और कक्षाओं में उपस्थिति की उम्मीद करना किसी क्रूरता से कम नहीं है। उसमें भी महिलाओं को लेकर उम्मीद करना तो नामुमकिन सा है।

संघर्षपूर्ण रहा सावित्रीबाई फुले का जीवन

आजादी के पहले तक भारत में महिलाओं की गिनती दोयम दर्जे में होती थी। आज की तरह उन्हें शिक्षा का अधिकार नहीं था। वहीं अगर बात 18वीं सदी की करें तो उस समय महिलाओं का स्कूल जाना भी पाप समझा जाता था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। सावित्री बाई फुले का जन्म दलित परिवार में हुआ था। उस दौर में दलितों को शिक्षा नहीं दी जाती थी। सावित्रीबाई फुले ने इन सब कुरीतियों से लड़कर अपनी पढ़ाई जारी रखी। उनके समाज में छुआछूत का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने इन सबसे हार न मानकर अपनी शिक्षा जारी रखी।

सावित्रीबाई फुले जब वह पढ़ने स्कूल जाती थीं तो लोग उन्हें पत्थर, कूड़ा और कीचड़ फेंकते थे। उन्होंने हिम्मत नहीं और और हर चुनौती का सामना किया। पढ़ने के बाद उन्होंने दूसरी लड़कियों और दलितों के लिए एजुकेशन पर काम करना किया। सावित्रीबाई ने साल 1848 से लेकर 1852 के बीच लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले थे। मात्र 9 साल की उम्र में 13 वर्षीय ज्योतिराव फुले से सावित्रीबाई फुले की शादी हो गई थी। उस समय वह अनपढ़ थीं। पढ़ाई में लगन देखकर उनके पति प्रभावित हुए और उनको आगे पढ़ाने का मन बनाया। सावित्रीबाई ने न सिर्फ शिक्षा बल्कि देश में मौजूद कई कुरीतियों के खिलाफ भी आवाजा उठाई। उन्होंने छुआछूत, बाल-विवाह, सती प्रथा और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियों का विरोध किया और इनके खिलाफ लड़ती रहीं।

एक जनवरी 1848 में पुणे की भिडेवाड़ी में सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों के लिए भारत में पहला स्कूल खोला। इसी स्कूल से सावित्री बाई ने अध्यापन का काम शुरू कर भारत की पहली महिला अध्यापिका होने का गौरव हासिल किया। स्त्री के साथ ही दलितों के लिए भी शिक्षा जरूरी है इसी को ध्यान में रखकर 15 मई 1848 को उन्होंने पुणे की एक दलित बस्ती में स्कूल खोला, जहां दलित लड़के लड़कियां पढने लगे। इस स्कूल में पढाने के लिए जब कोई अध्यापक नहीं मिला तब सावित्री बाई ने वहां भी पढाना शुरू किया। पुणे की भिडेवाड़ी में पहला स्कूल खोलने के बाद मात्र 4 साल के भीतर ही 15 मार्च 1852 तक उन्होंने पूणे शहर और उसके आसपास 18 स्कूल खोले, जहां सभी विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी।

इन सभी स्कूलों में विद्यार्थियों के समग्र विकास को ध्यान में रखकर जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया उसमें व्याकरण, गणित, भूगोल, एशिया यूरोप व भारत के नक्शों की जानकारी, मराठों का इतिहास नीतिबोध और बालबोध जैसी पुस्तकें शामिल थीं, जिसकी प्रशंसा उस वक्त ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भी की गयी।

पुणे विश्वविद्यालय के मेजर कैन्डी ने इस विषय पर अपने वृतांत में लिखा इन स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों विशेषकर लड़कियों की लगन और कुशाग्र बुद्धि देखकर मुझे बहुत संतोष हुआ। इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है। शिक्षा के क्षेत्र में सावित्रीबाई के अभूतपूर्व योगदान के लिए 1892 में राज्य शिक्षा विभाग द्वारा ज्योतिबा के साथ ही उन्हें भी सम्मानित किया गया।

सावित्रीबाई भारत की पहली स्त्री शिक्षिका ही नहीं, बल्कि उन्हें पहले नारी मुक्ति आंदोलन के नेतृत्व का भी गौरव हासिल है। 1892 में उन्होंने महिला सेवा मंडल के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के आर्थिक विकास के लिए देश का पहला महिला संगठन बनाया। इस संगठन में हर 15 दिनों में सावित्रीबाई स्वयं सभी गरीब दलित और विधवा स्त्रियों से चर्चा करतीं, उनकी समस्या सुनती और उसे दूर करने का उपाय भी सुझाती। छोटे-छोटे ऐसे कई उद्योग जिसका प्रबंधन उन अशिक्षित महिलाओं द्वारा हो सके उसकी जानकारी उन्हें देतीं।

सावित्री बाई यह अच्छी तरह से जानती थीं कि सामाज से निष्कासित इन स्त्रियों का जीवन सुरक्षित नहीं है। उनका सम्मान से जीवित रहना बड़ी चुनौती है इसके लिए उनका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना ही एकमात्र उपाय है, जिसके लिए उन्होंने कई धार्मिक मान्यताओं को तोड़ा और स्त्रियों को अपने बुनियादी अधिकारों के लिए जागरूक किया। 1874 का वर्ष ज्योतिबा के लिए महत्वपूर्ण था, जब उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना कर एक नए वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को साकार करने का निर्णय लिया।

1890 में ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद 1893 सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्रीबाई को सौंपी गयी। सावित्रीबाई ने 4 सालों तक सत्यशोधक समाज का प्रबंधन कुशलता से किया। 1896 में महाराष्ट्र में पड़े सूखे के दौरान सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर वे रात-दिन लोगों की मदद करती रहीं। अगले ही वर्ष 1897 में पूणे शहर में प्लेग की महामारी फैल गयी। जब अधिकांश लोग शहर छोड़कर भाग गये सावित्रीबाई और उनके पुत्र वहीं रहकर बीमार लोगों की सेवा करते रहे। प्लेग से संक्रमित एक व्यक्ति को कोई मदद न मिलने पर स्वयं सावित्री बाई अकेले ही उसे अपने कंधों पर उठाकर यशवंत के अस्पताल ले गयीं। उसी दौरान वे स्वयं भी संक्रमण की चपेट में आ गयीं और इसी कारण 10 मार्च, 1897 को उनकी मृत्यु हो गयी। सावित्रीबाई अपने जीवन के अंतिम दिन 10 मार्च 1897 तक इंसानियत के लिए संघर्ष करती रहीं।

(Dalit Times)