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माता सावित्रीबाई फुले के त्याग, समर्पण और निष्ठा को नमन

January 14, 2025 | By Savita Anand
माता सावित्रीबाई फुले के त्याग, समर्पण और निष्ठा को नमन

माता सावित्रीबाई फुले, भारत की पहली महिला शिक्षिका, ने 19वीं सदी में महिलाओं और दलितों के लिए शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 18 स्कूल खोले, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। अपने जीवन में उन्होंने समाज के वंचित तबके को सशक्त बनाने और शिक्षा का महत्व स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। उनका त्याग, साहस, और योगदान आज भी प्रेरणा का स्रोत है.

एक सभ्य समाज के निर्माण में शिक्षा की अग्रणी भूमिका होती है, और इस भूमिका में नारी का योगदान अनमोल है। वह परिवार की छोटी-छोटी इकाइयां मिलकर समाज का गठन करती हैं, और परिवार का केंद्र बिंदु भी नारी होती है। यदि एक नारी शिक्षित होती है, तो एक परिवार शिक्षित होता है, और जब एक परिवार शिक्षित होता है, तब पूरा राष्ट्र शिक्षित होता है।

जिस शिक्षा के महत्व को आज हम स्वीकारते हैं, उसे 19वीं सदी में माता सावित्रीबाई फुले ने रूढ़िवादी परंपराओं को तोड़ते हुए न केवल पहचाना, बल्कि महिलाओं के लिए शिक्षा के द्वार खोलकर एक नई क्रांति की शुरुआत की। उनके साहस और योगदान ने आज के सशक्त भारत की नींव रखी।

लेकिन क्या हम इस सशक्त भारत में माता सावित्री बाई फुले के योगदान को सही सम्मान दे पाए? आज अगर हम समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर कई अहम निर्णयों में अपनी राय और सुझाव रख पा रहे हैं तो वह सिर्फ़ शिक्षा के कारण संभव हुआ। सोचिए, कितना कठिन रहा होगा यह सब उस दौर में जब रूढ़िवादी परंपराओं ने देश को अपने मकड़जाल में जकड़ रखा था। जब घर से निकलने उन पर गोबर फेंका जाता था, तब भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उनके त्याग, समर्पण और निष्ठा के आगे हम नतमस्तक है।

आइए जानते हैं कौन थी माता सावित्री बाई फुले :

3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित नायगांव नामक छोटे से गांव में जन्मी सावित्रीबाई फुले ने अपने पति दलित चिंतक व समाज सुधारक ज्योति राव फुले से पढ़कर सामाजिक चेतना फैलाई। देश की प्रथम महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले एक मिसाल, प्रमाण और प्रेरणा हैं कि अगर दृढ़ संकल्प और इच्छाशक्ति हो तो समाज में नई चेतना का विस्तार किया का सकता है।

19वीं सदी में जब स्त्रियों के अधिकारों, अशिक्षा, छुआछूत, सतीप्रथा, बाल या विधवा विवाह जैसी कुरीतियों पर महिलाएं इसे नियति मानकर चुपचाप झेला करती थीं, उस समय इस वीरांगना ने अपनी आवाज़ उठाई और नामुमकिन को मुमकिन करके दिखाया।

मात्र 9 साल की उम्र में सावित्री बाई फुले का विवाह हुआ और जब उनका विवाह हुआ तब वह अनपढ़ थीं। ज्योतिबा फुले भी तीसरी कक्षा तक ही पढ़े थे। जिस दौर में सावित्री बाई फुले पढ़ने का सपना देख रही थीं, उस दौर में अस्पृश्यता, छुआछूत, भेदभाव जैसी कुरीतियां चरम पर थीं। उसी दौरान की एक घटना के अनुसार एक दिन सावित्री अंग्रेजी की किसी किताब के पन्ने पलट रही थीं, तभी उनके पिताजी ने देख लिया। वह दौड़कर आए और उनके हाथ से किताब छीनकर घर से बाहर फेंक दी। कारण सिर्फ़ इतना था कि शिक्षा का हक़ केवल उच्च जाति के पुरुषों को ही था। दलित और महिलाओं के लिए शिक्षा ग्रहण करना पाप था। बस उसी दिन से वह किताब वापस लाकर प्रण कर बैठीं कि कुछ भी हो जाए वह एक न एक दिन पढ़ना जरूर सीखेंगी। इसी लगन से उन्होंने एक दिन ख़ुद पढ़कर अपने पति ज्योतिबा राव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले। उन्होंने 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश के सबसे पहले बालिका स्कूल की स्थापना की थी और अठारहवां स्कूल भी पुणे में ही खोला गया था। उन्‍होंने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्‍कार पीड़ितों के लिए बाल हत्‍या प्रतिबंधक गृह की स्‍थापना की।स्कूल जाने पर झेली प्रताड़नाजब भी सावित्रीबाई फुले स्कूल जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर और गोबर फेंक दिया करते थे। ऐसा हर रोज़ होता था लेकिन वह पीछे नहीं हटीं और उन्होंने इसका हल भी ढूंढ लिया। वह अपने साथ एक अतिरिक्त साड़ी भी लेकर जाने लगीं।

सत्यशोधक समाज की जनक :

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा ने 24 सितंबर, 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा भी शुरू की और इस संस्था के द्वारा पहला विधवा पुनर्विवाह 25 दिसम्बर 1873 को कराया गया। 1890 में ज्योतिराव फुले के निधन के बाद उन्होंने सत्यशोधक समाज की जिम्मेदारी संभाली और विधवा पुनर्विवाह जैसे प्रगतिशील विचारों को साकार किया। 10 मार्च 1897 को प्लेग पीड़ितों की सेवा करते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उनका पूरा जीवन समाज के वंचित तबक़े ख़ासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में बीता।

सावित्रीबाई फुले को आधुनिक मराठी काव्य की अग्रदूत भी माना जाता है। वह अपनी कविताओं और लेखों में हमेशा सामाजिक चेतना की बात करती थीं। उनकी बहुत सी कविताएं हैं जिससे पढ़ने-लिखने की प्रेरणा मिलती है, जाति तोड़ने और ब्राह्मण ग्रंथों से दूर रहने की सलाह भी मिलती है। सावित्री बाई फुले इस देश की पहली महिला शिक्षिका होने के साथ-साथ, समाज के वंचित तबक़े ख़ासकर स्त्रियों और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने के लिए हमेशा याद की जाएंगी।

उनकी प्रेरणा से, आज की नारी हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। यदि हम राष्ट्र को आदर्श बनाना चाहते हैं, तो हमें सावित्रीबाई फुले के योगदान को याद रखते हुए आने वाली पीढ़ियों को उनके योगदान के प्रति जागरूक करते हुए हर महिला को शिक्षित करना होगा। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(Dalit Times)

दलित किसान की अनोखी खोज, एचएमटी-सोना चावल ने रचा इतिहास, पढ़िए दिल छूने वाली स्टोरी

December 05, 2024 | By Maati Maajra
दलित किसान की अनोखी खोज, एचएमटी-सोना चावल ने रचा इतिहास, पढ़िए दिल छूने वाली स्टोरी

दादाजी खोबरागड़े, एक दलित किसान, ने दुनिया भर में मशहूर “एचएमटी-सोना चावल” की खोज की। उनकी इस उपलब्धि ने भारतीय कृषि को नई दिशा दी और किसानों के लिए एक सस्ती और उन्नत किस्म का चावल प्रदान किया। उनकी मेहनत और नवाचार ने उन्हें एक प्रेरणास्रोत बना दिया, जिससे दलित समाज और भारतीय कृषि दोनों को गौरव मिला।

भारत की हरित क्रांति के इतिहास में दलित किसान दादाजी खोबरागड़े का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के नांदेड़ गांव के एक साधारण किसान, दादाजी खोबरागड़े ने ऐसा अनमोल योगदान दिया, जिसने न केवल भारतीय कृषि को बदल दिया, बल्कि पूरी दुनिया में उनकी पहचान बनाई। उन्होंने एचएमटी-सोना चावल की किस्म विकसित की, जिसे अपनी अधिक उपज, गुणवत्ता और कम लागत के कारण दुनियाभर में सराहा गया।

संघर्ष से सफलता तक का सफर

दादाजी खोबरागड़े का जन्म एक गरीब दलित परिवार में हुआ था। उनके पास सीमित जमीन थी, लेकिन उनके सपने विशाल थे। गरीबी के बावजूद, उन्होंने खेती को विज्ञान के नजरिए से समझने की कोशिश की। 1983 में, अपने प्रयोगों और मेहनत के बल पर, उन्होंने चावल की एक नई किस्म विकसित की। यह किस्म कम पानी में उगाई जा सकती थी, जल्दी पकती थी और अधिक उपज देती थी। इस नई किस्म को “एचएमटी-सोना चावल” का नाम दिया गया, क्योंकि इसके दाने सोने जैसे चमकते थे।

एचएमटी चावल: क्रांति का प्रतीक

एचएमटी चावल ने कृषि क्षेत्र में क्रांति ला दी। इस किस्म ने किसानों को कम लागत में अधिक लाभ कमाने का अवसर दिया। यह चावल भारत ही नहीं, बल्कि एशिया, अफ्रीका और अन्य महाद्वीपों में भी लोकप्रिय हुआ। इसकी विशेषता यह थी कि यह न केवल अधिक उत्पादन देता था, बल्कि स्वाद में भी बेहतरीन था।

मान्यता और भुला दिया गया संघर्ष

दादाजी खोबरागड़े को उनकी उपलब्धियों के लिए अनेक पुरस्कार मिले, लेकिन उनके योगदान को वह सम्मान और पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। सरकार और समाज ने उनके संघर्ष और उपलब्धियों को लंबे समय तक अनदेखा किया। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि कैसे समाज के हाशिए पर रहने वाले लोग भी दुनिया को बदल सकते हैं, अगर उन्हें अवसर मिले।

दुनिया के लिए प्रेरणा

आज दादाजी खोबरागड़े की कहानी सिर्फ चावल की एक किस्म तक सीमित नहीं है। यह कहानी इस बात का प्रमाण है कि प्रतिभा जाति और वर्ग की बेड़ियों से ऊपर होती है। उन्होंने साबित किया कि साधारण परिस्थितियों में भी असाधारण काम किए जा सकते हैं। उनकी यह उपलब्धि न केवल दलित समाज, बल्कि पूरी मानवता के लिए प्रेरणा है।

खेत से लेकर दुनिया तक: दादाजी की विरासत

एचएमटी-सोना चावल आज भी भारत के लाखों किसानों की आजीविका का आधार है। यह केवल एक कृषि उत्पाद नहीं, बल्कि दादाजी खोबरागड़े के सपनों और संघर्ष का प्रतीक है। उनकी कहानी हमें यह याद दिलाती है कि अगर अवसर और समर्पण हो, तो कोई भी बाधा रास्ते में नहीं आ सकती।

मेहनत और जुनून का अद्वितीय उदाहरण

दादाजी खोबरागड़े ने अपनी मेहनत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह दिखा दिया कि महान उपलब्धियां समाज के किसी भी कोने से आ सकती हैं। उनकी कहानी भारतीय कृषि और समाज के लिए एक मील का पत्थर है। उनकी उपलब्धि हर किसान और युवा को सपने देखने और उन्हें पूरा करने का हौसला देती है।

दलितों की आवाज: अंबेडकर जयंती का आयोजन बना सजा, छात्रों का निलंबन और प्रवेश रद्द, प्रशासन ने भी नहीं दिया साथ

November 28, 2024 | By Maati Maajra
दलितों की आवाज: अंबेडकर जयंती का आयोजन बना सजा, छात्रों का निलंबन और प्रवेश रद्द, प्रशासन ने भी नहीं दिया साथ

बाबासाहेब अंबेडकर विश्वविद्यालय में चार दलित छात्रों पर फर्जी FIR और निलंबन के साथ ही उनका प्रवेश (Admission) भी रद्द कर दिया गया है। पुलिस द्वारा भी इन छात्रों और उनके परिवारों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे धरना खत्म करें और शिकायत वापस लें। इस अन्याय के खिलाफ छात्र संगठन और दलित समुदाय संघर्ष कर रहे हैं।

Lucknow: बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ में दलित छात्रों पर प्रशासन द्वारा किए गए बर्बर दमन ने एक गंभीर विवाद खड़ा कर दिया है। इस घटना की जड़ें 16 अप्रैल 2024 से जुड़ी हैं, जब विश्वविद्यालय के दलित छात्रों ने डॉ. अंबेडकर जयंती का आयोजन किया था। हर वर्ष की परंपरा के अनुसार, इस अवसर पर एक समता मार्च आयोजित किया जाता है, लेकिन इस बार प्रशासन ने अचानक से मार्च में साउंड सिस्टम का उपयोग करने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। छात्रों के इस फैसले पर आक्रोशित होने पर, उन्होंने विश्वविद्यालय के गेट नंबर 03 पर धरना देना शुरू किया।

हालांकि, कई घंटे तक कोई प्रशासनिक अधिकारी छात्रों से मिलने नहीं आया, जिसके बाद वे कुलपति आवास की ओर कूच करने लगे। लगभग 6-7 घंटे तक चले इस धरने के बाद, विश्वविद्यालय प्रशासन ने रात के करीब 12:30 बजे आकर सांस्कृतिक कार्यक्रम की अनुमति देने की बात कही। हालांकि, यह अनुमति 18 अप्रैल को सीमित समय के लिए दी गई, जिसके बाद छात्रों ने धरना समाप्त किया।

रामनवमी के कार्यक्रम पर प्रशासन का दोहरा मापदंड

17 अप्रैल को प्रशासन का पक्षपातपूर्ण रवैया और भी स्पष्ट हो गया, जब बिना अनुमति के रामनवमी के उपलक्ष्य में विश्वविद्यालय परिसर में डीजे साउंड सिस्टम का उपयोग कर एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम के दौरान प्रशासन की निष्क्रियता और दलित छात्रों द्वारा अंबेडकर जयंती पर साउंड सिस्टम के उपयोग पर प्रतिबंध से छात्रों में गहरा असंतोष पैदा हुआ। जब दलित छात्र कुलपति आवास पर इस भेदभाव के खिलाफ सवाल पूछने पहुंचे, तो सुरक्षा अधिकारी और गार्डों ने उन पर बर्बर हमला कर दिया। वीडियो फुटेज में साफ देखा जा सकता है कि सुरक्षा गार्डों ने छात्रों को बेरहमी से मारा-पीटा, जिनमें एक गार्ड ने तो बंदूक की बट का भी इस्तेमाल किया।

फर्जी FIR और छात्रों का निलंबन

इसके बाद, स्थिति और भी खराब हो गई जब प्रशासन ने उल्टा ही चार निर्दोष दलित छात्रों—अश्वनी कुमार, राहुल कुमार, विकास कुमार, और आलोक कुमार राव—पर फर्जी FIR दर्ज कराई। साथ ही, विश्वविद्यालय प्रशासन ने इन छात्रों को बिना किसी ठोस कारण के तीन महीने के लिए निलंबित कर दिया। यह निलंबन आदेश 27 अप्रैल को मेल द्वारा भेजा गया, जिसमें किसी भी प्रकार का स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था। इसके दो दिन बाद, 29 अप्रैल को छात्रों को एक कारण बताओ नोटिस जारी किया गया, जो पूरी तरह से प्रशासन की हठधर्मिता और असंवैधानिक कार्यवाही को दर्शाता है।

घर-घर जाकर धमकियां और मानसिक उत्पीड़न

पुलिस का रवैया छात्रों के प्रति न केवल अनदेखी का है, बल्कि अब वह सीधे उनके घरों तक पहुंचकर उन्हें और उनके परिवारों को धमका रही है। पुलिस अधिकारियों द्वारा छात्रों को बार-बार घर जाकर यह कहा जा रहा है कि वे धरना समाप्त कर दें और किसी प्रकार की कानूनी कार्यवाही न करें। यह एक गंभीर मामला है जहां संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। छात्र और उनके परिवार, जो न्याय की उम्मीद में पुलिस के पास पहुंचे थे, अब खुद ही मानसिक उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं।

परिवारों पर बढ़ रहा दबाव

पुलिस सिर्फ छात्रों को ही नहीं, बल्कि उनके परिवारों को भी प्रताड़ित कर रही है। पुलिसकर्मी बार-बार उनके घर जाकर धमकियों और दबाव का माहौल बना रहे हैं, जिससे परिवारजन भयभीत हैं। यह स्पष्ट रूप से संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन है, जो समानता और जीवन के अधिकार की रक्षा करता है। पुलिस का यह रवैया उन सभी सिद्धांतों का अपमान है, जो न्याय, स्वतंत्रता और समानता की वकालत करते हैं।

दमन के खिलाफ संघर्ष

यह स्पष्ट है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस मिलकर दलित छात्रों की आवाज को दबाने की कोशिश कर रहे हैं। यह सिर्फ चार छात्रों की लड़ाई नहीं है, बल्कि पूरे बहुजन समाज के खिलाफ एक संगठित साजिश है। बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन और अन्य प्रगतिशील संगठन पुलिस के इस दमनकारी रवैये के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। उनका कहना है कि पुलिस और प्रशासन का यह संयुक्त प्रयास छात्रों को मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़ने का है, ताकि वे न्याय की मांग न कर सकें।

पुलिस के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की मांग

छात्रों के पक्षधर संगठनों ने इस मामले में पुलिस के खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही की मांग की है। पुलिस का यह व्यवहार न केवल अवैध है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ भी है। छात्रों और उनके परिवारों के साथ हो रहे इस मानसिक उत्पीड़न को तत्काल रोकने और दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की जा रही है।

संविधान के मूल्यों का हनन और दलित छात्रों का संघर्ष

इस घटना ने प्रशासन के दलित विरोधी रवैये को उजागर किया है, जहां दलित छात्रों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन ने प्रशासन के इस अन्यायपूर्ण रवैये के खिलाफ एकजुट होकर आवाज उठाई है और विश्वविद्यालय के लोकतांत्रिकीकरण की मांग की है। इस संघर्ष में न केवल चार निर्दोष छात्रों के निलंबन और फर्जी FIR के खिलाफ, बल्कि पूरी दलित छात्र समुदाय के सम्मान और अधिकारों के लिए आवाज उठाई जा रही है।

ब्राह्मणवादी मानसिकता के खिलाफ दलित छात्रों की एकजुटता

यह घटना यह दर्शाती है कि किस प्रकार विश्वविद्यालय में ब्राह्मणवादी मानसिकता दलित छात्रों को उनके अधिकारों से वंचित कर रही है। यहां न केवल छात्रों के शैक्षणिक जीवन पर आघात हो रहा है, बल्कि उनके आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय की मांग को भी दमन के जरिए दबाया जा रहा है। विश्वविद्यालय के अंदर हो रही इस प्रकार की असमानता ग्रामीण इलाकों में दलित समुदाय के साथ होने वाली अन्यायपूर्ण घटनाओं की याद दिलाती है, जहां पुलिस और प्रशासनिक संस्थान दलितों की आवाज को नजरअंदाज करते हैं।

संघर्ष जारी रहेगा: एकजुट हो दलित छात्र

बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट्स एसोसिएशन और अन्य जनवादी संगठन दलित छात्रों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं। इस संघर्ष को न केवल विश्वविद्यालय के स्तर पर लड़ा जा रहा है, बल्कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी उठाने की जरूरत है। यह मामला सिर्फ चार छात्रों का नहीं है, बल्कि यह उन सभी छात्रों की लड़ाई है जो भेदभाव और अन्याय का शिकार हो रहे हैं। अब समय आ गया है कि सभी प्रगतिशील, अंबेडकरवादी और जनवादी संगठन एकजुट होकर इस दमनकारी व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करें और चार निर्दोष दलित छात्रों पर लगाए गए फर्जी मुकदमों और निलंबन को तत्काल वापस लेने की मांग करें।

(Dalit Times)

“जीनियस ग्रांट” बनी दलित लेखिका शैलजा पाइक

October 19, 2024 | By Rajiv Ranjan Nag
“जीनियस ग्रांट” बनी दलित लेखिका शैलजा पाइक

पूणेमें यरवदा की झोपड़ पटिटयों में जन्मी इतिहासकार और लेखिका शैलजा पाइक प्रतिष्ठित मैकआर्थर फेलोशिप से सम्मानित होने वाली पहली दलित विद्वान के रूप में इतिहास रच दिया है, जिसे अक्सर “जीनियस ग्रांट” कहा जाता है।आधुनिक भारत में दलित अध्ययन, लिंग और कामुकता में अपने अग्रणी कार्य के लिए पहचानी जाने वाली 50 वर्षीय इतिहास की प्रोफेसर को उनके चल रहे शोध का समर्थन करने के लिए 800,000 डॉलर (लगभग 67 लाख रुपये) की प्रभावशाली राशि मिलेगी।

विज्ञान, कला और मानविकी जैसे विविध क्षेत्रों में व्यक्तियों को उनकी असाधारण रचनात्मकता, उपलब्धि और क्षमता के सम्मान में प्रदान किया जाता है। इन पुरस्कारों को अद्वितीय बनाने वाली बात यह है कि प्राप्तकर्ताओं को सिफारिशों के आधार पर गुमनाम रूप से चुना जाता है, और कोई औपचारिक आवेदन प्रक्रिया नहीं होती है। अनुदान का उद्देश्य व्यक्ति के भविष्य के काम में निवेश करना है, जिसमें कोई शर्त नहीं जुड़ी है।

पाइक का शोध दलित महिलाओं के जीवन को आकार देने में जाति, लिंग और कामुकता के प्रतिच्छेदन पर जोर देता है। उनके अभूतपूर्व अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि कैसे दलित महिलाओं को न केवल उनकी जाति के कारण बल्कि पितृसत्तात्मक और यौन मानदंडों के कारण भी हाशिए पर रखा गया है। उनकी सबसे हालिया परियोजना, जो महाराष्ट्र के पारंपरिक लोक रंगमंच “तमाशा” में महिला कलाकारों के जीवन पर आधारित है, ने इस बात पर नया ध्यान आकर्षित किया है कि इस कला रूप में दलित महिलाओं को ऐतिहासिक रूप से कैसे कलंकित किया गया है।

शैलजा पाइक ने दलित जीवन और जाति व्यवस्था पर अपने शोध और लेखन को जारी रखने के लिए मैकआर्थर फेलोशिप फंड का उपयोग करने की योजना बनाई है। मैकआर्थर फाउंडेशनभारत में जन्मी इतिहासकार शैलजा पैक ने मैकआर्थर “जीनियस” अनुदान एक बहुप्रतीक्षित पुरस्कार है जो प्रत्येक वर्ष विभिन्न क्षेत्रों- शिक्षा, विज्ञान, कला और सक्रियता- में असाधारण उपलब्धियों या क्षमता का प्रदर्शन करने वाले व्यक्तियों को दिया जाता है।फाउंडेशन ने फेलोशिप की घोषणा करते हुए कहा, “दलित महिलाओं के बहुमुखी अनुभवों पर अपने फोकस के माध्यम से, पैक जाति भेदभाव की स्थायी प्रकृति और अस्पृश्यता को बनाए रखने वाली ताकतों को स्पष्ट करती हैं।”

पुणे में यरवदा झुग्गी से लेकर यूनिवर्सिटी ऑफ महाराष्ट्र में एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर के रूप में अपने पद तक पैक की यात्रा सिनसिनाटी किसी प्रेरणा से कम नहीं है।नेशनल पब्लिक रेडियोके साथ एक साक्षात्कार में, पाइक ने महाराष्ट्र के पुणे के यरवदा झुग्गी में अपने पालन-पोषण के बारे में बताया, जहाँ वह अपनी तीन बहनों के साथ 20-बाई-20 फ़ीट के एक छोटे से कमरे में रहती थी। उनके पिता, देवराम एफ पाइक, परिवार के एकमात्र कमाने वाले थे, जो दिन में वेटर और रेस्तरां क्लीनर के रूप में अथक परिश्रम करते थे और रात में अपनी शिक्षा प्राप्त करते थे।”वह नाइट स्कूल जाते थे और दिन में काम करते थे…। उन्होंने शादियों या धार्मिक आयोजनों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली अस्थायी पंडाल लगाई और आयोजनों के दौरान संगीत बजाना सीखा। इस तरह, किसी तरह, उन्होंने खुद को शिक्षित किया – और कृषि विज्ञान में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। ऐसा करने वाले अपने गाँव के पहले दलित व्यक्ति थे। शैलजा की माँ, हालाँकि केवल छठी कक्षा तक ही शिक्षित थीं, ने अपने बच्चों की शैक्षणिक महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पैक ने अपने एक रेडियो साक्षात्कार में कहा, “उन्होंने मुझे और मेरी बहनों को अपनी शिक्षा के लिए समर्पित करने के लिए घरेलू कामों में बहुत मेहनत की।”

अपने दृढ़ संकल्प के बावजूद, पैक ने अपने आस-पास की कठोर वास्तविकताओं का वर्णन याद करते हुए बताया कि कैसे उनके घर में नियमित पानी की आपूर्ति और निजी शौचालय की कमी थी। उन्होंने कहा, “मैं अपने आस-पास कचरे और गंदगी के साथ बड़ी हुई। सूअर गलियों में घूमते थे।”उन्हें सार्वजनिक नल से पानी के भारी बर्तन अपने सिर पर ढोना और जातिगत भेदभाव का सामना करना याद है। जैसे कि उच्च जाति के व्यक्तियों से अलग नामित चाय के कप का उपयोग करना या बातचीत करते समय मिट्टी के फर्श पर बैठना। वह जोर देकर कहतीं हैं- “झुग्गी से बचने के लिए, मुझे शिक्षा और रोजगार प्राप्त करना था – यह एक बेहतर जीवन जीने की कुंजी थी”

1996 में, पैक को सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से छात्रवृत्ति मिली, जहाँ उन्होंने इतिहास में स्नातक और परास्नातक की डिग्री हासिल की। शुरू में वह आईएएस अधिकारी बनने की ख्वाहिश रखती थीं। पैक ने कहा, “झुग्गी-झोपड़ी से बचने के लिए, मुझे शिक्षा और रोजगार प्राप्त करना पड़ा – यह बेहतर जीवन जीने की कुंजी थी।”

मैकआर्थर फाउंडेशन बाद में, फोर्ड फाउंडेशन अनुदान के समर्थन से, उन्होंने यूके में वारविक विश्वविद्यालय में पीएचडी पूरी की और अब सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं। पैक ने अपने काम को खुले तौर पर साझा किया है । कैसे उनके पालन-पोषण ने उन्हें सामाजिक, शैक्षिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से गहराई से आकार दिया, जिसने उन्हें अपने काम के माध्यम से दलित जीवन को सुर्खियों में लाने के लिए प्रभावित किया। उनकी पहली किताब, ‘आधुनिक भारत में दलित महिलाओं की शिक्षा: दोहरा भेदभाव’, 2014 में प्रकाशित हुई। यह किताब महाराष्ट्र में दलित महिलाओं के सामने आने वाली चुनौतियों पर केंद्रित है।

मैकआर्थर फेलोशिप, 1981 में अपनी स्थापना के बाद से, उन व्यक्तियों को मान्यता देती रही है जिनके रचनात्मक कार्य ने उनके संबंधित क्षेत्रों पर गहरा प्रभाव डाला है। पाइक पिछले फेलो की प्रतिष्ठित सूची में शामिल हो गई हैं, जिसमें अर्थशास्त्री राज चेट्टी और सेंधिल मुल्लानाथन, कवि ए.के. रामानुजन और गणितज्ञ एल. महादेवन जैसे प्रसिद्ध भारतीय-अमेरिकी व्यक्ति शामिल हैं।

$800,000 का अनुदान, जो पाँच वर्षों में वितरित किया जाएगा, प्राप्तकर्ताओं को वित्तीय बाधाओं के बिना अपने शोध को आगे बढ़ाने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। पाइक के लिए, यह संभवतः भारत में जाति गतिशीलता और लिंग संबंधों में आगे की खोज को बढ़ावा देगा।

उन्होंने याद करते हुए कहा, “महिलाओं को दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ा – दलित होने के कारण और उनके लिंग के कारण। इसलिए यह मेरे लिए भी एक महत्वपूर्ण प्रेरणा बन गया।” पैक की दूसरी किताब, ‘द वल्गरिटी ऑफ कास्ट: दलित्स, सेक्सुअलिटी, एंड ह्यूमैनिटी इन मॉडर्न इंडिया’, जिसे स्टैनफोर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया है। यह किताब महाराष्ट्र के तमाशा कलाकारों के जीवन की पड़ताल करती है। तमाशा महाराष्ट्र में सदियों से दलितों द्वारा प्रचलित लोक रंगमंच का एक लोकप्रिय, अश्लील रूप है।

अपनी किताबों के अलावा, पैक ने साउथ एशियन स्टडीज, जेंडर एंड हिस्ट्री और इंडियन जर्नल ऑफ जेंडर स्टडीज जैसी प्रमुख पत्रिकाओं में भी योगदान दिया है।अपने पूरे करियर के दौरान, पैक ने कई प्रतिष्ठित पुरस्कार जीते हैं। मैकआर्थर अनुदान के अलावा, उन्हें फ्री अवार्ड भी मिला है।

दलित महिलाओं के इतिहास में विशेषज्ञता रखने वाली इस भारतीय-अमेरिकी प्रोफेसर शैलजा पाइक वर्तमान में सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में एक प्रतिष्ठित शोध प्रोफेसर हैं। वह दलित इतिहास और लिंग अध्ययन में अपने योगदान के लिए व्यापक रूप से जानी जाती हैं। अपनी घोषणा में, फाउंडेशन ने पाइक द्वारा दलित महिलाओं द्वारा पूरे इतिहास में सामना की गई चुनौतियों की गहन खोज की सराहना की। फाउंडेशन ने कहा, “दलित महिलाओं के बहुआयामी अनुभवों पर अपने फोकस के माध्यम से, शैलजा पाइक जातिगत भेदभाव की स्थायी प्रकृति और अस्पृश्यता को बनाए रखने वाली ताकतों को स्पष्ट करती हैं।” मैकआर्थर फेलोशिप, जिसे अक्सर “जीनियस” अनुदान के रूप में संदर्भित किया जाता है।

फाउंडेशन ने उल्लेख किया कि महाराष्ट्र में तमाशा को एक सम्मानित सांस्कृतिक प्रथा के रूप में फिर से परिभाषित करने के प्रयासों के बावजूद, कलाकार – ज्यादातर दलित महिलाएँ – अभी भी कलंक का सामना करती हैं और उन्हें अक्सर “अश्लील” करार दिया जाता है। यह काम उनकी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक, द वल्गरिटी ऑफ़ कास्ट: दलित्स, सेक्सुअलिटी, एंड ह्यूमैनिटी इन मॉडर्न इंडिया में परिणत हुआ, जो जाति, सम्मान और गरिमा के इर्द-गिर्द मुख्यधारा की कहानियों को चुनौती देती है।

अपने अकादमिक शोध से परे, पाइक की व्यक्तिगत कहानी भी उतनी ही प्रेरणादायक है। एक दलित परिवार में जन्मी और भारत के पुणे में एक झुग्गी में पली-बढ़ी पाइक अपनी सफलता का श्रेय अपने पिता के शिक्षा पर ज़ोर को देती हैं। उन्होंने पुणे में सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय से अपनी मास्टर डिग्री हासिल की और बाद में यू.के. में वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी की। उनकी शैक्षणिक यात्रा ने अंततः उन्हें दक्षिण एशियाई इतिहास के विजिटिंग असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में येल विश्वविद्यालय में पहुँचाया।

नेशनल पब्लिक रेडियो (एनपीआर) के साथ हाल ही में एक साक्षात्कार में, पाइक ने जातिगत भेदभाव के साथ अपने स्वयं के अनुभवों पर विचार किया। दलित समुदाय के सदस्य के रूप में, उनका काम न केवल अकादमिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि गहराई से व्यक्तिगत भी है, जो भारत में दलित महिलाओं के अक्सर नजरअंदाज किए जाने वाले संघर्षों में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

पाइक के योगदान का पहले से ही वैश्विक प्रभाव रहा है, जो दलित महिलाओं के जीवन और संघर्षों पर प्रकाश डालता है। मैकआर्थर फाउंडेशन के समर्थन से, उनका भविष्य का काम नई राह खोलने और मौजूदा जातिगत आख्यानों को चुनौती देना जारी रखने का वादा करता है।मैकआर्थर फाउंडेशन इस बात पर जोर देता है कि फेलोशिप न केवल पिछले काम की स्वीकृति है, बल्कि इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों के भविष्य में निवेश भी है। पाइक का काम फाउंडेशन के लक्ष्यों के साथ पूरी तरह से मेल खाता है, जो उन लोगों

का उत्थान करना चाहता है जो शोध, कला और सक्रियता के माध्यम से समाज के कुछ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों से निपट रहे हैं।

मैकआर्थर फाउंडेशन द्वारा शैलजा पाइक को मान्यता देना हाशिए पर पड़े समुदायों के इतिहास की खोज और दस्तावेज़ीकरण जारी रखने के महत्व को रेखांकित करता है।खासकर भारत जैसे देश में, जहाँ कई क्षेत्रों में जाति-आधारित भेदभाव अभी भी व्याप्त है। अपने काम के साथ, पाइक दलित महिलाओं की आवाज़ को बुलंद कर रही हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि उनकी कहानियाँ और संघर्ष इतिहास से मिट न जाएँ।

दलित अधिकार कार्यकर्ता और हरियाणा के मशहूर वकील रजत कलसन को भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से किया गया सम्मानित

October 10, 2024 | By Maati Maajra
दलित अधिकार कार्यकर्ता और हरियाणा के मशहूर वकील रजत कलसन को भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से किया गया सम्मानित

हरियाणा के चर्चित दलित अधिकार कार्यकर्ता और प्रतिष्ठित वकील, रजत कलसन, को भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से सम्मानित किया गया। रजत कलसन का जीवन संघर्ष और समाज सुधार का एक ऐसा प्रेरणादायक उदाहरण है, जो दिखाता है कि किस प्रकार एक व्यक्ति समाज में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ खड़ा हो सकता है।

दिल्ली में आयोजित एक भव्य कार्यक्रम के दौरान हरियाणा के चर्चित दलित अधिकार कार्यकर्ता और प्रतिष्ठित वकील, रजत कलसन, को भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उन्हें उनके दशकों से जारी समाज सेवा, संवैधानिक अधिकारों की रक्षा, और दलित समाज के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ की गई उनकी अटूट लड़ाई के लिए दिया गया है। समता बुद्ध विहार, पश्चिम पुरी, नई दिल्ली में 2285वें अशोक विजयदशमी समारोह के अवसर पर समता बौद्ध विहार प्रबंधक संघ ने रजत कलसन को यह सम्मान प्रदान किया।

रजत कलसन का जीवन संघर्ष और समाज सुधार का एक ऐसा प्रेरणादायक उदाहरण है, जो दिखाता है कि किस प्रकार एक व्यक्ति समाज में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ खड़ा हो सकता है। पिछले 15 सालों से, रजत कलसन दलित समाज के साथ हो रहे अत्याचार और हिंसा के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। उनके द्वारा सैकड़ों मुकदमे लड़े गए हैं, जिनमें उन्होंने दलित समाज की ओर से अदालत में मजबूत पैरवी की है। उनकी कानूनी लड़ाइयों के परिणामस्वरूप अनेक जातिवादी अपराधियों को जेल भेजा गया है, और इसके साथ ही उन्होंने संवैधानिक और कानूनी जागरूक

मिर्चपुर कांड: संघर्ष की मिसाल

रजत कलसन के संघर्ष की सबसे प्रमुख घटनाओं में से एक हरियाणा के मिर्चपुर कांड से जुड़ी है। इस मामले में दलित समाज के लोगों के साथ भयानक अत्याचार हुआ था, जब गांव में दबंगों ने एक दलित परिवार के घर पर हमला कर आग लगा दी, जिसमें एक विकलांग लड़की और उसके पिता की मौत हो गई। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था, और रजत कलसन ने इस मामले में न केवल पीड़ितों की ओर से न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि समाज में व्याप्त जातिगत अत्याचारों के खिलाफ जागरूकता भी फैलाई। उनकी पैरवी के चलते इस मामले में दोषियों को कड़ी सजा मिली, जो दलित समाज के लिए न्याय की एक महत्वपूर्ण जीत मानी जाती है।

दलित टाइम्स से बोले एडवोकेट रजत कलसन :

दलित अधिकार कार्यकर्ता रजत कलसन ने दलित टाइम्स को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि जातिवाद आज भी समाज में गहराई से फैला हुआ है और छुआछूत जैसी प्रथाएं अब भी जारी हैं। उन्होंने यह भी बताया कि दलितों के खिलाफ अत्याचार में कोई कमी नहीं आई है, और समाज में समानता की बातें अभी भी अधूरी हैं।

इसके अलावा, रजत ने कांग्रेस पार्टी की भी आलोचना की, यह आरोप लगाते हुए कि वह दलित मुद्दों पर ठोस कदम नहीं उठा रही है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस जैसी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों ने दलितों की समस्याओं को हल करने के लिए सही दिशा में काम नहीं किया, जिससे सामाजिक अन्याय अब भी जारी है।

भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से सम्मानित :

समता बौद्ध विहार प्रबंधक संघ के सचिव सुधीर भास्कर ने बताया कि अधिवक्ता रजत कलसन को यह सम्मान विशेष रूप से पिछले 15 सालों में दलित समाज के हक की लड़ाई में उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के लिए दिया गया है। सुधीर भास्कर ने कहा, “रजत कलसन ने दलित समाज के खिलाफ होने वाले अत्याचारों के मामलों में दृढ़ता से पैरवी की है और जातिवादी गुंडों को जेल भेजने का काम किया है। इसके साथ ही उन्होंने समाज में संवैधानिक और कानूनी जागरूकता फैलाने का भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके संघर्ष से दलित समाज में जागरूकता और साहस का संचार हुआ है।”

यह सम्मान केवल रजत कलसन के लिए ही नहीं, बल्कि उन सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो सामाजिक अन्याय के खिलाफ खड़े होने का साहस रखते हैं।

सम्मानित की गयीं अन्य हस्तियां :

रजत कलसन के साथ, अन्य पांच प्रमुख व्यक्तित्वों को भी भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से सम्मानित किया गया। इनमें प्रोफेसर डॉ. राजकुमार, सामाजिक और राजनीतिक विद्वान; सुमित चौहान, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक विश्लेषक; रतनलाल केन, आरटीआई के माध्यम से बहुजन समाज के सम्मान और हितों की रक्षा करने वाले; उम्मेद सिंह गौतम, राष्ट्रीय कमांडर समता सैनिक दल; और करुणाशील रौशन, जिन्होंने महापुरुषों की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया है, शामिल हैं।

सम्मान समारोह में ये लोग रहे मौजूद :

इस सम्मान समारोह में कई प्रमुख व्यक्तित्व भी उपस्थित थे। वरिष्ठ अधिवक्ता रिखीराम, अधिवक्ता दीपक सैनीपुरा, सामाजिक कार्यकर्ता विकास भाटला, और सचिन चोपड़ा जैसी हस्तियों ने इस कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई। रजत कलसन ने इस अवसर पर समता बुद्ध विहार की प्रबंधक समिति के अध्यक्ष आर.पी. राम, सचिव सुधीर भास्कर, उपाध्यक्ष गोवर्धन दास, कोषाध्यक्ष देवेंद्र आर्य, और विश्वबंधु का आभार व्यक्त किया।

एडवोकेट रजत कलसन की भविष्य की दिशा

रजत कलसन का यह सम्मान उनकी अब तक की उपलब्धियों का एक परिचायक है, लेकिन उनके संघर्ष की यह कहानी यहीं खत्म नहीं होती। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि वे आगे भी दलित समाज के अधिकारों के लिए लड़ते रहेंगे और समाज में समानता और न्याय की स्थापना के लिए काम करते रहेंगे। उनका मानना है कि जब तक समाज में जातिगत भेदभाव और अत्याचार समाप्त नहीं होते, तब तक उनकी लड़ाई जारी रहेगी।

रजत कलसन जैसे व्यक्तित्वों का संघर्ष और समर्पण समाज के लिए एक मिसाल है, और उनकी यह यात्रा बताती है कि अगर संकल्प मजबूत हो, तो एक व्यक्ति भी सामाजिक बदलाव की लहर पैदा कर सकता है। भारतीय त्रिरत्न अवार्ड से सम्मानित होना रजत कलसन के लिए एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन उनके लिए यह केवल एक पड़ाव है—उनकी असली मंजिल सामाजिक न्याय की पूर्ण स्थापना है।

(Dalit Times)

NHFS Report: जातीय भेदभाव और शिक्षा की कमी से दलित-आदिवासी महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति सबसे खराब

September 22, 2024 | By Maati Maajra
NHFS Report: जातीय भेदभाव और शिक्षा की कमी से दलित-आदिवासी महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति सबसे खराब

NHFS की रिपोर्ट के अनुसार, दलित महिलाओं की औसत आयु गरीबी, स्वच्छता की कमी और कुपोषण के कारण सवर्ण महिलाओं से 14.6 साल कम है, जहां 76.7% को बीमार होने पर इलाज नहीं मिलता। रिपोर्ट जातीय भेदभाव और शिक्षा की कमी को इन असमानताओं का प्रमुख कारण बताती है।

Health: दलितों के खिलाफ हिंसा का विषय अक्सर समाचारों में सुर्खियाँ बनता है, लेकिन इसके साथ ही दलितों की स्वास्थ्य संबंधी स्थिति भी गंभीर चिंता का विषय है। नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे (NHFS-4) की रिपोर्ट के अनुसार, दलितों को स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके हेल्थकेयर इंडेक्स भी काफी पिछड़े हुए हैं।

दलित महिलाएं कम उम्र में मर जाती हैं

नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे (NHFS-4) की रिपोर्ट ने दलित महिलाओं के स्वास्थ्य और जीवनकाल पर गंभीर चिंताओं को उजागर किया है। नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे (NHFS-4) की रिपोर्ट और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में दलित महिलाओं की स्वास्थ्य स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। NHFS-4 की रिपोर्ट में यह पाया गया है कि दलित महिलाओं की औसत आयु बाकी जातियों की महिलाओं से 14.6 साल कम है। जहां दलित महिलाओं की औसत आयु केवल 39.5 साल है, वहीं सवर्ण जातियों की महिलाओं की औसत आयु 54.1 साल है। बता दें, फरवरी 2018 में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने भी यह तथ्य सामने रखा था कि भारत में महिलाओं की आयु जाति पर निर्भर करती है।

कारण :

रिपोर्ट के अनुसार, दलित महिलाओं की कम आयु का मुख्य कारण गरीबी, स्वच्छता की कमी, पानी की अनुपलब्धता, कुपोषण और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं। गरीबी के कारण दलित महिलाओं के पास स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच सीमित होती है, जिससे वे गंभीर बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार होती हैं। स्वच्छता की कमी और पानी की अनुपलब्धता भी उनकी स्वास्थ्य स्थिति को प्रभावित करती है, जिससे वे संक्रामक रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। कुपोषण भी एक बड़ा कारक है, जो उनकी सामान्य स्वास्थ्य स्थिति और जीवनकाल को कम कर देता है।

महिलाओं को बीमार पड़ने पर इलाज उपलब्ध नहीं होता

नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे (NHFS) की रिपोर्ट के अनुसार, आदिवासी महिलाओं को स्वास्थ्य देखभाल की सुविधाओं की सबसे बड़ी कमी का सामना करना पड़ता है। रिपोर्ट के मुताबिक, 76.7% आदिवासी महिलाओं को बीमार पड़ने पर इलाज की सुविधा उपलब्ध नहीं होती है, जबकि 70.4% दलित महिलाओं के लिए भी यही स्थिति बनी हुई है। इसके विपरीत, अन्य जातियों की तुलना में ओबीसी महिलाओं में 66.7% और सवर्ण महिलाओं में 61.3% को बीमार होने पर बुनियादी इलाज की सुविधाएं नहीं मिलतीं।

दलित महिलाएं अनीमिया की शिकार

इस रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि 25-49 वर्ष की उम्र की 55.9% दलित महिलाएं अनीमिया से प्रभावित हैं। यह आंकड़ा देश भर की महिलाओं में अनीमिया की सामान्य दर का एक गंभीर संकेतक है, जो सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को स्पष्ट करता है। अनीमिया और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं के कारण दलित महिलाओं को उचित स्वास्थ्य देखभाल की कमी और चिकित्सा सुविधाओं का अभाव झेलना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, प्रेग्नेंसी के दौरान भी दलित और आदिवासी महिलाओं को आवश्यक मेडिकल सुविधाएं प्राप्त नहीं होतीं, जिससे उनकी स्वास्थ्य स्थिति और भी बिगड़ जाती है।

रिपोर्ट ने स्पष्ट किया दलितों के प्रति भेदभाव है जारी

NHFS-4 की रिपोर्ट ने स्पष्ट किया है कि दलित महिलाओं की स्वास्थ्य समस्याएं और जीवनकाल में अंतर, भारत में जातीय और आर्थिक विषमताओं का एक गंभीर परिणाम हैं। यह रिपोर्ट एक स्पष्ट संकेत है कि समाज में असमानता और भेदभाव को खत्म करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि सभी महिलाओं को समान स्वास्थ्य सुविधाएं और जीवन की गुणवत्ता मिल सके।

हलमा: सामुदायिक भागीदारी से अपनी समस्याओं का हल निकालते जनजातिय समुदाय!

July 12, 2024 | By Vaagdhara
हलमा: सामुदायिक भागीदारी से अपनी समस्याओं का हल निकालते जनजातिय समुदाय!

अरावली पठार में आने वाला बांसवाडा जिले के तहसील घाटोल का पहाड़ी क्षेत्र वाला गाव मियासा । यह इलाका पलायन और सूखे के लिए जाना जाता है। यहां रहने वाले भील समुदाय के आदिवासियों के लिए कई समस्याएं संकट लेकर आती है। इस समस्या का समाधान आदिवासियों ने अपने पारंपरिक ज्ञान में खोजा। सामुदायिक भागीदारी ‘हलमा’ की मदद से यहां कई जगह मेडबंदी ,फसल बुवाई ,फसल कटाई, और सामुदायिक भूमि पर अरंडी ,खाकरा टिमरू के बीज लगाकर पर्यावरण संवर्धन कर रहे है I

दरअसल, कम खेती उपज ,पानी संकट बांसवाड़ा जिले में रहने वाले आदिवासियों की प्रमुख चिंता है। ये संकट उनके लिए कई समस्याएं लेकर आता है। पीने के पानी समस्या तो इनमें सबसे विकराल है। फसलों को पानी देने का संकट अलग से है। इससे वे साल में सिर्फ एक ही फसल ले पाते हैं। इसके चलते पलायन, मजदूरी, भुखमरी और शोषण का कुचक्र शुरू होता है ।

लेकिन इन दिनों मियासा गांव में इन आदिवासीयो ने सामुदायिक तरीके से एक दुसरे के खेतों में बुवाई, मेडबंदी करके लाखों रुपये की बचत कर चर्चा में है । इसे अनेक समस्या ग्रसित भील आदिवासियों के इस गांव ने कृषि और अन्य की समस्या का समाधान खोज लिया है ।

वागधारा गठित ग्राम स्वराज संगठन की सदस्य श्रीमती अमरी देवी निनामा हलमा के बारे में बताती हैं, हमारी भील समाज की हलमा एक प्राचीन परंपरा है। जब कोई व्यक्ति गांव में संकट में फस जाता है और अपनी पूरी ताकत लगाने के बाद भी उस संकट से नहीं निकल पाता, तो वो हलमा का आह्वान करता है। गांव के लोग हलमा के जरिए सामाजिक दायित्व निभाकर कर उस व्यक्ति को संकट से निकालते हैं ।”

वही एक ओर सदस्य श्रीमती जमाना निनामा बताते हैं, “हमने गांव में खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिलते इस संकट से निपटने के लिए हलमा बुलाया था। इसी हलमा से सामुदायिक भागीदारी के तहत बिना एक पैसा खर्च किए तकरीबन 15 किसानों ने अपने खेतों में सामुदायिक तरीके से बुवाई की इसमें एक किसान के खेत में 25 लोग सहभागी हुए इस हिसाब से 300 किसानों ने एक दूसरे के खेतों में श्रमदान किया हलमा द्वारा पेशा और समय भी बचाया है ” I

वागधारा संस्था इस क्षेत्र पिछले 20 वर्ष से इन जनजातिय लोगों को ,मेडबंदी ,तालाब निर्माण,सच्ची खेती के तहत जैविक खेती प्रणाली अपनाने, सरकारी योजनाएं लाभान्वित करने हेतु, और पंचायत में अपने अधिकार एवं भागीदारी ,सामुदायिक विकास आदि के बारे में प्रशिक्षण देते आ रहे हैं ।

कृषि एवं आदिवासी स्वराज संगठन के पदाधिकारी देवी लाल निनामा हमें बताते हैं, “हमारे गांवों में भील जनजाति रहती है। यह पहाड़ी, अर्ध-शुष्क जलवायु वाली मानसून की अनिश्चितता से जूझता इलाका है। यहां आमतौर पर औसत वार्षिक वर्षा 900 मिली लीटर के आसपास होती है। वहीं अधिकतम तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तो न्यूनतम सात डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है । यहां लाल, काली, पथरीली, दोमट मिट्टी पाई जाती है । यहां रहने वाली जनजाति यहां की जैव-विविधता पर निर्भर है । इसलिए ये जनजाति अपनी पुरातन परंपराओं और कुदरती ज्ञान को अपने अंदर समेटे हुए है । इसके चलते जंगल भी बचे हुए हैं और जनजाति समुदाय भी अपना अस्तित्व बनाए हुए है ।”

मियासा गाँव के युवा केशव निनामा मजदूरी के लिए गुजरात जाते हैं । केशव और उनके पिता के पास बिना सिंचाई वाली तीन बीघा जमीन है जिससे वे केवल बारिश में बोई जाने वाली मक्का और तुवर उगा पाते हैं । मक्का सिर्फ घर में खाने में काम आता है । उसे वे मंडी में नहीं बेच पाते और फसल से मुनाफा नहीं हो पाता । घर में नगदी की हमेशा तंगी रहती है । इसलिए आधे परिवार को मजदूरी के लिए दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता था, क्यों की खेती करने के लिए मजदूर नहीं मिलते थे और खर्चा भी बहुत होता था पर अब खेती में फसल बुवाई और कटाई हलमा द्वारा करने से मैं बाहर पलायन नही जा रहा हु । हमें अभी गांव में और एक दूसरे की मदद करके अपनी की जरूरत का हल निकाल लिया है और हम हलमा के जरिये सामुदायिक भागीदारी अपनी विकास की राह से बनाएंगे।”

मद्रास HC ने अपने जाति-व्यवस्था वाले फैसले में किया बदलाव, पहले कहा था वर्तमान जाति व्यवस्था सौ साल से भी कम पुरानी

April 02, 2024 | By Maati Maajra
मद्रास HC ने अपने जाति-व्यवस्था वाले फैसले में किया बदलाव, पहले कहा था वर्तमान जाति व्यवस्था सौ साल से भी कम पुरानी

मद्रास हाई कोर्ट ने कहा था कि वर्तमान जाति व्यवस्था एक सदी से भी कम पुरानी है और उसे पुरातन वर्ण व्यवस्था से नहीं जोड़ा जा सकता। अब कोर्ट ने अपने इस आदेश में बदलाव किए हैं और कहा है कि जातियों का वर्गीकरण एक नई और हालिया व्यवस्था है…

Chennai news : मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इस टिप्पणी को हटा दिया है कि जाति व्यवस्था की उत्पत्ति एक सदी से भी कम पुरानी है। न्यायालय का ऐसा कहना है कि वह इस बात से सहमत है कि समाज में जाति के आधार पर भेदभाव मौजूद है और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। लेकिन जाति व्यवस्था की उत्पत्ति जैसा कि हम आज जानते हैं, एक सदी से भी कम पुरानी है के स्थान पर न्यायालय का कहना है कि कि जाति के आधार पर असमानताएं हैं, जो आज समाज में मौजूद हैं और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। हालाँकि, जातियों का वर्गीकरण, जैसा कि हम उन्हें आज जानते हैं, एक अधिक हालिया और आधुनिक घटना है।

यह भी पढ़ें :राजस्थान की रहने वाली आदिवासी महिला टीपू देवी ने अपनी कला से 45 आदिवासी महिलाओं को बनाया आत्मनिर्भर

जातियों का वर्गीकरण एक नई और हालिया व्यवस्था :

दरअसल इस मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने मंत्री उदयनिधि स्टालिन, मंत्री शेखर बाबू और सांसद ए राजा के पद पर बने रहने को चुनौती देने वाली याचिकाओं के अपने हालिया फैसले से जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के बारे में की गई टिप्पणी को हटा दिया है। मद्रास हाई कोर्ट ने वीरवार 7 मार्च को तमिलनाडु के राज्य मंत्री उदयनिधि स्टालिन के सनातन धर्म को लेकर दिए गए बयान की निंदा की थी। मद्रास हाई कोर्ट ने कहा था कि वर्तमान जाति व्यवस्था एक सदी से भी कम पुरानी है और उसे पुरातन वर्ण व्यवस्था से नहीं जोड़ा जा सकता। अब कोर्ट ने अपने इस आदेश में बदलाव किए हैं और कहा है कि जातियों का वर्गीकरण एक नई और हालिया व्यवस्था है।

6 मार्च को अपलोड किए गए फैसले में, न्यायमूर्ति अनीता सुमंत ने कहा था कि, यह स्पष्ट रूप से सहमत हैं कि आज समाज में जाति के आधार पर असमानताएं मौजूद हैं और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। हालाँकि, जाति व्यवस्था की उत्पत्ति जैसा कि हम आज जानते हैं, एक सदी से भी कम पुरानी है। अब वर्तमान में मद्रास उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर उपलब्ध इस टिप्पणी को हटा दिया गया है। इसके स्थान पर ये देखा गया है, कि ” न्यायालय स्पष्ट रूप से सहमत हैं कि जाति के आधार पर असमानताएं हैं, जो आज समाज में मौजूद हैं और उन्हें दूर किया जाना चाहिए। हालाँकि, जातियों का वर्गीकरण, जैसा कि हम उन्हें आज जानते हैं, एक अधिक हालिया और आधुनिक घटना है…”

विभाजनकारी टिप्पणी :

अदालत का ऐसा भी कहना है कि सनातन धर्म एक उत्थान महान और सदाचारी आचार संहिता को दर्शाता है। इसलिए मंत्रियों और सांसद ने सनातन धर्म पर जो विभाजनकारी टिप्पणी की है वो गलत है। हिंदू मुन्नानी संगठन के पदाधिकारियों टी मनोहर, किशोर कुमार और वीपी जयकुमार द्वारा व्यक्तिगत हैसियत से दायर याचिकाओं पर ये टिप्पणियां की गईं। हालांकि अदालत ने बयानों को विकृत और विशेष समुदाय के खिलाफ घृणा फैलाने वाला माना, लेकिन उसने मंत्री के खिलाफ यथास्थिति जारी करने से इनकार कर दिया और कहा कि चूंकि मंत्रियों और सांसदों के खिलाफ FIR में कोई दोष साबित नहीं हुआ है।

आदेश पारित करने से मना :

अदालत ने कहा था कि जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत अयोग्यता की सूची लक्ष्मण रेखा की तरह है और अदालत इसका पालन करने के लिए बाध्य है। इस प्रकार, यह देखते हुए कि लंबित आपराधिक कार्यवाही में मंत्रियों/सांसदों को दोषी नहीं ठहराया गया था इसलिए अदालत ने कार्यालय के खिलाफ कोई भी आदेश पारित करने से मना कर दिया है।

(Dalit times)

सरकारी और प्राइवेट नौकरी करने वालों को डॉ अम्बेडकर की ये बातें याद रखनी चाहिए

March 03, 2024 | By Maati Maajra
सरकारी और प्राइवेट नौकरी करने वालों को डॉ अम्बेडकर की ये बातें याद रखनी चाहिए

देश के भाग्य को आकार देने में श्रमिकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हर साल मई में श्रमिकों के सम्मान में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है। यह दिवस श्रमिक वर्गो का उत्सव है। जिसे अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक आंदोलनों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है। आज श्रमिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं उसका श्रेय डॉक्टर बाबा साहेब अंबेडकर को दिया जाता है।

‘इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी’ का गठन किया

बाबा साहेब अंबेडकर ने श्रमिकों के उत्थान और अधिकारों के लिए 1936 में “इंडिपेन्डेंट लेबर पार्टी” का गठन किया था। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि बाबा साहेब अंबेडकर मजदूर, गरीब, शोषित, पीड़ित हर हाशिये के व्यक्ति के प्रति कितने गंभीर थे। पहली बार अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस 1 मई 1886 को मनाया गया था। इस दिवस की मुख्य मांग का आधार था कि मजदूरों के लिए प्रति श्रम दिन केवल 8 घंटे होना चाहिए । इस प्रस्ताव को वाल्टीमेर (अमेरिका) के मजदूरो के कंवेंशन में पारित किया गया था ।

प्रति श्रम दिन केवल 8 घंटे होना चाहिए

भारत में पहली बार मज़दूर दिवस 1923 में मद्रास में मनाया गया था। श्रम विभाग की स्थापना नवंबर 1937 में हुई थी। बाबा साहेब अंबेडकर ने जुलाई 1942 में श्रम विभाग का कार्यभार संभाला था।  जब बाबा साहेब अंबेडकर ने श्रम विभाग सभाला था तब उस समय सिंचाई और बिजली के विकास के लिए योजना और नीति का निर्माण करना मुख्य चिंता थी।

1942 में जब बाबा साहेब अंबेडकर श्रम विभाग का कार्य संभाल रहे थे। तब उस समय बिजली प्रणाली विकास, हाइडल पावर स्टेशन साइटों, हाइड्रो-इलेक्ट्रिक सर्वेक्षणों, बिजली उत्पादन और थर्मल पावर स्टेशन की समस्याओं की जाँच पड़ताल करने के लिए केंद्रीय तकनीकी पावर बोर्ड” (CTPB) का गठन करने का फैसला लिया गया था। इसके अलावा बाबा साहेब अंबेडकर ने वाल्टिमेर के कन्वेंशन की भांति फैक्ट्रियों में मजदूरों के 12 से 14 घंटे काम करने के नियम को बदल कर 8 घंटे  कर दिया था।

महिला श्रमिकों के लिए कानून बनाएं

महिला श्रमिकों के लिए भी बाबा साहेब अंबेडकर ने खान मातृत्व लाभ अधिनियम,  महिला श्रम कल्याण कोष, महिला और बाल श्रम संरक्षण अधिनियम, महिला श्रम के लिए मातृत्व लाभ और कोयला खदानों में भूमिगत कार्य पर महिलाओं के रोजगार पर प्रतिबंध की बहाली आदि जैसे कानून बनाए।

‘राइट टू स्ट्राइक’ को मान्यता दी

बाबा साहेब ने श्रम सदस्य के रुप में 1946 में केंद्रीय असेम्बली में न्यूनतम मजदूरी निर्धारण सम्बन्धी एक बिल पेश किया जो 1948 में जाकर देश का ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ बना। बाबा साहेब ने 1946 में “लेबर ब्यूरो” की स्थापना भी की। बाबा साहेब ने ही मजदूरों के हड़ताल करने के अधिकार को स्वतंत्रता का अधिकार  माना और कहा कि “ मजदूरों को हड़ताल का अधिकार न देने का अर्थ है मजदूरों से उनकी इच्छा के विरुद्ध काम लेना और उन्हें गुलाम बना देना।“

मजदूरों का दुश्मन पूंजीवाद

लेकिन बम्बई प्रांत की सरकार मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के विरूद्ध थी। इसलिए बम्बई प्रांत की सरकार 1938 में मजदूरों के हड़ताल के अधिकार के विरूद्ध “ट्रेड डिस्प्यूट बिल” पास करना चाहती थी। लेकिन बाबा साहेब “ ट्रेड यूनियन” के प्रबल समर्थक थे। बाबा साहेब का मानना था कि ट्रेड यूनियन भारत के मजदूरों के लिए जरुरी है। लेकिन वह यह बात भी अच्छे से जानते थे कि ट्रेड यूनियन भारत में अपना अस्तित्व खो चुका है। उनके अनुसार जब तक ट्रेड यूनियन सरकार पर कब्जा नहीं कर लेती तब तक वह मज़दूरों का भला कर पाने में अक्षम रहेंगी। और नेताओं की झगड़ेबाजी का अड्डा बनी रहेंगी। बाबा साहेब का मानना था कि भारत में मजदूरों का सबसे बडा दुश्मन पूंजीवाद है।

‘त्रिपक्षीय श्रम परिषद’ की स्थापना

डॉ अम्बेडकर ने श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा के उपायों को सुरक्षित रखने के लिए 1942 में ‘त्रिपक्षीय श्रम परिषद’ की स्थापना की। मजदूरों को रोजगार देने और और श्रमिक आंदोलन को मजबूत करने के लिए श्रमिकों और नियोक्ताओं को समान अवसर दिया।  डॉ अंबेडकर ने बिजली क्षेत्र में ‘ग्रिड सिस्टम’ के महत्व और आवश्यकता पर जोर दिया, जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है। अगर आज बिजली इंजीनियर  ट्रेनिंग के लिए विदेश जा रहे हैं, तो इसका श्रेय डॉ अंबेडकर को जाता है। जिन्होंने श्रम विभाग के एक नेता के रूप में विदेशों में सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरों को प्रशिक्षित करने के लिए नीति तैयार की।