आम चुनाव : मर्यादा मुक्त, करो या मरो का चुनाव; मोदी+शाह ब्रांड एक्सपायर्ड !
एक जून की शाम से एक्जिट पोल के परिणाम आने लगेंगे। उस दिन कुछ अंदाज़ लग सकता है चुनाव परिणामों का। वैसे आसमान साफ होगा 4 जून की मतगणना के बाद ही।
लेकिन,पूर्व संध्या पर यह निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि अठाहरवीं लोकसभा लिए आम चुनाव अपनी अनेक विलक्षणताओं के लिए इतिहास में दर्ज़ होगा। सर्वप्रथम, सातों चरण के चुनाव सत्ता पक्ष और विपक्ष ने ’करो या मरो ’ की आक्रामक भावना से लड़ा। कांग्रेस नेता और स्टार प्रचारक राहुल गांधी ने आरंभ से ही कहना शुरू कर दिया था: यह विचारधाराओं के बीच जंग है। उनका यह नारा नया नहीं था; भारत जोड़ों और भारत न्याय यात्रा में भी इसकी अनुगूंजें होती रही हैं। आम चुनाव अभियान में यह अपनी पूरी शिद्दत के साथ गूंजा है।दूसरी तरफ भाजपा के सुपर स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अपनी सर्वसत्तावादी व सर्वव्यापी विचारधारा की जीत के लिए हर मुमकिन शस्त्र का निम्नतम स्तर पर प्रयोग किया।दोनों पक्षों के बीच यह स्पष्ट विभाजक रेखा अंतिम दौर तक बनी रही है और चुनाव चाल भी प्रभावित होती रही है; 400 पार की मनोवैज्ञानिक जंग लड़ी गई; गोदी मीडिया ने मोदी व भाजपा का प्रचण्डता से साथ दिया;चुनाव आयोग का चरित्र विवादों में घिरा रहा; हार-जीत के आंकड़ों का खेल रचा गया; और अंत में प्रधानमंत्री ने स्वयं को परमात्मा या ईश्वर का दूत ही घोषित कर भारत सहित विश्व को चकित कर दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने 29 मई को कह दिया कि 1982 में गांधी फिल्म के बनने के बाद ही दुनिया महात्मा गांधी जानने लगी. उससे पहले वे अनजान थे. अब मोदी जी की इस अनभिज्ञता को मासूमियत समझें या मक्कारी या ईर्ष्या या घृणा कहें या कुछ और ? उत्तर समझ से परे है. यह लेखक तो निरुत्तर है. सो मोदी जी मनोरोगी हैं या नहीं, इसका निर्णय तो मनोचिकित्सक ही कर सकते हैं.उन्हें चाहिए कि वे मनोचिकितसक से अविलम्ब सलाह लें. 140 करोड़ आत्माओं के राष्ट्र पर ‘रहम’ करें. वास्तव में, , प्रधानमंत्री के रूप में मोदी जी ने भाषा मर्यादा और आदर्श आचार संहिता की धज्जियां ज़रूर उड़ाई है; नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक किसी भी प्रधानमंत्री ने अमर्यादित भाषा और अभिव्यक्ति का प्रयोग नहीं किया था. और न ही असत्य को देश पर थोपा। जबसे देश में मोदी राज शुरू हुआ है तब से उत्तर सत्य राजनीति और उत्तर सत्य मीडिया- संस्कृति फैलती जा रही है. संक्षेप में, यह सत्य का असत्य और असत्य का सत्य में सुविधानुसार रूपांतरण है. इसका कारोबार ज़म कर होता रहा है. इस चुनाव में तो यह अपने चरम पर रहा है. लेकिन एक बात तय है, ‘मोदी ब्रांड’ चुक चुका है. संघ, भाजपा और कॉर्पोरेट हाउस तीनों के लिए मोदी ब्रांड अब ‘ एक्सपायरी’ में तब्दील हो गया है. ज़ाहिर है, यही हालत अमित शाह की होगी, क्योंकि पिछले बीस सालों से गुजरात और बाद में दिल्ली में ‘मोदी+ शाह ब्रांड भाजपा ‘ ही सियासी मार्किट में प्रचलित रहा है. महात्मा गांधी के सम्बन्ध मेंमोदी जी ने अपने ज्ञान का प्रदर्शन करके स्वयं और अधिक ‘उपहास पात्र’ बना डाला है. 29 मई को मोदी जी ने मीडिया से कह दिया कि 1982 में ‘गांधी’ फिल्म बनने के बाद ही दुनिया महात्मा गांधी को जानने लगी है. कितनी मूर्खतापूर्ण टिप्पणी है. मोदी को मालूम होना चाहिए कि गांधी जी का 20 वीं सदी के महानायकों ( लेनिन , माओ,गांधी , अल्बर्ट आइंस्टीन ,नेहरू , सुभाष, हो ची मिन्ह, नेल्सन मंडेला आदि ) में विशिष्ट स्थान है. ऐसा अज्ञानी व्यक्ति देश का ‘शिखर एग्जीक्यूटिव’ कैसे बन जाता है, इसे महाआश्चर्य या अविश्वसनीय ही कहा जायेगा! बलिहारी है जनता और संघ परिवार की!
19 अप्रैल से 1 जून तक सात चरणों में सम्पन्न होनेवाला यह आम चुनाव मूलतः
- बहुलतावाद बनाम एकरंगवाद;
- धर्मनिरपेक्षता बनाम हिन्दुत्ववाद;
- लोकतंत्र बनाम एकतंत्र;
- संविधान बनाम संविधान परिवर्तन;
- उदार पूंजीवादी लोकतंत्र बनाम निरंकुश कॉर्पोरेटी लोकतंत्र;
- ध्रुवीकरण बनाम सब रंगी समाज;
- मध्ययुगीन मानस बनाम आधुनिक मानस;
- अंधविश्वास बनाम वैज्ञानिक दृष्टि;
- संघीय ढांचा बनाम एकतंत्रीय ढांचा;
- एक देश -एक चुनाव बनाम सामान्य वर्तमान चुनाव प्रणाली ;
- जातिगत सर्वेक्षण बनाम यथास्थिति;
- बेरोज़गारी + निम्न जीवन स्तर बनाम राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण;
- किसान +श्रमिक समस्या बनाम धनिक वर्ग हित पोषण;
- मर्यादित भाषा बनाम अमर्यादित भाषा प्रयोग;
- प्रधानमंत्री गरिमा का अधोपतन बनाम प्रधानमंत्री गरिमा की रक्षा;
- जैविक अस्तित्व बनाम दैविक शक्ति;
- संवैधानिक संस्थाओं का अवसानीकरण बनाम संस्थाओं की पुनर्स्थापनाकरण ;
- गोदी मीडिया बनाम आज़ाद सोशल मीडिया ;
- असमान खेल मैदान बनाम अकूत साधन समृद्ध खेल मैदान ;
- असत्य का प्लावन बनाम सत्य का बांध ;
- अंतिम चुनाव की आशंका बनाम भविष्य का सुनहरा लोकतंत्र जैसी द्विविभाजक प्रवृत्तियों के बीच घनघोर ढंग से लड़ा गया.
बेशक़, मोदी +शाह नेतृत्व में सत्ताधारी भाजपा हर मोर्चे पर आक्रामक रही है. चुनाव विजय के लिए एक नई तकनीक ईज़ाद की. एक समय था जब भारत ‘मतपेटी लूट’ के लिए कुख्यात रहा था. परन्तु, अब भाजपा ने इसमें नायाब आयाम जोड़ दिया; मतपेटी के स्थान पर विपक्ष के ‘प्रत्याशी – लूट’ शुरू करदी. इसका सफल प्रयोग सूरत और इंदौर में करके दिखा दिया. ऐन मौक़े पर ही कांग्रेस प्रत्याशियों को चुनाव मैदान से हटवाकर भाजपा में शामिल कर लिया. इससे पहले खजुराहो में भी भाजपा ने समाजवादी प्रत्याशी के साथ यही किया था. निश्चित ही भाजपा ने चमत्कारिक फार्मूले को विकसित किया. इसकी जड़ें विरोधी दलों की सरकारों को गिराने में भी फैली हुई हैं; इसी फार्मूले के तहत मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गोवा, अरुणाचल, उत्तराखण्ड जैसे प्रदेशों में गैर-भाजपाई सरकारों का पतन हुआ था. सारांश में, सर्वत्र ‘ भाजपा का राज’ रहे. यह आम चुनाव भी इसी मंसूबे से लड़ा गया। साम+दाम+दंड+ भेद का भरपूर प्रयोग किया गया. मोदी+शाह जोड़ी देश भर में छाई रही. भाजपा अध्यक्ष नड्डा जी बराये नाम बीच बीच में नमूदार होते रहे. लेकिन, चुनाव कमान जोड़ी के निरंकुश हाथों में रही. पहले ‘मोदी की गारंटी’ गूंजी, फिर मोदी -सरकार की गारंटी आई और अंत में भाजपा सरकार की गारंटी सामने आई. एक ही नारे के तीन तीन रूप दिखाई दिए. साफ़ शब्दों, जोड़ी का क़द भाजपा से बड़ा दिखाई दिया. मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ किनारे पर ही खड़ा दिखाई दिया. भाजपा अध्यक्ष ने तो घोषणा कर भी दी कि अबउन्हें संघ की ज़रुरत नहीं है. दोनों अपने अपने क्षेत्र में स्वतंत्र व सक्षम हैं. इस घोषणा ने सभी को चौंका दिया. लेकिन, क्या संबंध विच्छेद की यह घोषणा अंतिम है या किसी बड़ी रणनीति का हिस्सा, अभी यह एक पहेली है. चुनाव परिणामों के बाद ही
इस घोषणा पर से रहस्य का पर्दा उठ सकता है.
उत्तर चुनाव परिणाम के संभावी परिदृश्य को लेकर क़यासी घोड़े ज़रूर दौड़ रहे हैं. राजधानी दिल्ली में सियासी पर्यवेक्षकों के बीच एक सवाल प्रमुखता से ज़रूर उठ रहा है और वह है ‘सत्ता का शांतिपूर्वक हस्तांतरण’. यदि भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो क्या निवर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वेच्छापूर्वक अपना पद छोड़ देंगे ? ऐसी आशंका मोदी जी की फितरत और कार्यशैली के सन्दर्भ में व्यक्त की जा रही है. सभी जानते हैं कि मोदी जी अपने मुख्यमंत्री काल ( गुजरात 2001 -2014 ) से लेकर अपने प्रधानमन्त्री काल ( 2014 -2024 ) तक आत्मकेंद्रित शैली के अभ्यस्त रहे हैं. सत्ता में बने रहने के लिए वे किसी भी सीमा तक जाने से कतराएंगे नहीं. उनकी आत्मनिष्ठ कार्यशैली और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की कार्यशैली के बीच काफी समानता है. ट्रम्प के समान यह ज़रूरी नहीं है कि वे भी आसानी से अपनी पराजय को स्वीकार करते हुए फ़क़ीरी चोला धारण कर पहाड़ों की तरफ चले जाएं! वैसे वे कन्याकुमारी ज़रूर जा रहे हैं और विवेकानंद की मूर्ति के चरणों में बैठ कर आत्मदर्शन करने का उनका विचार है. अपनी हार को जीत में बदलने के लिए वे कोई भी स्वांग रच सकते हैं. दूसरा दृश्य यह है कि यदि चन्द सीटें कम रहती हैं तो कॉर्पोरेट घराने उनके लिए थैलियां बिछा सकते हैं. बड़े पैमाने पर नवनिर्वाचित सांसदों की खरीद-फ़रोख़्त हो सकती हैं. मोदी जी को कॉर्पोरेट घरानों का भरोसेमंद दोस्त माना जाता है. यह बात दीगर है कि चुनाव के दौरान उन्होंने अपने भाषण में अम्बानी + अडानी के नामों का खुलासा करके अपनी विश्वसनीयता को संदेहास्पद बना लिया हो! वैसे पूंजीपति का कोई स्थायी घोड़ा नहीं होता है. वह मुनाफ़े के उतार-चढ़ाव को ध्यान में रख कर अपना घोड़ा बदलता रहता है. अक़्सर वह एक साथ कई घोड़ों की सवारी भी करता रहता है. इस दृष्टि से कोर्पोरेटपति अम्बानी और अडानी भी अपवाद नहीं हैं. देखना यह होगा कि घोड़े किस दल से रहते हैं. कहा जा रहा है कि आंध्रप्रदेश, तेलंगाना,ओडिशा जैसे प्रदेशों में पर नज़र है. वैसे शिकार के खेल में गृहमंत्री अमित शाह बेजोड़ शिकारी हैं. अभी से ही उन्होंने कई विकल्पों पर एक साथ काम करना शुरू कर दिया होगा! सारांश यह है कि यह सत्ता जोड़ी अपनी सत्ता-सवारी को आसानी से छोड़नेवाली नहीं है. इस जोड़ी ने अपनी पार्टी को हर स्थिति के लिए तैयार रहने के लिए कह भी दिया होगा. वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं भी चुनावों के बाद बड़े निर्णय के संकेत दे दिए हैं. इसकी बिसात उन्होंने अभी से बिछानी शुरू कर दी है. यह महज़ इत्तफ़ाक़ नहीं है कि चुनाव के दौरान मोदी सरकार ने कतिपय वरिष्ठ अधिकारियों की स्थिति में परिवर्तन कर डाला है. अपने मनवांछित अधिकारियों को मन भावन -मोर्चों पर तैनात कर दिया है. इसी क्रम में निवर्तमान सेना प्रमुख को एक माह की सेवा वृद्धि भी दे दी है. वे 31 मई को सेवानिवृत होने वाले थे, अब 30 जून को होंगे. ऐसा उन्होंने क्यों किया है, यह भी रहस्य्पूर्ण है. अतः इस पृष्ठभूमि में सत्ता हस्तांतरण को लेकर आशंकाएं पैदा होती हैं तो यह स्वाभाविक ही है. यदि सुविधाजनक पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो दृश्य दूसरा होगा. यह जोड़ी और अधिक निरंकुश हो सकती है! पार्टी का पहले से अधिक हाशियाकरण हो सकता है. ऐसी स्थिति में आशंकाएं बिल्कुल आधारहीन नहीं लगती हैं. यह भी भय है कि यदि मोदी तीसरी दफे प्रधानमंत्री बनते हैं तो सोशल मीडिया के पर कतर दिए जायेंगे। क्योंकि, सोशल मीडिया ने काफी हद तक स्वतंत्र भूमिका निभाई है और इस जोड़ी की अच्छी खासी खबर ली है. यह जोड़ी प्रतिशोध के लिए जानी जाती है. ज़ाहिर है, जोड़ी के निशाने पर सोशल मीडिया रहेगा. ऐसी स्थिति में मीडिया के गोदीकरण का विस्तार ही होगा और रही -सही आज़ादी जाती रहेगी.
दूसरा दृश्य यह भी हो सकता है कि इंडिया महागठबंधन 272 का जादूई आंकड़ा पार कर सकता है या उसके समीप आ सकता है. ऐसी स्थिति में इंडिया के नेतृत्व से परिपक्व निर्णय की अपेक्षा की जाती है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले इस गठबंधन को चाहिए कि वह अभी से ही इंडिया की सरकार का नेतृत्व कौन करेगा, अभी से इसकी क़वायद शुरू करदे. क्योंकि उसके पास नेतृत्व के लिए कोई सर्वसम्मत चेहरा नहीं है. इसे उसकी बड़ी खामी के रूप में देखा जा रहा है.विपक्ष की आलोचना के लिए उसे चेहराविहीन बताया जाता है. इसलिए ज़रूरी है कि वह चुनाव परिणाम से पहले ही किसी एक नाम पर सहमति पैदा करे. माना जा रहा है कि नेतृत्व की दृष्टि से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम सबसे आगे है. वे अनुभवी, दलित पृष्ठभूमि और दक्षिण भारत से हैं. कन्नड़, हिंदी और इंग्लिश पर उनका समान अधिकार है. यानी उनके पास आवश्यक राजनैतिक नेतृत्व पात्रता है. संयोग से देश की राष्ट्रपति आदिवासी समाज से है. ऐसे में प्रधानमंत्री दलित समाज से रहता है तो शिखर सत्ता का अनूठा समीकरण बनेगा और स्वतंत्र भारत के इतिहास में नया आयाम जुड़ेगा. भाजपा इसे आसानी से चुनौती नहीं दे सकेगी। सुना जा रहा है कि गठबंधन में संतुलन बनाये रखने के लिए दो उपप्रधानमंत्री भी हो सकते हैं. जनता पार्टी की सरकार ( 1977 -79 )में दो उपप्रधानमंत्री ( बाबू जगजीवन राम और चरण सिंह ) थे. मेरी दृष्टि में राहुल गाँधी पद की दौड़ से बाहर रहेंगे. उन्हें फिरसे पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. क्योंकि आनेवाले समय में संगठन की दृष्टि से कांग्रेस को मज़बूत करना पड़ेगा. दिल्ली समेत कई राज्यों में इसकी हालत लचर है. शरद पवार को इंडिया का अध्यक्ष बनाया जा सकता है. यह भी माना जा रहा है कि ममता बनर्जी इंडिया महागठबंधन से रिश्ता नहीं तोड़ेंगी. सक्रिय समर्थन देती रहेंगी. चार जून के बाद इंडिया महा गठबंधन को बनाये रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी. यदि यह सत्ता में नहीं आता है तो इसके घटक सदस्य इधर-उधर भटक सकते हैं. शिकारी पहले से ही टोह में रहेंगे. यदि इंडिया की सरकार बनती है तो दल-बदल कानून को और सख्त बनाये जाने की ज़रूरत होगी. उन गलियों को बंद करना होगा जिससे हो कर निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप निकल कर पाला बदल लेते हैं. सरकारों का पतन होता रहता है. लोकतंत्र कमज़ोर होता जाता है. मतदाता ठगे जाते हैं. अतः इस दिशा में अविलम्ब क़दम उठाने की ज़रूरत है.