अयोध्या में भगवान राम का प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद नरेंद्र मोदी बिहार में एक दूसरे “राम” की शरण चले गए। बिहार की राजनीति में इसे “पलटू राम” के नाम से याद किया जाता है। आप चाहें तो उन्हें नीतीश कुमार के नाम से भी जान सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने भी अपना प्रण त्याग कर पलटी मारी है।
आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि नीतीश कुमार के लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर देने का प्रण करने वाली भाजपा ने एक बार फिर नीतीश लिए रेड कार्पेट बिछा दी ? दरअसल, केंद्रीय सत्ता पर अपनी तीसरी पारी की तैयारी में भाजपा को किसी के साथ समझौता करने से परहेज नहीं है। बिहार में भाजपा को पिछड़ी जातियों के समर्थन के लिए उसे नतीश के साथ समझौता करने की राजनीतिक मजबूरी थी। यही स्थिति नीतीश कुमार के सामने भी थी। नीतीश कुमार उसी भाजपा के साथ चले गए जिसके खिलाफ उन्होंने भारत भर में नेताओं से मिल कर 28 विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर “इंडिया एलायंस” का गठन किया था।
27 विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन ही नहीं राहुल गांधी को उनकी यात्रा में मिल रहे भारी समर्थन से भी भगवा पार्टी डरी हुई है। उसे किसी के साथ जाने से भी परहेज नहीं है। उस नतीश कुमार से भी नहीं जिनके 17 महीने पहले लालू यादव की राजद के साथ चले जाने के बाद उनके दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर दिए जाने की भाजपा ने घोषणा की थी…। राजद के सहयोग से सरकार बनाने के बाद नीतीश कुमार ने भी कहा था- “मरना कबूल है लेकिन भाजपा के साथ नहीं जायेंगे।
“2024 में लोक सभा चुनाव में जेडीयू के फीका प्रर्दशन से भयभीत 72 वर्षीय इंजीनियर नीतीश कुमार जिन्हें शोशल इंजीनियरिंग की ठीक-ठाक समझ है, पिछड़ी जातियों के 36 फीसदी वोट बैंक के सहारे राज्य की सत्ता पर लगभग 18 सालों से काबिज हैं। नीतीश का इन जातियों पर खासा असर माना जाता है।
राज्य में छोटी-बड़ी समुदायों की लगभग 100 जातियां हैं जो बिहार की 36 फीसदी आबादी का हिस्सा हैं। हालांकि वह जिस कुर्मी जाति से हैं उनकी आबादी लगभग 3 फीसदी है। जाति-जनगणना के तहत 65 फीसदी पिछड़ी आबादी को आरक्षण की श्रेणी में लाने के प्रस्ताव के बाद पिछड़ों के बीच नीतीश की साख बढ़ने की आ रही खबरों के बीच केंद्र ने बिहार में आरक्षण के नायक माने जाने वाले पिछड़ा नेता कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर नीतीश कुमार के मंसूबे पर पलीता लगा दिया। केंद्र के इस फैसले से पिछड़ी और अति पिछड़ी आबादी में भाजपा की पैठ बढ़ने के संकेत मिले हैं। नीतीश ने इसे अपने वोट बैंक पर हमला माना। केंद्र के इस फैसले को पचाना उनके लिए मुश्किल हो गया। लिहाजा वह डैमेज कंट्रोल में सक्रिय हो गए।
जन सुराज पार्टी बनाकर डेढ साल से बिहार में पदयात्रा कर रहे चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कहा- नीतीश कुमार को लोक सभा में 5 सीटें भी वमुश्किल मिलती। वह कहते हैं “भाजपा के साथ जाने से संभव है जदयू कुछ बेहतर प्रर्दशन कर ले,लेकिन इस समझौते का खामियाजा उन्हें आगे भुगतना पड़ेगा।“
नीतीश कुमार के एनडीए में वापसी के साथ ही बिहार में एनडीए और इँडिया गठबंधन की तस्वीर बदल गई है। एनडीए गठबंधन में बीजेपी, जेडीयू, एलजेपी, जीतनराम मांझी की पार्टी हम और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी शामिल है। वहीं, विपक्षी इंडिया गठबंधन में आरजेडी, कांग्रेस और वामपंथी दल ही अब बचे हैं।लोकसभा चुनाव में सीट शेयरिंग का फॉर्मूला विपक्षी गठबंधन और एनडीए दोनों में बदल गया है। बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं। एनडीए में पहले बीजेपी, एलजेपी, हम और कुशवाहा की पार्टी के बीच सीट बंटनी थीं, लेकिन अब नीतीश के हिस्सा बन जाने के बाद जेडीयू भी एक बड़े भूमिका में होगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी-जेडीयू-एलजेपी मिलकर लड़ी थी, जिसमें बीजेपी 17, जेडीयू 17 और एलजेपी 6 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। हालांकि भाजपा के लिए नीतीश कुमार के साथ सियासी संतुलन बनाकर रखना आसान नहीं होगा। लेकिन पार्टी की फिलहाल प्राथमिकता होगी कि अगले तीन महीने बिना किसी विवाद के सरकार चलाई जाए ताकि लोकसभा चुनाव में किसी तरह का प्रतिकूल संदेश नहीं जाए।
भाजपा नीतीश के साथ पिछड़ा और अति पिछड़े वोट को अपने साथ जोड़कर रखना चाहती है। 2019 में भाजपा-जदूय का साथ चुनाव लड़ने पर राज्य की 40 लोकसभा सीट में 39 सीटों पर एनडीए ने जीत हासिल की थी। अब नीतीश के दोबारा एनडीए में आने पर बीजेपी उस प्रदर्शन को दोहराने की कोशिश करेगी।
नीतीश भले ही इंडिया गठबंधन के संस्थापक सदस्य रहें हों लेकिन उन्हें 28 दलों के विपक्षी गठबंधन में भाजपा का एजेंट के तौर पर शक की नजरिये से देख गया। इन्हीं कारणो से उन्हें गठबंधन का संयोजक बनाने से परहेज किया गया तो वह बिफर गए। कहते हैं- लालू यादव भी नीतीश को लेकर मल्लिकाअर्जुन खरगे को अगाह कर चुके थे। महागठबंधन से मोहभंग होने के बाद नीतीश को भाजपा के साथ जाने का एक मात्र विकल्प था।
तेजस्वी यादव की आरजेडी के लिए नीतीश कुमार का अचानक साथ छोड़ना एक बड़ा झटका है।दोनों दल मिलकर जातीय समीकरण साध रहे थे, जिसके तहत आरजेडी मुस्लिम-यादव को एकजुट करने में लगी थी तो नीतीश कुमार अति पिछड़े वोट को अपने पक्ष में करने में जुटे हुए थे। ऐसे में अब तेजस्वी यादव के सामने अब नई चुनौती है। तेजस्वी यादव ने विकास और रोजगार के अजेंडे पर काम करन की घषणा की है।
कई वर्षों से आरजेडी या जेडीयू के सहारे राजनीति कर रही कांग्रेस को चुनाव में सीटों की हिस्सेदारी अधिक मिलने की उम्मीद है। हालांकि पार्टी के सामने कोई चेहरा नहीं है जो पार्टी को विस्तार दे सके। ऐसे में कांग्रेस को छोटे पार्टनर की भूमिका तक ही खुद को सीमित रखनी होगी।
इस पूरे घटनाक्रम से अगर किसी की राजनीति उलझेगी तो वह हैं लोजपा-रामविलास गुट के चिराग पासवान। नीतीश कुमार के धुर विरोधी चिराग के लिए तुरंत अपने पुराने स्टैंड से हटना आसान नहीं होगा।जीतन मांझी अपने 4 विधायकों के साथ अभी पूरे प्रकरण में एक्स फैक्टर बने हुए हैं। वह एनडीए का झेडा उठाने की कीमत लेंगे। सियासी उलटफेर के बाद सबसे बड़ा झटका उपेंद्र कुशवाहा को लग सकता है। अब नीतीश कुमार के एनडीए में आने के बाद छोटे दलों का बहुत सियासी स्पेस नहीं बचता है। जबकि निषाद वोटरों के बीच अपनी पैठ रखने वाले मुकेश सहनी एनडीए में अपनी संभावना देख रहे थे, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा की तरह उनके लिए भी शायद ही जगह मिले। ऐसे में वह विपक्षी गठबंधन में अपनी संभावना तलाश सकते हैं। 2020 के चुनाव में लेफ्ट दल, खासकर सीपीआई-एमएल ने मजबूत वापसी की थी। तब उन्होंने राज्य में 16 सीटें जीती और उनका स्ट्राइक रेट सबसे अच्छा रहा। बदली हुई स्थिति में पार्टी लोकसभा में अपना हिस्सा मांग सकती है।
नीतीश कुमार के विपक्षी गठबंधन में रहते हुए बीजेपी के लिए बिहार की लड़ाई काफी मुश्किलों भरी लग रही थी क्योंकि 2015 के विधानसभा चुनाव में इसी तरह की स्थिति बनी थी, जिसमें महागठबंधन भारी पड़ा था। नीतीश कुमार को अपने पाले में करने से बीजेपी को सबसे ज्यादा फायदा तो यह होता दिख रहा है, क्योंकि जेडीयू बिहार में तीसरी ताकत बनी है।
यादव और मुस्लिम मिलकर 35 फीसदी के करीब ही वोट है। इसी समीकरण के बदौलत 2019 में आरजेडी और कांग्रेस ने बीजेपी से मुकाबला किया था, लेकिन सफल नहीं रहे। कांग्रेस महज एक सीट मुस्लिम बहुल किशनगंज ही जीत सकी थी, जबकि आरजेडी का खाता भी नहीं खुला था।